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म्यांमार से मणिपुर आकर बसने वाले तमिल लोगों की कहानी

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BBC Hindi

, रविवार, 11 अप्रैल 2021 (15:56 IST)
राघवेंद्र राव, मोरेह (मणिपुर), भारत-म्यांमार सीमा
 
भारत के एक पूर्वोत्तर राज्य में अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे क़स्बे में एक भव्य दक्षिण भारतीय मंदिर का दिख जाना किसी अचंभे से कम नहीं है। और यह जानकारी कि उस क़स्बे में क़रीब 3,000 तमिल समुदाय के लोग बसते हैं अपने आप में चौंकाने वाली बात है।

ऐसा ही कुछ नज़ारा बीबीसी ने मणिपुर के सीमावर्ती क़स्बे मोरेह में देखा। यहाँ सुदूर तमिलनाडु से आए लोगों ने इस मणिपुरी क़स्बे को ना केवल अपना घर बना लिया है बल्कि कई दशकों से यहाँ रहते रहते वे यहाँ की संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गये हैं।
 
श्री आंगला परमेश्वरी श्री मुनेश्वरार मंदिर का विशाल परिसर मोरेह में तमिल समुदाय के लोगों की उपस्थिति का सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण है। यह मंदिर बिल्कुल भारत-म्यांमार सीमा से सटा हुआ है और इसका प्रांगण दोनों देशों के बीच पड़ने वाले 'नो मेन्स लैंड' के बिल्कुल साथ लगा हुआ है।
 
तमिल लोग मणिपुर कैसे पहुँचे?
जब बर्मा (वर्तमान में म्यांमार) अंग्रेज़ी शासन के अधीन था, तो अंग्रेज़ बहुत से तमिल लोगों को वहाँ मज़दूरी और कई अन्य तरह के कामों के लिए ले गये थे। 1948 में बर्मा आज़ाद हो गया लेकिन बहुत से भारतीय लोगों ने जिनमें तमिल भी शामिल थे, वहीं बसना चुना। 1962 में जब बर्मा लोकतंत्र से सैन्य शासन की तरफ़ मुड़ा, तो वहाँ रहने वाले भारतीय लोगों के लिए मुश्किल खड़ी हो गयी।
 
सैन्य शासन ने भारतीयों की संपत्ति ज़ब्त कर ली और भारतीय नागरिकों को वहाँ लोकतंत्र के समय में जो अधिकार मिलते थे, वो भी चले गये। उनके साथ भेदभाव किया जाने लगा।
 
केबीएस मनियम, जिनका जन्म तत्कालीन रॅंगून में हुआ और जो 8 साल की उम्र में मोरेह आए, कहते हैं, "1964 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू रॅंगून आए और भारतीय समुदाय से मिले। भारत के लोगों ने उनसे यह विनती की कि वो भारत वापस आना चाहते हैं। नेहरू जी ने जहाज़ भेजा और निशुल्क भारतीयों को वापस लाने का काम शुरू हुआ। तमिल समुदाय के लोग भी इसी तरह वापस भारत आए।"
 
मनियम अब मोरेह के तमिल मंदिर की विकास समिति के उपाध्यक्ष हैं। वो कहते हैं कि तमिल लोगों के बर्मा से आने के बाद भारत सरकार ने रेफ्यूजी कैंप लगाए और लोगों का पुनर्वास करने में मदद की लेकिन तमिल समुदाय को वापस तमिलनाडु में आकर बसने में कई तरह की दिक्कतें आईं।
 
बर्मा में कई वर्ष रहने के बाद उनका रहन-सहन और ख़ान-पान बहुत बदल चुका था। वापस आने के बाद इन तमिल लोगों के पास कोई आय का स्रोत नहीं था और वे जो भी सामान बर्मा से लाए थे, उसी को थोड़ा-थोड़ा बेच कर अपना जीवन चला रहे थे।
 
मनियम कहते हैं, "चूँकि यह लोग इस नये माहौल में सेट नहीं हो पा रहे थे, इसलिए बहुत से तमिल लोगों ने वापस बर्मा जाने का मन बना लिया और मणिपुर के मोरेह में इस उम्मीद के साथ आ गये कि वे यहाँ से सीमा पार कर बर्मा जा सकेंगे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज इसी इलाक़े से गुज़री थी और तमिल समुदाय के कई वृद्ध लोग आईएनए में रहे थे और उन्हें यहाँ से बर्मा जाने के सब रास्ते पता थे। इसलिए वे लोग बर्मा जाने के लिए तमिलनाडु से मणिपुर आ गये।''
 
