शमशेरा फिल्म समीक्षा: करम से डकैत, धरम से आज़ाद और दर्शकों के लिए सिरदर्द

समय ताम्रकर
शुक्रवार, 22 जुलाई 2022 (14:31 IST)
Shamshera Movie Review अपनी लवर बॉय इमेज को तोड़ने के लिए प्रतिभाशाली कलाकार रणबीर कपूर ने 'शमशेरा' की है, जिसमें डकैत, डबल रोल, एक्शन जैसी बातें उन्हें पहली बार करने को मिली हैं। उनके पिता ऋषि कपूर की हमेशा से ख्‍वाहिश रही थी कि रणबीर को मेनस्ट्रीम मसाला फिल्में भी करना चाहिए और इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर रणबीर ने 'शमशेरा' के लिए हां कहा। 


 
मसाला फिल्मों के नाम पर बॉलीवुड को सत्तर और अस्सी के दशक में बनने वाली बी-ग्रेड फिल्मों की ही याद आती है। नया उनसे कुछ सोचा नहीं जाता। इसलिए मसाला फिल्म बनाने के मामले में दक्षिण भारतीय फिल्म मेकर, हिंदी फिल्म बनाने वालों से आगे निकल गए हैं। मसाला फिल्मों में भी वे कोई नई बात सामने लाते हैं जिससे दर्शकों का मनोरंजन होता है। 'शमशेरा' फिल्म इसी कमी से जूझती रहती है कि इसमें कुछ भी नया नहीं है। 
 
दु:ख की बात तो ये है कि निर्माता के रूप में इस फिल्म से आदित्य चोपड़ा जुड़े हैं जिनका बैनर यशराज फिल्म्स को फिल्म बनाते-बनाते 50 साल हो गए हैं। कई ब्लॉकबस्टर फिल्में इस बैनर ने बनाई हैं, लेकिन इन दिनों ये बैनर 'ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान', 'बंटी और बबली 2' जैसी घटिया फिल्में लगातार दे रहा है। इस लिस्ट में अब 'शमशेरा' को भी जोड़ लीजिए। हैरत की बात तो ये है कि आदित्य चोपड़ा जैसे प्रोड्यूसर इतनी निम्न स्तरीय कहानी पर पैसा लगाने के लिए कैसे तैयार हो गए। 


 
कहानी की बात निकली है तो यह भी बता दी जाए। 1871 में ये सेट है। नीची जाति के लोगों को परेशान किया जाता है तो वे ऊंची जाति वालों को लूटने लगते हैं। शमशेरा (रणबीर कपूर) इनका सरदार है। ऊंची जाति के लोग अंग्रेजों को 5 हजार तोला सोना देकर शमशेरा और उसकी टोली को पकड़ने के लिए कहते हैं। अंग्रेज सरकार में सिपाही शुद्ध सिंह (संजय दत्त), शमशेरा को लालच देता है कि वह आत्मसमर्पण कर दे, बदले में उन लोगों को जमीन दी जाएगी ताकि वे अच्छे से रह सके। 
 
शमशेरा आत्मसमर्पण करता है तो उसे धोखा मिलता है। उसके सारे लोगों को एक जगह कैद कर जुल्म ढहाया जाता है और शमशेरा को मार दिया जाता है। 25 साल बाद शमशेरा का बेटा बल्ली (रणबीर कपूर) वहां से निकल कर शुद्ध सिंह और अंग्रेजों से बदला लेकर अपने लोगों को छुड़ाता है। 
 
इस घिसी-पिटी कहानी को नीलेश मिश्रा ने लिखा है, जो निहायत ही सपाट है। अहम सवाल तो ये है कि अंग्रेज शमशेरा के सैकड़ों साथियों को क्यों गुलाम बना कर रखते हैं? उन्हें मार क्यों नहीं देते? उनसे अंग्रेजों को कोई फायदा नहीं मिल रहा था? छोड़ने के बदले में वे दस हजार तोला सोना मांगते हैं। बिना बाहर निकले तो कोई उन्हें सोना दे ही नहीं सकता था, फिर इस बेहूदी शर्त का का क्या काम। 

