- ज़ुबैर अहमद
इस साल अप्रैल में मैं विशेष स्टोरी करने गुजरात गया। उस वक़्त निश्चित तौर पर विधानसभा चुनाव दूर थे, हालांकि यह सभी को पता था कि ये दिसंबर में होने वाला है। इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने अहमदाबाद में रैली कर इसका आगाज कर दिया, ज़िले और तालुके स्तर के नेता, इस स्पष्ट संदेश के साथ अपने अपने घरों को लौटे कि अब जी तोड़ मेहनत करनी है। इनमें से कुछ ने मुझसे कहा कि वो विधानसभा चुनाव के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं।
दूसरी तरफ़ चिर प्रतिद्ंवद्वी कांग्रेस पार्टी के खेमे में बेहद खामोशी दिख रही थी। मैं प्रतिद्वंद्वी शिविरों में मौजूद उत्साह और भयानक चुप्पी के इस अनोखे मूड को देखने से चूकना नहीं चाहता था। जिन कुछ कांग्रेस विधायकों से मेरी मुलाकात हुई उनसे यह लगा कि चुनाव की तैयारी में अभी काफ़ी वक़्त है। लेकिन भाजपा के विधायकों ने मुझसे ये जताया कि चुनाव में अब समय नहीं है वो जल्द से जल्द अपने अपने निर्वाचन क्षेत्रों में खूंटा गाड़ने की तैयारी में थे।
भाजपा अप्रैल से ही चुनाव के लिए तैयार
अब हम सब जानते हैं कि 182 सीटों के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव बेहद नजदीक हैं।सरकार बनाने के लिए जादुई संख्या 92 है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये पिछले कुछ वर्षों में हुआ उत्तेजनापूर्ण चुनावों में से एक होगा, साथ ही सत्तारूढ़ भाजपा का अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी की तुलना में इस जादुई आंकड़े तक पहुंचने की अधिक संभावना है।
चुनाव अभियान की अप्रैल के महीने में ही शुरुआत करने वाली भाजपा के अच्छी स्थिति में खड़े होने के अधिक आसार हैं। उनकी चुनावी मशीनरी की पूरे राज्य में गहराई तक पहुंच है और यही उनके विश्वास का कारण भी, जबकि कांग्रेस अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में अपने कार्याकर्ताओं को एकजुट करने में लगी है।
भाजपा राज्य में 1995 से अपने बूते जबकि 1990 से जनता पार्टी की साझेदारी में बनी हुई है। राज्य की सत्ता से इसे उखाड़ फेंकने के लिए कांग्रेस और इसके दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और कांग्रेस में शामिल हुए ओबीसी अल्पेश ठाकोर समेत तमाम सहयोगी दलों की संयुक्त ताक़त से अधिक की ज़रूरत होगी।
मोदी ही भाजपा के ट्रंप कार्ड
नरेंद्र मोदी भले ही विधानसभा चुनाव में नहीं लड़ रहे हैं लेकिन वो भाजपा के तुरुप के पत्ते बने रहेंगे। वो गुजरात की लोकप्रिय राजनीतिक छवि हैं। एक राष्ट्रीय मीडिया द्वारा कराए गए सर्वे में उनकी लोकप्रियता रेटिंग 66 फ़ीसदी की ऊंचाई पर है।
भाजपा का घोषित लक्ष्य 150 सीटें पाने की है। लेकिन शुरुआती तैयारी के बावजूद यह संख्या बड़ी मानी जा रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर यह 2012 में जीते 116 सीटों को बरकरार रखने में क़ामयाब हो जाती है तो वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य में यह भी कम नहीं होगा।
लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि गुजरात मोदी और अमित शाह का घर है, 116 से कम सीटें हासिल करना उनके लिए हार जैसा होगा। न केवल विधानसभा चुनाव में उनका अभिमान दांव पर है बल्कि यह उनके बड़े सुधारों पर लिए गए निर्णय पर फ़ैसले के रूप में भी देखा जाएगा, जैसे कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के रूप में नोटबंदी और जीएसटी।
गुजरात मॉडल इस बार चुनाव से नदारद