''वो मणिपुर में बसने नहीं आए थे, सिर्फ़ यहाँ से बर्मा जाने के लिए आए थे।" जानकारी के अनुसार 1964 में 12 तमिल परिवार दो समूहों में यहाँ आए—एक समूह में 7 परिवार और दूसरे में 5 परिवार।
 
मनियम के अनुसार पहले 7 परिवारों वाले समूह ने बर्मा में घुसने की कोशिश की पर वहाँ की सेना ने उन्हें गिरफ्तार करने के बाद एक महीने तक एक पाठशाला में नज़रबंद करके रखा। जिसके बाद इन लोगों को मोरेह पुलिस को सौंप दिया गया। स्थानीय भाषा ना आना और जीविका चलाने के साधनों के अभाव को वजह बताते हुए मोरेह पुलिस ने इन लोगों से वापस तमिलनाडु जाने को कहा और इंफाल भेज दिया।
 
जब यह परिवार इंफाल की एक धर्मशाला में रहने लगा, तब इनकी मुलाक़ात एक दक्षिण भारतीय अधिकारी से हुई जो इनकी भाषा से परिचित थे।

मनियम कहते हैं कि उस अधिकारी ने इन लोगों को कहा की मोरेह भारत का हिस्सा है और वो लोग वहाँ जाकर रह सकते हैं। उन्होनें यह भी विश्वास दिलाया की पुलिस उन्हें मोरेह से जाने के लिए नहीं कह सकती।
 
वो कहते हैं, "यह 7 परिवार वापस मोरेह आ गये। उस अधिकारी ने यहाँ के ग्राम अधिकारी से बात करके तमिल परिवारों के रहने और खाने-पीने की व्यवस्था करवाई। 5 परिवारों का दूसरा समूह भी बर्मा में घुसते हुए पकड़ा गया और उन्हें भी यहाँ की पुलिस को सौंप दिया गया। अधिकारियों की मदद से उन्हें भी यहीं बसाने में मदद की गयी।"
यह 12 तमिल परिवार जब मोरेह में रहने लगे तो उन्होंने तमिलनाडु में रह रहे अपने रिश्तेदारों को चिट्ठियाँ लिख कर बताया की वे बहुत आराम से यहाँ रह रहे हैं और वे बर्मा की सीमा के बहुत नज़दीक रहते हैं।
 
मनियम कहते हैं, "उन लोगों ने चिट्ठियों के ज़रिए बताया कि जैसा खाना पीना हमारा बर्मा में था, वैसा ही यहाँ है और आप लोग यहाँ आ सकते हैं। ऐसे ही एक एक करके तमिल परिवार आते गये और हम लोग मोरेह का सबसे बड़ा समूह बन गये। एक वक़्त पर तमिलों की संख्या यहाँ क़रीब 10,000 तक हो गयी थी।"
 
सबसे पहले आए तमिल परिवार मोरेह में एक बरगद के पेड़ की पूजा करते थे। धीरे-धीरे बाकी तमिल समुदाय के लोग भी उस पेड़ की पूजा करने लगे और बढ़ते-बढ़ते वहाँ एक बड़ा सा मंदिर बन गया।
 
तमिल समुदाय को मोरेह में क्या दिक्कतें आईं?
मनियम कहते हैं की 1992 में जब विद्रोह की समस्या शुरू हुई और जब नागा और कुकी समुदायों के बीच जातीय संघर्ष शुरू हुए तो तमिल लोगों के जीवन पर प्रभाव पड़ा। वो कहते हैं कि 1995 में तमिल और कुकी समुदायों के बीच झड़पें हुईं और इसके चलते तमिल लोग मोरेह से पलायन करने लगे।
 
आज मोरेह में तमिल समुदाय के तक़रीबन 3,000 लोग रहते हैं। लेकिन इन सब परेशानियों के बावजूद, मनियम का कहना है कि मोरेह के लोगों ने खुले दिल से उनका स्वागत किया और सहायता की। वो कहते हैं, "हमारी भाषा, रिवाज, संस्कृति सब अलग है। इसके बावजूद यहाँ के लोगों ने हमें अपनाया। अगर वे हमारी मदद नहीं करते तो यहाँ बसना हमारे लिए मुमकिन नहीं होता।"
 
