असमः कैसे हुआ बीजेपी का अपार विस्तार और क्या अब NRC-CAB से हिलेंगी जड़ें?

Webdunia
सोमवार, 22 अप्रैल 2019 (19:15 IST)
- विकास त्रिवेदी (असम से लौटकर)
 
'अमित भाई शाह के साथ हेलिकॉप्टर में हूं। शाम को बात करूंगा।' हवा से भेजा ये एसएमएस उस नेता का है, जिन्हें वो राज़ और काज दोनों मालूम हैं जिससे असम और उत्तर पूर्व में बीजेपी के सियासी झंडे गड़ पाए।
 
 
'बीबीसी कहां है, बीबीसी?'
 
जी हम ही हैं बीबीसी से, बैठिए इंटरव्यू के लिए कैमरा सेटअप तैयार है। हमारी ये बात सुनते ही गुवाहाटी बीजेपी दफ़्तर से तेजी से निकले ये वो नेता हैं, जिनकी वजह से भी असम में बीजेपी पहली बार सत्ता तक पहुंच पाई। ये दो नेता हैं बीजेपी महासचिव सुनील देवधर और असम सरकार में नंबर-2 हेमंत बिस्वा सरमा। एक हिंदी भाषी पार्टी मानी जाने वाली बीजेपी असम में कैसे सफल हुई?
 
 
इस सवाल का जवाब इन नेताओं से जानने की कोशिश में हमें मिली ये पहली प्रतिक्रियाएं अपने आप में एक जवाब है। ज़ाहिर है कि ये जवाब तनिक धुंधला लग सकता है। लिहाज़ा स्पष्ट जवाब के लिए आपको असम की ब्रह्मपुत्र और बराक वैली की सैर पर लिए चलते हैं।
 
 
असम में बीजेपी की नींव
दशकों से बाहरियों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने वाले असम ने बीजेपी के आने के बाद एनआरसी प्रक्रिया को अंतिम चरण में जाते हुए भी देखा है और नागरिकता संशोधन बिल से बढ़ते ख़ौफ़ को भी। क्या इस ख़ौफ़ के बढ़ने से बीजेपी की मज़बूत जड़ें असम में इन चुनावों में हिल सकती हैं?
 
 
इसे जानने से पहले वो अतीत समझना होगा, जब असम में बीजेपी ने अपने शुरुआती कदम रखे थे। छह साल लंबे आंदोलन के बाद असम में पहली बार 1985 में असम गण परिषद की सरकार बनी। लेकिन जिस आंदोलन के दम पर एजीपी को सत्ता मिली, उसके मकसद को पूरा करने में वो नाकाम रही।
 
 
कभी खिला, कभी मुरझाया कमल
1991 में हुए विधानसभा चुनावों से पहले उल्फा की ओर से बढ़ती हिंसा और एजीपी की ख़ामियां सामने आ चुकी थीं। यही वो चुनाव थे, जिसमें बीजेपी ने पहली बार असम में जीत का स्वाद चखा। इन चुनावों में बीजेपी 10 सीटें जीतने में सफल रही। बीजेपी की ये जीत राम मंदिर आंदोलन के दौर में मिली थी।
 
 
लेकिन 66 सीटें जीतकर सरकार कांग्रेस ने बनाई। हितेश्वर सैकिया मुख्यमंत्री बने, जिनके बारे में एक नारा प्रचलित था- ऊपर में ईश्वर, नीचे में हितेश्वर। 1996 चुनावों में एजीपी फिर मज़बूती के साथ लड़ी। नतीजा 59 सीटें। बीजेपी के लिए ये चुनाव सिर्फ़ चार सीटें लेकर आया। राम मंदिर आंदोलन ठंडे बस्ते में जा चुका था।
 
 
असमिया जनता ने जिस उम्मीद के साथ एजीपी को चुना था, वो उसे पूरा करने में फिर विफल रही। इसी विफलता के साथ 2001 में कांग्रेस के तरुण गोगोई की चुनावी सफलताएं शुरू हुईं, जो लगातार तीन बार सत्ता दिलाने में सफ़ल रहीं। 126 सीटों वाली विधानसभा में 2001 में आठ, 2006 में दस और 2011 में पांच सीटें जीतकर बीजेपी असम में अच्छे दिनों का इंतज़ार करती रही। ये इंतज़ार लोकसभा चुनावों के मामले में भी कमोबेश ऐसा ही रहा:-
 
