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विरोध ने बढ़ाई फिल्मों की कमाई

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विभूति शर्मा

हमारे समाज में फिल्मों का विरोध कोई नई बात नहीं है। फिल्म निर्माण के प्रारंभिक काल से ही विरोध भी होता रहा है। लेकिन यह भी प्रमाणित तथ्य है कि जब भी किसी फिल्म का विरोध हुआ उसने मीडिया में सुर्खियां बटोरी हैं और इन्हीं सुर्ख़ियों ने फिल्म निर्माताओं की झोलियां भर दीं। अनेक निर्माताओं ने तो स्वयं ही विवादों को हवा दी, ताकि फिल्म की चर्चा हो और वह कमाई करने में कामयाब हो।


आज के दौर में ऐसे निर्माताओं में भंसाली, मधुर भंडारकर, अनुराग कश्यप और शेखर कपूर जैसे नाम प्रमुख हैं। राजनीति पर केंद्रित पुरानी फिल्में किस्सा कुर्सी का हो या पिछले साल आई इंदु सरकार। धार्मिक फ़िल्में हों या जातिभेद वाली, विवाद या विरोध के चलते अच्छी कमाई करने में सफल रहती हैं। इसका ताजा उदाहरण है फिल्म 'पद्मावत', जिसने भारी विरोध के बावजूद कमाई के मामले में संजय लीला भंसाली को उन्हीं की फिल्मों के सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए मालामाल कर दिया है। यह स्थिति तब है जबकि कुछ राज्यों में फिल्म अभी तक रिलीज़ भी नहीं हुई है।
 
सामाजिक बंधनों के कारण ही प्रारंभिक दौर में फिल्मों में स्त्री पात्रों की भूमिका पुरुष निभाया करते थे। धीरे-धीरे स्वीकार्यता मिलने के साथ स्त्रियां इस क्षेत्र में आईं और खूब नाम भी कमाने लगीं। हिन्दू-मुस्लिम खाई भी शुरू से चली आ रही है। फिर भी इस विषय पर फ़िल्में बनती और चलती भी रहीं और कमाई भी करती रहीं। कालजयी मुगल-ए-आज़म को कौन भुला सकता है, जो आज भी थिएटरों में भीड़ जुटाने में सक्षम है।
 
 
सभी जानते हैं कि जोधा-अकबर को लेकर कई फ़िल्में बनी हैं। छुटपुट विरोध भी होता रहा, लेकिन उसने कभी ऐसा हिंसक रूप नहीं लिया, जैसा कि आज संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावत' को लेकर हो रहा है। विरोध हुआ तो सेंसर बोर्ड, राजनीतिक स्तर पर या फिर अदालतों के माध्यम से मामला निबटा लिया गया।
 
लेकिन इस बार 'पद्मावत' के मामले को राजपूत समाज खासतौर से उसके एक तबके करणी सेना ने अपनी मूंछ का सवाल बना लिया है और वह अदालत के फैसले को भी मानने को तैयार नहीं है। वह सड़कों पर उतरकर व्यापक हिंसा में लिप्त है। इससे राष्ट्र के जनधन की भी भारी क्षति हो रही है, जो नाकाबिलेबर्दाश्त है।
 
 
यदि फिल्मों के विरोध के हाल के इतिहास पर नजर डालें तो कुछ निर्माता-निर्देशकों के नाम ऊपर तैरते दिखाई देंगे जिनका शगल ही ऐसी फ़िल्में बनाना है ताकि कोई तबका नाराज हो और उनके विरोध से फिल्म को पब्लिसिटी मिले और उनकी झोली भरे। संजय लीला भंसाली इसमें सबसे आगे खड़े नजर आते हैं। उनकी पिछली फिल्म रामलीला को लेकर भी बखेड़ा हुआ और फिर अदालत के आदेश पर फिल्म नाम बदलकर 'गोलियों की रासलीला- रामलीला' के नाम से रिलीज़ हुई।
 