मोरेह में बसने के बाद यहाँ के तमिल समुदाय को बर्मा जाने के कई मौके मिले। मनियम कहते हैं, "हमारे समुदाय के बहुत से लोग अपने रिश्तेदारों को मिलने, मंदिर के दर्शन करने या व्यापार करने बर्मा जाते रहे हैं पर कोविड-19 महामारी की वजह से आवाजाही रुक गई है। म्यांमार में अभी भी 10 लाख के आसपास तमिल लोग हैं और 800 से ज़्यादा दक्षिण भारतीय मंदिर हैं। यहाँ जितने भी तमिल लोग हैं, उन सबके परिवारिक संबंध म्यांमार में हैं। दोनों तरफ से तमिल समुदाय के लोग एक दूसरे को मिलने आते जाते रहते हैं।"
 
मोरेह में तमिल संगम नाम से एक संस्था भी चलाई जा रही है जो यहाँ के तमिल समुदाय की सहायता करने का प्रयत्न करती है। तमिल संगम के उपाध्यक्ष कमल कांत नायडु कहते हैं, "जो तमिल लोग मोरेह के रास्ते बर्मा नहीं जा पाए और यहीं बस गये, उन्हें बर्मीज़ भाषा आती थी। इसलिए वो बर्मा में कारोबार कर पाते थे। यहाँ के स्थानीय लोगों को भी अच्छी तरह से बर्मीज़ भाषा नहीं आती थी। तमिल समुदाय ने बर्मा के साथ कारोबार स्थापित किया और बढ़ाया। अभी भी बर्मा के कारोबारी तमिल कारोबारियों से ज़्यादा संपर्क करते हैं क्योंकि उन्हें वहाँ की भाषा आती है।"

क्या तमिल समुदाय स्थानीय लोगों में घुल-मिल पाया?
दशकों से यहाँ रहते हुए तमिल समुदाय ने खुद को स्थानीय लोगों के साथ एकीकृत भी कर लिया है। तमिल और स्थानीय लोगों के बीच शादियाँ भी हुई हैं।
 
तमिल संगम के माध्यम से भी यह समुदाय स्थानीय लोगों के साथ जुड़ गया है। नायडु कहते हैं, "तमिल बच्चों के लिए शुरू किए गये स्कूल में अब स्थानीय बच्चे भी निशुल्क पढ़ रहे हैं। पहले केवल तमिल पढ़ाई जाती थी। अब अँग्रेज़ी भी पढ़ाई जा रही है।"
 
नायडु के अनुसार तमिल संगम का उद्देश्य तमिल समुदाय की मदद करना और उन्हें सुविधाएं दिलवाना है। 1969 में स्थापित हुए तमिल संगम का एक उद्देश्य अपनी भाषा, रीति-रिवाज और संस्कृति को बरकरार रखना भी है।

म्यांमार के मौजूदा हालात पर क्या सोचते हैं तमिल?
म्यांमार में चल रही हिंसा की वजह से भाग कर भारत आ रहे शरणार्थियों के प्रति तमिल समुदाय का नज़रिया सहानुभूति भरा है।
 
मनियम कहते हैं, "वो लोग भी इंसान हैं। अभी जो ज़ुल्म हो रहा है, बर्मा में मिलिट्री के शासन में उस वजह से जनता बहुत मुश्किल में है। भारत एक लोकतंत्र है और इसलिए भारत को इन लोगों का स्वागत करना चाहिए। लेकिन भारत सरकार ने इस बात से इनकार कर दिया है। भारत सरकार को यह सोचना चाहिए की हमारा देश एक लोकतंत्र है और जो उस तरफ लोग हैं वो भी इंसान हैं जो तकलीफ़ में हैं। हम सब को उन लोगों की मदद करनी चाहिए उन्हें खाना और आवास और स्वास्थ्य सुविधाएं देकर।"

मोरेह में रह रहे तमिल समुदाय के लोग अब म्यांमार नहीं जाना चाहते। वो कहते हैं की उनके देश में लोकतंत्र है और उन्हें यहाँ भारतीय नागरिक होने के सब अधिकार मिल रहे हैं, तो वे क्यों म्यांमार जाना चाहेंगे।

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