चुनाव की समाप्ति के बाद भी भाजपा का लंबा शासन जारी रह सकता है, लेकिन इसकी चमक संभवतः उतनी न रहे। वास्तव में इसे कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सबसे बड़ी चुनौती पार्टी और इसकी अपनी सरकार से ही मिल रही है। अक्सर चुनाव के समय में पार्टी ने "गुजरात के आर्थिक विकास के मॉडल" का प्रदर्शन करने की कोशिश की, जिसे मुख्यमंत्री मोदी की सफलता की कहानी के रूप में दर्शाया जाता रहा। उन्हें उनके अनुयायियों द्वारा 'विकास पुरुष' कहा जाता था।
जीएसटी पर जनता के असंतोष को देखते हुए भाजपा नेता इस बार गुजरात मॉडल पर कोई शोर नहीं मचा रहे। वो बुनियादी ढांचे, विकास और रोजगार पर कुछ नहीं बोल रहे। यह सीधे लोगों की स्थिति को प्रभावित कर रहा है और कई तो मोदी की नोटबंदी और जीएसटी सुधार से नाखुश हैं, खास कर उनके पारंपरिक सर्मथक जैसे व्यापारी और कारोबारी।
इसकी बजाय मोदी ने हाल ही में राज्य के दौरे के दौरान गुजराती समुदाय से भाजपा को सत्ता में लौटाने के लिए वोट करने और गुजराती गौरव की रक्षा करने को कहा है। वो अलग-अलग मतदाताओं की बजाय पूरे समुदाय को वोट करने को कहते दिखे। भावनात्मक अपील ने उनके लिए पहले भी काम किया है और इस बार भी कर सकता है। लेकिन इसके लिए भी शाह को गणित करनी पड़ेगी और मोदी को अपने गुजराती मतदाताओं के साथ व्यक्तिगत रूप से जुड़ना होगा।
सिर्फ राहुल के लिए जुटती है भीड़
दूसरी चुनौती कांग्रेस से आने की संभावना है, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वो गुजरात में वापसी कर रही है। पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी राज्य की हालिया यात्रा के दौरान उत्साहित नज़र आए। वो सॉफ़्ट हिंदुत्व और राजनीतिक आक्रामकता के संयोजन का उपयोग कर भाजपा से मुकाबला करने की कोशिश कर रहे हैं। वो राज्य सरकार के निराशाजनक प्रदर्शन पर हमला कर रहे हैं। राज्य के दौरे के दौरान, वह मंदिरों में जाकर प्रार्थना करते देखे जा सकते हैं।
वो बुनियादी ढांचे, रोजगार और समग्र आर्थिक विकास पर सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड पर भी सवाल कर रहे हैं। वह जनता के साथ सहानुभूति रखने की कोशिश कर रहे हैं, जो जीएसटी और नोटबंदी की मार से प्रभावित रहे हैं। भाजपा को उम्मीद है कि कांग्रेस जल्द ही लड़खड़ाएगी। दरअसल कांग्रेस पार्टी अपनी ही समस्याओं से जूझ रही है। गांधी के अलावा राज्य में कोई भीड़ खींचने में कामयाब नहीं हो सका है।
इसकी राज्य इकाई भी बहुत कमजोर बताई जा रही है। फ़िर से खड़ी होने की कोशिश में लगी कांग्रेस की तुलना में भाजपा अलग दिख रही है लेकिन इसके कुछ नेताओं का मानना है कि पार्टी के बारे में मीडिया में बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा रहा है।
हार्दिक पटेल कितनी बड़ी चुनौती?
भाजपा के लिए एक और बड़ी चुनौती के रूप में हार्दिक पटेल के आंदोलन का असर है जिससे पार्टी के पारंपरिक वोट बैंक पाटीदारों पर प्रभाव पड़ने के आसार हैं। इससे पार पाने के लिए भाजपा जी तोड़ कोशिशों में जुटी है।
वो हार्दिक पटेल के कोर ग्रुप को तोड़ने में कामयाब हो गए हैं और उनके पूर्व सहयोगियों को पार्टी में शामिल भी किया है। उनकी गणना है कि यदि हार्दिक पटेल को अलग थलग करने में कामयाब रहे तो उनका प्रभाव केवल कड़वा समुदाय तक ही रहेगा, जिससे उन्हें केवल कुछ ही सीटें मिल सकेंगी।
इसलिए अगर हार्दिक कांग्रेस का समर्थन करने का भी फ़ैसला करते हैं, जो फिलहाल निश्चित नहीं है, तो भी भाजपा की नज़र में इससे कुछ ज़्यादा नुकसान नहीं होगा। बेशक अभी से लेकर दिसंबर तक बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन जिस किसी भी कोण से देखें यह विश्वास करना लगभग असंभव है कि भाजपा इन चुनावों में हारेगी।
यह संभव है कि उनका वोट प्रतिशत 48 फ़ीसदी (2012 के चुनाव) से कुछ कम हो सकता है और जीत का स्वाद भी कुछ कड़वा हो। लेकिन कड़वा सच यह है कि इस मोड़ पर कोई भी कांग्रेस पर शर्त लगाने को तैयार नहीं है। अभी तो बिल्कुल भी नहीं।