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अपनी ही जायदाद से 'बेदख़ल' ये बांग्लादेशी हिंदू

हमें फॉलो करें अपनी ही जायदाद से 'बेदख़ल' ये बांग्लादेशी हिंदू
, शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2017 (11:25 IST)
- नितिन श्रीवास्तव, (ढाका)
कैसा लगेगा अगर अपनी पुश्तैनी जायदाद पर आपका कब्ज़ा न हो और आप उसे दूर से निहार भर सकते हों? कैसा लगता होगा जब अपने घर को दोबारा हासिल करने के आपको कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ रहे हों और ख़र्चा बढ़ता जा रहा हो? बांग्लादेश में ऐसे हज़ारों अल्पसंख्यक हिंदू परिवार हैं जो एक पुराने क़ानून के चलते वर्षों पहले अपनी जायदाद गँवा बैठे थे। चंद खुशकिस्मत थे जिन्हें घर मिल गए, लेकिन ज़्यादातर न्याय की आस में हैं।
 
विवादित क़ानून
दरअसल, 1971 में बांग्लादेश के जन्म के पहले 'एनिमी प्रॉपर्टी एक्ट' नाम वाला एक विवादास्पद क़ानून था जिसे बाद में बदल के 'वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट' कर दिया गया। इस क़ानून के तहत सरकार हर उस व्यक्ति या ट्रस्ट की जायदाद पर कब्ज़ा कर सकती थी जिसे देश के दुश्मन के तौर पर देखा जाता हो।
 
देश के अल्पसंख्यक हिंदुओं को इस क़ानून से सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ क्योंकि 1947 के बँटवारे और बांग्लादेश के जन्म के समय लाखों ने घर छोड़ दिया था। कई लोगों ने अपनी संपत्ति रिश्तेदारों के नाम ट्रांसफर कर दी थी। उन जायदादों के लिए मुक़दमे आज भी चल रहे हैं। देश के दक्षिणी शहर चटगाँव के रहने वाले कृष्णकांत पिछले पांच वर्षो से अदालतों के चक्कर काट रहे हैं।
 
उन्होंने बताया, "स्थानीय लोगों ने मेरी दो एकड़ ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया था और वर्षों से मामला अदालत में है। सुनवाई पर सुनवाई होती रही है लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। सरकार के सकारात्मक रवैए और नए क़ानून के बावजूद मेरा इंतज़ार बढ़ता जा रहा है।"
 
इस क़ानून की नींव तब पड़ी थी जब इस देश को पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। वैसे इस तरह का एक क़ानून भारत में भी रहा है और कई मामले अदालत में सुने जा रहे हैं जिनके तहत उन लोगों की जायदाद सरकारी हो गई थी जो विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए थे।
 
बांग्लादेश की 16 करोड़ की आबादी में अल्पसंख्यक हिंदुओं की संख्या पौने दो करोड़ के आस-पास है। सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि जब देश का जन्म हुआ था तब ये प्रतिशत ज़्यादा था। 
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विवादित मालिकना हक़ के कई मामले
राजधानी ढाका में किसी ऐसी प्रापर्टी को ढूँढना जिसका मालिकाना हक़ विवादित हो, कोई मुश्किल काम नहीं। असल दिक्कत तब आती है जब अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों से उस पर खुलकर बात करने को कहा जाता है क्योंकि ज़्यादातर मना कर देते हैं। मैंने दिनाजपुर, गोपालगंज, सिलहट और जशोर जैसे शहरों में कई लोगों से बात करने की कोशिश की लेकिन सभी ने नाम न लिए जाने की शर्त पर ही बात की।
 
डीएल चौधरी रिटायर्ड उप-जिला मजिस्ट्रेट हैं जिनसे ढाका के शंकरी बाज़ार में मुलाक़ात हुई। वे इलाके की सबसे बड़ी 'मंदिर ट्रस्ट' के सदस्य होने के नाते ऐसा ही एक मुक़दमा लड़ रहे हैं। उन्होंने कहा, "हमें उम्मीद तो बहुत है। लेकिन दुर्भाग्यवश, प्रशासन में ऊपर से लेकर नीचे तक, कई लोग, किसी न किसी के हाथों बिके दिखाई पड़ते हैं। जब वे अपनी आधिकारिक शक्तियों का इस्तेमाल नहीं करते हमें मजबूरन बड़ी अदालतों का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है।"
 
जानकारों के मुताबिक़ अपनी पुश्तैनी जायदादों को दोबारा हासिल करने के लिए वेस्टेड प्रॉपर्टी क़ानून के तहत कम से कम सात हज़ार मुक़दमें अदालतों में सुने जा रहे हैं। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इस कानून के चलते कई फ़ैसले अल्पसंख्यक हिंदुओं के पक्ष में दिए हैं और पुराने क़ानून को संशोधित किया है। लेकिन ज़्यादातर मामलों में अभी भी अवैध कब्ज़े की शिकायतें बरकरार हैं।
 
मामलों में ढिलाई
बांग्लादेश के क़ानून मंत्री अनीसुल हक़ ने बीबीसी हिंदी से बातचीत में इस बात को माना कि मामले में ढिलाई रही है। उन्होंने कहा, "मैंने आदेश दिए हैं कि उन विवादित घरों या ज़मीनों को उनके असली हक़दारों को सौंपा जाए जिनके पक्ष में फ़ैसला आ चुका है। हम ऐसी प्रणाली पर भी काम कर रहे हैं जिससे रुकावटें दूर की जा सकें। इतने वर्षों तक मामला धीमा रहा, इसलिए थोड़ा समय तो लगेगा। हमारी पूरी कोशिश है इसे ठीक करें और तीन से चार महीनों में आप नतीजे देख सकेंगे।"
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घर गँवा देना अपनों को खोने से कम नहीं। दर्द बढ़ तब जाता है जब किसी पुराने कानून के चलते अपनी चीज़ें पराई हो जाएं। जिन लोगों के घर आज भी मुक़दमे में फंसे हुए हैं उनके पास इंतज़ार के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं।

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