 
स्क्रीनप्ले लिखा है एकता पाठक मल्होत्रा और करण मल्होत्रा ने। इस स्क्रीनप्ले में न कोई उतार-चढ़ाव हैं और न मनोरंजन। शमशेरा का बदला उसका बेटा बल्ली लेना चाहता है, लेकिन उसे दर्शकों का साथ नहीं मिलता क्योंकि शमशेरा वाला हिस्सा बहुत ज्यादा जल्दबाजी में निपटाया गया है। उसके साथ हुए अन्याय का दु:ख दर्शकों को महसूस नहीं होता। शमशेरा को अंग्रेज धोखा देते हैं, लेकिन यहां पर देशभक्ति का कोई जज्बा ही पैदा नहीं किया गया है। कहने का मतलब ये कि फिल्म में कोई इमोशन ही नहीं है। हीरो की खुशी और दु:ख को दर्शक महसूस ही नहीं कर पाते। 
 
बल्ली की बहादुरी के कारनामे वाले कुछ दृश्य रखे गए हैं, लेकिन ये अत्यंत ही सतही हैं। ट्रेन से इंग्लैंड की महारानी का ताज चुराने वाला सीन हास्यास्पद है। ट्रेन खिलौनेनुमा लगती है और यह सीन बहुत नकली बना है। फिल्म में खूब पैसा लगाने की बात कही गई है, लेकिन ये कहीं नजर नहीं आता। 
 
फिल्म के किरदार कई जगह मूर्खताएं करते नजर आते हैं। बल्ली को पकड़ने निकला शुद्ध सिंह के हाथ बल्ली की पत्नी सोना (वाणी कपूर) लगती है। वह उसे पकड़ कर छिपे हुए बल्ली को बाहर निकलवा सकता था, लेकिन वह ऐसा करता ही नहीं। क्यों? ये तो स्क्रिप्ट राइटर ही बता सकते हैं। 

 
इंटरवल तक फिल्म बहुत ज्यादा खींची गई है और एक्शन शुरू ही नहीं होता। उम्मीद थी कि इंटरवल के बाद कुछ ऐसा होगा, लेकिन निराशा ही हाथ लगती है। फिल्म देखते समय बाहुबली, आरआरआर, केजीएफ 2 जैसी हालिया रिलीज फिल्मों की भी याद आती है क्योंकि इनका प्रभाव भी 'शमशेरा' पर नजर आता है। 
 
निर्देशक करण मल्होत्रा कैरेक्टर्स को निखारने पर तो ध्यान देते हैं, लेकिन इस चक्कर में कहानी और बेसिक बातों को भूला देते हैं। इससे उनकी मेहनत बरबाद हो जाती है। यहां पर तो कहानी के चयन पर ही सवाल है। उनका प्रस्तुतिकरण बहुत ढीला है। फिल्म बहुत ज्यादा लंबी लगती है। कुछ शॉट्स उन्होंने अच्छे फिल्माए हैं, लेकिन यही एक फिल्म को उम्दा बनाने के लिए काफी नहीं है। 
 
रणबीर कपूर शमशेरा और बल्ली के रूप में मिसफिट लगे। वे अपने किरदार में ऊर्जा और जोश नहीं भर पाए, हालांकि इसमें उनका दोष कम और स्क्रिप्ट का ज्यादा है। वाणी कपूर को ज्यादा फुटेज नहीं मिले और वे 2022 की लड़की लगी हैं, 1871 की नहीं। एक्टिंग के नाम पर वे प्रभावित नहीं करतीं। संजय दत्त ही दर्शकों का थोड़ा मनोरंजन कर पाए। माथे पर तिलक लगाए खूंखार, लेकिन कॉमिक विलेन का किरदार उन्होंने खूब निभाया है। रोनित रॉय का ज्यादा उपयोग ही नहीं किया गया और सौरभ शुक्ला को भी दमदार सीन नहीं मिले। 
 
संगीतकार मिथुन एक भी ऐसा गाना नहीं दे पाए जो हिट कहा जा सके। अनय गोस्वामी की सिनेमाटोग्राफी उम्दा है। सेट निहायत ही नकली हैं। शिवकुमार वी. पाणिककर के संपादन में चुस्ती नहीं है। एक्शन सीन रोमांचित नहीं करते। कुल मिलाकर 'शमशेरा' थकाऊ और पकाऊ है। 

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