 
•1991: दो सीटें
•1996, 1998: एक सीट
•1999, 2004: दो सीटें
•2009: चार सीटें
•2014: सात सीटें
 
 
कभी बीजेपी को कुछ सीटें देकर मैदान में खुला खेलने वाली एजीपी 2014 में एक भी लोकसभा सीट जीतने में नाकाम रही। ये बीजेपी की सफलता थी। 2019 चुनावों में बीजेपी असम की 10 सीटों से मैदान में है। सहयोगी दलों में एजीपी को तीन और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) को एक सीट मिली है। ज़ाहिर है कि बीजेपी के यहां तक पहुंचने में 2014 की नरेंद्र मोदी 'लहर' सबसे अहम रही। लेकिन कई और फैक्टर्स थे, जिन्होंने जमकर काम किया।
 
 
शाखाओं का असर
डिब्रूगढ़ में सुबह साढ़े छह बजे बारिश के बीच शाखा में हर उम्र के लोग जुटने शुरू होते हैं। 'नमस्ते सदा वत्सले...' और लाठी अभ्यास के बीच उत्तर पूर्व में एक वरिष्ठ प्रचारक से मैं पूछता हूं कि संघ ने बीजेपी के लिए असम में कैसे ज़मीन तैयार की?
 
 
वो जवाब देते हैं, 'बीजेपी और संघ का रिश्ता राधा और कृष्णा जैसा है। पति पत्नी तो नहीं हैं लेकिन एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।' मैं जब उनसे कुछ और सवाल पूछना चाहता हूं तो वो खाकी रंग की टोपी लगाए एक दूसरे प्रचारक गौरीशंकर चक्रवर्ती से हमारी मुलाक़ात करवाते हैं।
 
चक्रवर्ती कहते हैं, ''आप एक पौधा बोएंगे तो वो एक दिन तो फैलेगा ही। कोई जादू नहीं है। लोग आए, काम हुआ तब बीजेपी खड़ी हुई। ऐसा नहीं है कि बीजेपी के जीतने में संघ की बिलकुल भूमिका नहीं है। हमारे यहां से बहुत से लोग बीजेपी में जाते हैं। आप ये बताइए कि कोई संघ का कार्यकर्ता कांग्रेस में जाना चाहे तो जा पाएगा। वो द्वार खुला ही नहीं है। ऐसे में बीजेपी वाला द्वार खुला है।''
 
 
असम में बीजेपी की सरकार बनाने में संघ की भूमिका के बारे में 'द लास्ट बैटल ऑफ सरायघाट' किताब से भी पता चलता है। रजत सेठी और शुभरस्था इस किताब में लिखते हैं, ''मिलिटेंट और कट्टर सोच वाले उल्फा के उदय के दौर में संघ असम में 'भारत माता' की धारणा से काम करता रहा।''
 
 
यानी संघ ने अलगाव की बात करने वाले राज्य में उस राष्ट्रवाद के बीज बोए, जिसकी सियासी खेती सबसे ज़्यादा बीजेपी करती है। 2016 चुनावों में बराक वैली में बीजेपी की तरफ़ से सुनील देवधर ने अहम भूमिका निभाई थी।
 
 
सुनील देवधर कहते हैं, ''संघ ने कठिन समय में प्रखर राष्ट्रवाद और देशभक्तों को तैयार करने में बड़ा रोल अदा किया। भारत के प्रति लोगों में त्याग समर्पण की भावना को लाने का काम किया। चाय बागान समेत असमिया लोगों को समझाकर उनमें नेटवर्क फैलाने का काम संघ ने चालू किया था। ये करके ज़मीन पर हल चलाने का काम संघ कर चुका था। बीजेपी को इस राष्ट्रवाद का फ़ायदा हुआ। संघ ये सब बीजेपी को लाने के लिए नहीं करता है। संघ राष्ट्रवाद के लिए ये सब करता है लेकिन इसका स्वभाविक फायदा बीजेपी को होता है।''
 
