अनेक फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
शुक्रवार, 27 मई 2022 (14:27 IST)
अनुभव सिन्हा ने पिछले कुछ वर्षों में मुल्क, थप्पड़, आर्टिकल 15 जैसी बेहतरीन फिल्में दी हैं और मुद्दों को अपनी फिल्मों के जरिये उठाया है। उनकी ताजा फिल्म 'अनेक' में उन्होंने नॉर्थ ईस्ट इंडिया में रहने वाले लोगों के हालात, मानसिक स्थिति और राजनीतिक हालातों का जायजा लिया है। बंगाल के पार सात प्रदेशों के लोगों को लेकर अन्य भारतीयों की क्या सोच है, ये सभी जानते हैं। उन्हें 'चीनी' या 'चिंकी' कहा जाता है। उनका मजाक बनाया जाता है और गैर भारतीय माना जाता है। उन्हें हमेशा सिद्ध करना होता है कि वे भारतीय हैं। ये वो बातें हैं जो समय-समय पर उठती रही हैं। 
 
'अनेक' इन सवालों के साथ थोड़ा अंदर जाती है। इन सात प्रदेशों को भारत से 22 किलोमीटर का टुकड़ा जोड़ता है। इस रास्ते पर जब सेना आती-जाती है तो तमाम ट्रकों को साइड में दो-तीन दिन रूकना पड़ता है और किसानों की साल भर की मेहनत से तैयार की गई फसल बेकार हो जाती है। इसकी टीस नॉर्थ-ईस्ट इंडिया के लोगों में हैं। सब उन्हें घूरते हैं मानो वे अपराधी हों। फिल्म का नायक कहता है कि ये तो हमें सेलिब्रेट करते हैं, हम भी इन्हें रोज सेलिब्रेट करें, सिर्फ उसी दिन नहीं जब नॉर्थ-ईस्ट का कोई मुक्केबाज स्वर्ण जीता हो।
 
फिल्म का नायक यह भी सवाल खड़ा करता है कि इस इलाके में कोई नहीं चाहता कि शांति कायम रहे। इतनी सरकारें आई-गईं, लेकिन इतना छोटा-सा काम नहीं कर पाई? अशांति के जरिये ही कई लोग अपना हित साध रहे हैं। वो कहता है कि शांति के बजाय युद्ध या हिंसा को बनाए रखना बहुत आसान है। 
 
फिल्म नॉर्थ ईस्ट इंडिया के लोगों की लाचारी, शोषण, अत्याचार और हिंसा पर कई वाजिब सवाल तो उठाती है, लेकिन जिस ड्रामे के इर्दगिर्द ये सारी बातें कही गई हैं, वो ड्रामा असरदायक नहीं है। वो इतना पॉवरफुल नहीं है कि दर्शकों को बैठाए रखे या उन्हें झकझोर दे। 
 
कहानी अंडरकवर एजेंट जोशुआ (आयुष्मान खुराना) की है जिसे सरकार ने उत्तर-पूर्वी भारत के अलगाववादियों पर नजर रखने की जवाबदारी है क्योंकि सरकार उत्तर-पूर्व भारत के बड़े लीडर टाइगर सांगा के साथ शांति समझौता चाहती है। जोशुआ अलगाववादियों की हिंसक गतिविधियों पर काबू करने की कोशिश करता है ताकि शांति समझौते के पूर्व कोई बड़ी घटना न हो। 
 
जोशुआ से बॉक्सर आइडो (एंड्रिया केवीचुसा) को लगाव है जो भारतीय टीम के लिए खेलने के लिए मेहनत कर रही है, लेकिन नॉर्थ ईस्ट इंडियन होने के कारण उसके साथ भेदभाव हो रहा है। उसके पिता वांगनाओ सरकार के खिलाफ गतिविधि चला रहे हैं और पिता-पुत्री अपने-अपने स्तर पर लड़ाई लड़ रहे हैं। 
 
जोशुआ जब स्थानीय लोगों के करीब होता है और शांति वार्ता में उसे राजनीति की बू आती है तो वह दिमाग के बजाय दिल से काम लेता है। यहां पर फिल्म हमें ऋषिकेश मुखर्जी की 'नमक हराम' में राजेश खन्ना के किरदार और प्रकाश झा की फिल्म 'चक्रव्यूह' में अभय देओल के किरदार की याद दिलाती है। 
 
आइडो से प्रेम का नाटक कर जोशुआ उसका उपयोग कर रहा है। इस कथित प्रेम प्रसंग के जरिये फिल्मकार ने नॉर्थ ईस्ट इंडियन्स के प्रति अन्य भारतीयों के कथित प्रेम को दर्शाया है। 
 
अनुभव सिन्हा ने कहानी लिखी है और स्क्रीनप्ले सीमा अग्रवाल और यश केसवानी के साथ मिल कर लिखा है। स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाते। शुरुआती 45 मिनट बेहद कन्फ्यूजिंग है और फिल्म के मुख्य किरदारों के उद्देश्य को समझना मुश्किल हो जाता है और यही पर आप फिल्म में रूचि खो बैठते हैं। 
 
जोशुआ की हरकतों को स्थानीय लोग पकड़ क्यों नहीं पाते? जोशुआ के इरादों को जब सीनियर ऑफिसर भांप लेते हैं तो भी उसे खुला क्यों छोड़ रखते हैं? जैसे सवाल परेशान करते हैं। 'जॉनसन' नामक खलनायक का जो हौव्वा रचा गया है वो ट्रैक भी फिल्म में अच्छे से उभर कर नहीं आता। फिल्म कई बार एकपक्षीय भी लगती है।  
 
नॉर्थ ईस्ट इंडिया के लोगों का दर्द केवल बातों के जरिये ही व्यक्त किया गया है। उनकी शिकायत या भारत सरकार से उनकी नाराजगी फिल्म में सशक्त तरीके से उभर कर नहीं आती। केवल सवाल उठाने से काम नहीं चलता बल्कि ड्रामे को भी सशक्त बनाना पड़ता है और यही पर 'अनेक' पिछड़ जाती है। 
 
निर्देशक के रूप में अनुभव सिन्हा को अपनी राइटिंग टीम से और मेहनत करवानी थी। बतौर निर्देशक उनका प्रस्तुतिकरण कन्फ्यूजन को बढ़ाता है। कौन क्या चाहता है, ये पूरी तरह से उभर कर नहीं आता। फिल्म के अंतिम 45 मिनट जरूर रोचक हैं जब थोड़ा थ्रिल पैदा होता है, लेकिन फिल्म के बाकी हिस्से में ये थ्रिल नदारद है जबकि यह एक अंडरकवर एजेंट की कहानी है।
 
फिल्म के संवाद कई बेहतरीन हैं। शांति और अशांति के 'कारोबार' को बारीकी से संवादों के जरिये समझाया गया है। गौतम बुद्ध वाला प्रसंग भी जोरदार है। फिल्म में कुछ गीत भी हैं जो मूड के अनुरूप है। सिनेमाटोग्राफी बढ़िया है। 
 
आयुष्मान खुराना अच्छे एक्टर हैं, लेकिन इस फिल्म में बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करते। मनोज पाहवा और कुमुद मिश्रा अपने मंझे हुए एक्टर होने का प्रमाण देते हैं। एंड्रिया केवीचुसा का चेहरा एक्सप्रेसिव है। नॉथ ईस्ट इंडिया के कलाकारों का काम भी उम्दा है। 
 
अनेक सवाल तो अनेक खड़े करती हैं, लेकिन सवाल करने के लिए जो पृष्ठभूमि तैयार की गई है वो दमदार नहीं है। 

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