वहीदा रहमान : सौंदर्य, अभिनय और तीक्ष्ण बुद्धि का विलक्षण संगम
वहीदा रहमान को भारत का सर्वोच्च फिल्म सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिए जाने की घोषणा
वहीदा रहमान ने फिल्मों में उस दौर में प्रवेश किया जब देश में शिक्षा और साहित्य का अनुकूल वातावरण तैयार हो रहा था। पहले नायिकाएँ उतनी शिक्षित नहीं हुआ करती थीं। वहीदा सोच-समझकर फिल्मों में आईं। नृत्य प्रशिक्षण एवं शिक्षा के साथ उनका प्रवेश हुआ।
तीन पीढ़ियों की चहेती अभिनेत्री बनने का सौभाग्य है उन्हें। एक सुलझी, समझदार और संयमित अभिनेत्री का खिताब उन्हें मिला और बड़े जतन से आज भी वे इस खिताब को सहेजे हुए हैं। कुशल नृत्यांगना होने से वहीदा के लिए फिल्मों में अवसरों के द्वार खुलते चले गए। अपने करियर के प्रति वे कभी गंभीर नहीं रहीं और खुद-ब-खुद उपलब्धियाँ उनके जीवन में शामिल होती गईं। अपने नृ्त्य कौशल को भी वे नहीं पहचान सकीं वरना बाईस वर्ष की उम्र में मंच प्रस्तुति से अवकाश नहीं लेतीं।
वहीदा से पूर्व की अभिनेत्रियाँ सौंदर्य, अभिनय और मेहनत के दम पर आगे बढ़ीं। वहीदा में इन तीनों के अतिरिक्त एक बात और थी बौद्धिक विलक्षणता या कहें तीक्ष्ण बुद्धि और विनम्र भावनाओं का विलक्षण संगम।
वहीदा को एक बात और (अनुपम) बनाती है, वह है संतुलित, नियंत्रित और फिर भी गहरी भावाभिव्यक्ति। अभिनय करते हुए उन्हें हमेशा यह अहसास रहा कि कैमरे के समक्ष उन्हें कितना और कैसा करना है। क्या है जिसे छुपाना है और क्या जिसे दर्शाना है।
'तीसरी कसम' की हीराबाई असम्मानजनक पेशे में होने पर भी वहीदा के पवित्र सौंदर्य, निश्छल अनुभूति, अव्यक्त पीड़ा और भोले मीठे स्वर से सम्माननीय और प्रिय लगने लगती है। 'प्यासा' की गुलाबो वेश्या है, पर उसकी प्रलोभित करती भावमुद्राएँ भी मासूम और सहज लगती हैं। क्यों?
जवाब है, वहीदा और उनकी कुशल अभिनय शैली। 'गाइड' की रोजी पौरुषहीन पति की वर्जनाओं को तोड़कर राजू गाइड के संग इठलाती है।' आज फिर जीने की तमन्ना है...' तब उसकी यह उन्मुक्तता दर्शक प्रसन्नतापूर्वक स्वीकारते हैं। जबकि अभिनय से पूर्व यह माना जा रहा था कि वहीदा के लिए यह भूमिका 'सुसाइडल' यानी आत्मघाती सिद्ध होगी। पर वहीदा हर जोखिम के साथ निखरती चली गई।
'गाइड' में वहीदा का यौवन-लावण्य और नृत्य प्रतिभा झरने की तरह फूट पड़ी। वहीदा की चमकीली आँखों में इच्छाओं के रंगीन सपने तैरते नजर आते हैं।
'साहब, बीवी और गुलाम' में वहीदा की शोखी और चुलबुली अदाएँ दर्शकों को मधुर अहसास में डुबो गईं और वे उनके साथ ही गुनगुना उठे 'भँवरा बड़ा नादान है...।' 'चौदहवीं का चाँद' में पति को भरपूर चाहने वाली पारंपरिक और समर्पित वहीदा जैसी पत्नी किस युवा मन ने नहीं सँजोई होगी? आज भी 'चौदहवीं का चाँद' का मीठा-सा 'हाय... अल्लाह' सुनकर किस दिल में सुरीली घंटियाँ नहीं बजतीं?
'खामोशी' की नर्स राधा की छटपटाहट और खामोश आहें किसे नहीं रुलाती हैं? 'तुम पुकार लो' ये गीत सुनकर आज भी फिल्म देख चुकी नारी के मन में राधा की पीड़ा साँस लेती है।
'नीलकमल' की नायिका परिस्थितियों का शिकार होकर भी आरोपों के बीच मर्यादाओं के भीतर बेगुनाही का सबूत तलाशती है। असफल फिल्मों से भी वहीदा सफल होकर निकलीं। कभी बनावटी और बड़बोली नहीं रहीं और सादगी एवं सहजता को अपनी पहचान बनाया।
यश चोपड़ा/प्रकाश मेहरा/ मनमोहन देसाई/ महेश भट्ट/ राज खोसला और गुलजार जैसे फिल्मकारों की फेवरेट तारिका वहीदा उस एक खास मुकाम पर खड़ी हैं, जहाँ आज की अभिनेत्रियाँ पहुँचने के ख्याल भर से हाँफने लगती हैं।