 
असम में संघ के राष्ट्रवाद के हल चलाने की जो बात सुनील देवधर ने की, इसकी शुरुआत 1946 में हुई थी। तब गुवाहाटी के एक मारवाड़ी व्यापारी केशवदेव बावड़ी की गुजारिश पर संघ की पहली शाखा असम में बनाई गई थी। एक तरफ़ जहां बीजेपी की ज़मीन संघ तैयार कर रहा था। वहीं कांग्रेस सालों साल से अपनी पाई ज़मीन खोने की तरफ़ बढ़ रही थी।
 
 
तरुण गोगोई: पिता बनाम नेता
असम में बीजेपी के आने का एक कारण कांग्रेस के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर भी रही। हालांकि अगर असम में लोगों से बात की जाए तो वो कहते हैं, ''कांग्रेस ने विकास नहीं किया, पुल तक नहीं बना सालों से। करप्शन होता था।''
 
 
इस बारे में जब तीन बार असम के मुख्यमंत्री रह चुके तरुण गोगोई से पूछा तो वो कहते हैं, ''हां ग़लती किया, तभी तो सरकार से बाहर हो गए। बोगीबिल पुल का बड़ा काम किसके काल में हुआ, कांग्रेस के शासन में। आम लोग इतने बेवकूफ़ नहीं हैं कि वो ये न समझें। बीजेपी की सब मार्केटिंग है, वो झूठ बोलती है। एक नया बड़ा प्रोजेक्ट बीजेपी ने शुरू नहीं किया। ये झूठ बोल बोलकर सत्ता में आए लोग हैं।''
 
 
असम में बीजेपी के पक्ष में वोट जाने की एक वजह 2016 में आया 84 फ़ीसदी टर्नआउट भी रहा। इस टर्नआउट को बीजेपी के ख़ाते में लाने में हेमंत बिस्वा सरमा की भूमिका रही। असम आंदोलन से निकले हेमंत कांग्रेस में रहे थे। तरुण गोगोई के बाद हेमंत दूसरे नंबर के नेता थे। लेकिन हेमंत के नंबर-2 से नंबर-1 तक पहुंचने की राह में तरुण गोगोई एक पिता के तौर पर खड़े थे।
 
गौरव गोगोई को मिलती विरासत और ''बैठकों के दौरान राहुल गांधी का मुद्दों से ज़्यादा कुत्तों को बिस्किट खिलाने पर ध्यान होने'' की शिकायत लिए हेमंत बीजेपी में शामिल हो गए।
 
 
हेमंत असम में छात्रों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हैं। चुनावों में 200 से ज़्यादा सभाएं करते हैं। ऐसे में बीजेपी को हेमंत के पार्टी में आने का निश्चित तौर पर फ़ायदा हुआ। हालांकि नंबर-2 हेमंत अब भी नंबर दो ही हैं। इन लोकसभा चुनावों में भी टिकट न मिलने के बाद एक बयान काफ़ी चर्चा में रहा था, ''हेमंत पर अमित शाह से कहीं ज़्यादा ज़िम्मेदारियां हैं।'' ये बयान और ज़िम्मेदारियां हेमंत को जिसने दी थी, वो मोदी के सबसे क़रीबी रणनीतिकार माने जाते हैं।
 
 
राम माधव: मोदी के हनुमान
कहा जाता है कि राम माधव चुपचाप काम करते हैं। संघ की नियमावली में इसे 'प्रसिद्धि परिमुक्त' कहा जाता है। असम में कांग्रेस से कई नेताओं को बीजेपी में लाने का काम राम माधव ने किया था। बीजेपी में हेमंत बिस्वा सरमा भी राम माधव की कोशिशों का नतीजा था।
 
अलगाववादी संगठनों और क्षेत्रीय दलों से बातचीत करने की ज़िम्मेदारी संभालने वाले राम माधव को मोदी का हनुमान भी माना जाता है। बीते साल बीबीसी से माधव ने कहा था, ''असम को छोड़ कर पूर्वोत्तर भारत में बीजेपी का कोई जनाधार नहीं था। असम से ही पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में संगठन का संचालन होता था।''
 
