यदि गीतकार शैलेन्द्र फिल्मों में न आए होते, तो हिन्दी साहित्य का गीत-संसार उन्हें सिर आंखों पर बैठाता। एक निरंतर संघर्षशील जीवन रहा है शैलेन्द्र का। लेखन के लिए भागता हुआ सिलसिला।
1944-45 में प्रगतिशील पत्रिकाओं नया साहित्य, जनयुग तथा नयापथ में शैलेन्द्र लिखते थे। वे रेलवे में इंजीनियर थे, लेकिन ट्रेड यूनियन गतिविधियों के कारण तीन साल की नौकरी चली गई।
राजकपूर ने 'बरसात' फिल्म के लिए शैलेन्द्र से गीत लिखने के लिए आग्रह किया था। पहले तो 'एंग्री यंग मैन' ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। बाद में आर्थिक दबाव बढ़े और वे फिल्मों में लिखने के लिए राजी हो गए।
हसरत के साथ उनकी जोड़ी ऐसी जमी कि उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। शैलेन्द्र-हसरत, शंकर-जयकिशन और मुकेश मिलकर एक 'पूरा राजकपूर' बनता है। बरसात में हमसे मिले तुम गीत रचकर शैलेन्द्र राजकपूर को सुनाना चाहते थे, मगर तीन दिन तक बिजली गुल और आंधी-तूफान के कारण वे आरके स्टूडियो नहीं पहुंच सके।
उनका एक्टर बनने का तो कतई इरादा नहीं था, मगर फिल्म 'बूट पॉलिश' में राजकपूर ने उन्हें अंधा गायक बनाकर एक चौपाल पर बैठा दिया। चली कौन से देश गुजरिया तू सजधज के। अपने ही गीत को उधार की आवाज लेकर उन्होंने होंठ हिलाए थे।
कवि नागार्जुन के परम मित्र और पंत, प्रसाद, बच्चन के साथ रत्नाकर, बिहारी, जायसी जैसे प्राचीन कवियों की रचनाओं का गहरा अध्ययन उन्होंने किया था। शुद्ध तथा सरल हिन्दी को फिल्मी गीतों की भाषा बनाकर उन्होंने कमाल किया था।
'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है', 'तुम्हारे है तुमसे दया मांगते हैं (बूट पॉलिश), 'मेरा जूता है जापानी' (श्री 420), 'ऐ मेरे दिल कहीं और चल' (दाग) , 'तू प्यार का सागर है (सीमा), 'बहुत दिया देने वाले ने तुझको' (सूरत और सीरत), सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी (अनाड़ी), 'हम उस देश के वासी हैं' (जिस देश में गंगा बहती है), 'ओ जाने वाले हो सकें तो लौट के आना' (बंदिनी)- जैसे गीत उनकी अमर रचनाएं हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम पर उन्होंने 'तीसरी कसम' नाम से राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त फिल्म बनाई थी। यही फिल्म उनके लिए जानलेवा सिद्ध हुई।
स्वभाव से मस्तमौला शैलेन्द्र की गीत रचना प्रक्रिया बड़ी दिलचस्प रही है। फिल्म 'आवारा' की कहानी सुने बगैर उन्होंने 'आवारा हूं' लिख दिया था। शंकर-जयकिशन से किसी बात पर अबोला चल रहा था, तो उन्होंने लिखा- छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं, तुम कभी तो मिलोगे कहीं तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल। बाद में इस गीत को फिल्म 'रंगोली' में फिट किया गया था।
एक गीत की स्थिति को लेकर राज साहब से भिड़ गए। भिड़ंत के दौर में लिखा- तुम भी हो हम भी हैं दोनों हैं आमने-सामने।
फिल्मी गीतकारों ने जब भेड़ चाल शुरू कर दी और संगीतकारों ने शोर-शराबे का संगीत बैण्ड मास्टर की तरह देना शुरू कर दिया, तो उन्होंने व्यंग्य करते लिखा था- टीन कनस्टर पीट पीट कर गला फाड़कर चिल्लाना, यार मेरे मत बुरा मान यह गाना है न बजाना (लव मैरिज)। शैलेन्द्र का विश्वास था कि गीतकार को संगीत की थोड़ी समझ है, तो वह बेहतर गीत लिख सकता है।
30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी में जन्मे शैलेन्द्र 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में जेल गए थे। मथुरा की गलियों में उन्होंने यौवन को संगीतमय बनाया। मुक्त छंद लिखे। गद्य शैली में नए प्रयोग किए। दो बार उन्हें फिल्म फेयर अवॉर्ड मिले फिल्म अनाड़ी और यहूदी के गीत लिखने पर। कुछ और लोकप्रिय गीत:
* राजा की आएगी बारात (आह)
* भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना (छोटी बहन)
*हरियाला सावन ढोल बजाता आया (दो बीघा जमीन)
* चढ़ गयो पापी बिछुआ (मधुमति)
* जानू रे काहे खनके तोरे कंगना (इंसान जाग उठा)
14 दिसंबर 1966 को यह फिल्म गीताकाश का नक्षत्र टूट गया।
(पुस्तक 'सरगम का सफर' से साभार)