 
विवादित विषय उठाने में अनुराग कश्यप भी माहिर हैं। कश्यप का नाम ही सुर्ख़ियों में तब आया, जब उन्होंने 1993 मुंबई विस्फोटों पर केंद्रित फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' बनाई। तीन साल तक बैन रहने के बाद यह 2007 में रिलीज़ हो सकी थी। इसके अलावा उन्होंने पांच, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर जैसी फ़िल्में बनाईं, जो अभद्र भाषा और भीषण हिंसा के कारण विवादित रहीं। 
 
विवादों को हवा देकर फिल्मों को चर्चित बनाने के मामले में दीपा मेहता भी अग्रणी पंक्ति में हैं। दीपा की फिल्मों के विषय प्राय: सेक्स या होमोसेक्सुअलिटी रहे हैं। याद कीजिए उनकी भारतीय विधवाओं को लेकर बनाई गई फिल्म 'वॉटर', जिसकी शूटिंग में भी 'पद्मावत' की तरह बाधाएं आई थीं। इस फिल्म के निर्माण में दीपा के साथ अनुराग कश्यप भी थे।
 
 
दीपा की फिल्म 'फायर' ने समाज में भारी आग लगाई थी। लेस्बियन कंटेंट के कारण शिवसेना समेत अनेक हिन्दू संगठनों ने इसका विरोध किया था। विवाद के चलते सेंसर ने इसे बैन भी किया था। इसी तरह के विषय पर एक फिल्म 'पिंक मिरर' आई थी, जिसने दुनियाभर के फिल्म फेस्टिवलों में वाहवाही लूटी थी। इसे भी भारतीय सेंसर बोर्ड ने बैन किया था।
 
शेखर कपूर भी विवादित विषयों के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। उन्होंने चर्चित डाकू फूलन देवी के जीवन पर केंद्रित फिल्म बैंडिट क़्वीन बनाई जिसे सेक्सुअल कंटेंट और अभद्र भाषा के कारण सेंसर ने बैन कर दिया था। अभिनेत्री सीमा बिश्वास के साथ सामूहिक बलात्कार और उनके निर्वस्त्र दृश्यों के कारण फिल्म ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं।
 
 
कुछ फ़िल्में राजनीतिक विवादों को हवा देने से भी चर्चित हुईं, जैसे किस्सा कुर्सी का, आंधी, इंदु सरकार और उड़ता पंजाब। 1993 के मुंबई बमकांड की पृष्ठभूमि में पनपी हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के की प्रेमकथा वाली बॉम्बे ने विवाद खड़ा किया था तो 2002 के गुजरात दंगों की कथा 'परज़ानिया' ने भी विवादों को खदबदाया था।
 
अगर फिल्मों के विवादित होने के कारणों पर गौर करें तो मुख्य रूप से रूढ़िवादी भारतीय समाज में अस्वीकार्य विषयों का उठाया जाना है। हालांकि इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे विषय समाज में आ रहे बदलाव के कारण ही उठाए जाते हैं, लेकिन उनके संतुलित प्रस्तुतीकरण से विवादों को टाला जा सकता है।
 
 
इस सबके बावजूद यह बात सभी को समझनी चाहिए कि एक फ़िल्मकार अपनी रचनाधर्मिता के तहत फिल्म बनाता है जिसके कंटेंट को परखने का दायित्व सेंसर बोर्ड का है। अगर सेंसर बोर्ड फिल्म को पास कर देता है तो उसका विराध जायज नहीं माना जा सकता। फिल्म को देखने या न देखने का निर्णय आपका अपना हो सकता है।
 
समाज की ठेकेदारी किसी की बपौती नहीं है। जनता अगर समझदारी दिखाए और फिल्मों के कंटेंट को गुणवत्ता के आधार पर परखे तो निर्माता उनकी अज्ञानता का लाभ नहीं उठा सकेंगे और न ही विवादित मुद्दे उठाएंगे।

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