 
इस जनाधार को मज़बूत करने के लिए एजीपी, बीपीएफ जैसे दलों को साथ रखने का श्रेय भी माधव के खाते में ही जाता है। लेकिन कुछ दल ऐसे भी हैं, जो बीजेपी के सहयोगी तो नहीं हैं लेकिन वो कई मायनों में बीजेपी के लिए फ़ायदेमंद होते रहे हैं।
 
 
बदरुद्दीन अजमल
लोअर असम की पार्टी एआईयूडीएफ के प्रमुख बदरुद्दीन अजमल। एक बड़े इत्र व्यापारी और मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय माने जाने वाले नेता। अजमल की भूमिका असम में इसलिए भी अहम हो चली है क्योंकि राज्य में मुस्लिमों की संख्या क़रीब 34 फ़ीसदी हो चुकी है।
 
 
'असम अगला कश्मीर होगा या असम का मुख्यमंत्री मुसलमान हो जाएगा।' इस बात पर बहस और डर लोगों में पैदा किया गया। इसकी झलक 2016 में असम में छिड़े पोस्टर वॉर से भी लगाया जा सकता है। जहां ऑटो में एक तरफ सर्बानंद सोनोवाल का पोस्टर था और दूसरी तरफ़ बदरुद्दीन अजमल का। सवाल था- किसे चुनेंगे अगला मुख्यमंत्री?
 
 
बीजेपी की ओर से पोस्टर्स में ऐसा भी प्रचार किया गया, जिसमें बदरुद्दीन अजमल और कांग्रेस के बीच ''समझौता'' होने की बातें कही गईं। हालांकि कांग्रेस ने भी सर्बानंद सोनोवाल के अरुण जेटली के पैर छूती तस्वीर को ये कहकर प्रचारित किया कि असमिया अस्मिता को ये कैसे बचाएंगे?
 
 
सोशल मीडिया पर मज़बूत बीजेपी ने कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा जमकर उठाया। अमित शाह के आक्रामक बयान और मोदी की शैली असमिया लोगों को भा गई। 'चाय पर चर्चा' करने वाले मोदी ने चाय के लिए मशहूर असम में घुसपैठियों के ख़िलाफ़ जो चर्चाएं की, वो असर कर गईं। लेकिन बीजेपी की मज़बूत जड़ें क्या एनआरसी और कैब की वजह से कमज़ोर हुईं हैं?
 
 
हिल सकती हैं असम में बीजेपी की जड़ें?
एनआरसी प्रक्रिया अभी चालू है, फिलहाल इसमें लाखों लोगों का नाम नहीं है। लेकिन असमिया लोगों की चिंताएं नागरिकता संशोधन बिल को लेकर हैं। ये बिल अगर पास हुआ तो असम में बांग्लादेश से आने वाले हिंदू बंगालियों को नागरिकता मिल सकती है। बिल में मुस्लिमों को छोड़कर दूसरे धर्मों का भी ज़िक्र है।
 
 
ऐसे में असम की 34 फ़ीसदी मुस्लिम आबादी और एनआरसी से मिली राहतें महसूस करने वाले असमिया लोग कुछ परेशान भी हैं। लेकिन क्या लोगों की ये परेशानी बीजेपी की चुनावी परेशानी बन सकती है? इस बारे में आम लोगों और जानकारों के बीच दो मत हैं।
 
 
वरिष्ठ पत्रकार बैकुंठनाथ गोस्वामी कहते हैं, '' बीजेपी पूरी दुनिया में हिंदुओं के रक्षक की छवि बनाना चाहती है। ऐसी छवि बनने से बीजेपी अल्पसंख्यकों का वोट यकीनन खोएगी। बीजेपी को कैब की वजह से असम में थोड़ा नुकसान हो सकता है, फिलहाल असम में 'बीजेपी को रोको' अभियान चल रहा है। लेकिन पश्चिम बंगाल में फ़ायदा हो सकता है। क्योंकि वहां बंगालियों की संख्या अच्छी है।''
 
 
गोस्वामी कहते हैं, ''असम में बीजेपी ने अपने कई सांसदों का टिकट काटा है। एजीपी को भी साथ रखने की मजबूरी है। अगर इतनी मज़बूत होती तो क्यों साथ में चुनाव लड़ते। असम में कैब के आने का लोगों को ये डर है कि कहीं उनकी भाषा, संस्कृति, रोज़गार न छिन जाए। मोदी की 2014 में इमेज अलग थी लेकिन अभी घटते-घटते कम हुई है। इन चुनावों में लोग स्थानीय मुद्दे ज़्यादा देखेंगे। हालांकि सोनोवाल की छवि भी लोगों के बीच अच्छी है।''
 
 
सर्बानंद सोनोवाल की असम में छवि माजुली द्वीप के इंदेश्वर गाम की बात से समझिए, ''असम में सोनोवाल सरकार आने से व्यक्तिगत फायदा भले ही न हुआ हो लेकिन लोगों का काम ज़रूर हुआ है। रास्ते बनाए गए हैं। सोनोवाल बैचलर आदमी है। बच्चे हैं नहीं। ढाई सौ ग्राम चावल होंगे तो उसका काम चल जाएगा।''
 
 
डिब्रूगढ़ यूनिवर्सिटी में डिग्री कोर्स पूरा कर चुके कई छात्रों से हमारी बात हुई। वो सभी मोदी की योजनाओं की तारीफ़ करते हुए कहते हैं- राहुल को सुनने में मज़ा नहीं आता, मोदी बढ़िया बोलते हैं।
 
 
असम में स्थानीय लोगों से बात करें तो वो नरेंद्र मोदी और सर्बानंद सोनोवाल से खुश नज़र आते हैं। वजह पूछो तो नई बनी सड़क दिखा देते हैं। बोगीबिल ब्रिज गिना देते हैं। हालांकि कैब के बारे में पूछे जाने पर हर कोई बीजेपी से नाराज़ दिखता है। जोरहाट में ब्रह्मपुत्र नदी पर एक नाव में सवार दिलीप बोरा से हमारी मुलाकात होती है।
 
 
कैब के आने पर उधर से लोग आएंगे तो क्या होगा, इस बारे में पूछे जाने पर दिलीप बोरा अपना मुंह हल्के से मेरे कान के पास लाकर कहते हैं, ''उधर सब अपना जात का लोग है। उन लोगों को लाना है, लाना है। सब अपना लोग आएगा। खाने पीने का दिक्कत नहीं होगा। जैसा तुम खाता है, वैसे ही वो खाएगा। मैं हिंदू हूं।''
 
 
कैब की वजह से बहस के हिंदू बनाम मुस्लिम होने पर एक सवाल ये है कि इन चुनावों में मुस्लिम वोटर्स किस करवट बैठेंगे?
 
 
इस पर बदरुद्दीन अजमल कहते हैं, ''बीजेपी कैब मज़हब की बुनियाद पर ला रही है। वैसे तो सिर्फ़ मुस्लिम वोटर्स की बात नहीं करनी चाहिए लेकिन अगर पूछा ही जाए तो मुस्लिम एआईयूडीएफ को चुनेगा या कांग्रेस को। मुस्लिम एजीपी को भी चुनता लेकिन इतना बड़ा हाथी (एजीपी का चुनाव चिन्ह) जब फूल (कमल) के ऊपर चढ़ेगा तो वो टुकड़ा-टुकड़ा होकर खत्म हो जाएगा।''
 
 
नरेंद्र मोदी: एक बेहतरीन'इवेंट मैनेजर'
असम में डिब्रूगढ़ से धुबरी तक घूमते हुए लालकृष्ण आडवाणी की मोदी को इवेंट मैनेजर कहने की बात कई बार याद आती है। डिब्रूगढ़ के बोगीबिल पुल के पास का कोई भीतरी गांव हो या बांग्लादेश बॉर्डर के क़रीब का कोई कच्चा घर।
 
 
इस क़रीब 900 किलोमीटर के किसी भी गांव, गली या बीच ब्रह्मपुत्र की कोई नाव हो, एक मुस्कुराती तस्वीर आपको देख रही होती है। साथ में जो शब्द लिखे होते हैं, वो किसी योजना का प्रचार या 'ऑल क्रेडिट गोज़ टू' जैसा कोई विज्ञापन होता है। ये तस्वीर नरेंद्र मोदी की है। जोरहाट में मिले दिलीप बोरा की बात याद आती है, 'मोदी जो प्लानिंग करता है न...टाइट टाइट करता है।'
 

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