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नज़रिया: लोकतंत्र की जगह तानाशाही की वक़ालत कर रहे थे अजीत डोभाल?

हमें फॉलो करें नज़रिया: लोकतंत्र की जगह तानाशाही की वक़ालत कर रहे थे अजीत डोभाल?
, शनिवार, 27 अक्टूबर 2018 (13:41 IST)
- उर्मिलेश (वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिन्दी के लिए)
 
अक्सर देखा गया है कि जब पूर्व राजघरानों से जुड़ा कोई व्यक्ति, रिटायर सेनाधिकारी या सेवानिवृत्त अफ़सर लोकतांत्रिक राजनीति या सत्ता संरचना का हिस्सा बनता है तो उसका मिजाज़ जनता पर शासन करने का होता है। लेकिन उसका मिजाज़ जनता की आकांक्षा और ज़रूरत के हिसाब से शासन चलाने का नहीं होता।
 
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद क़रीबी अफ़सर माने जाने वाले अजीत डोभाल का ताज़ा बयान इसी मिजाज़ और मानस की अभिव्यक्ति है। उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो द्वारा आयोजित सरदार पटेल मेमोरियल लेक्चर में अपने व्याख्यान में तीन महत्वपूर्ण बातें कहीं।
 
*पहली बात ये कि देश को अगले 10 वर्षों तक एक ऐसी 'मज़बूत और स्थायी सरकार' चाहिए, जो अस्थायी किस्म के 'गठबंधन सरकारों जैसी कमज़ोर' न हो।
*दूसरी ये कि वो ज़रूरत के हिसाब से 'कठोर फ़ैसले' भी ले सके।
*और तीसरी बात ये कि इस वक़्त देश को बाहरी (शत्रु) शक्तियों के मुक़ाबले अंदर की (शत्रु) शक्तियों से ज़्यादा ख़तरा है।
 
'सपनों का भारत: 2030'
बहुत संभव है कि जीवन का एक बड़ा हिस्सा पुलिस और खुफ़िया संगठनों में बिताने वाले डोभाल साहब को लग रहा हो कि उन्होंने अपने व्याख्यान में विचार के कुछ बिल्कुल नए बिंदू पेश किए हैं। पर लगभग इसी तरह के विचार देश की जनता के बीच साल 1974-77 के दौर में भी ख़ूब प्रचारित हुए थे।
 
गठबंधन राजनीति की व्यर्थता पर तो बार-बार ऐसी बातें कही गईं। इतनी कहीं गईं कि मीडिया और मध्यम वर्ग के मुखर हिस्से में इसे राजनीति का '100 फ़ीसदी सच' बनाकर पेश किया जाने लगा।
 
दिलचस्प बात ये है कि डोभाल के व्याख्यान का विषय था: 'सपनों का भारत: 2030'। उन्होंने अपने भाषण में ये बताने की कोशिश की कि किस तरह सपनों के भारत निर्माण की मुश्किलों से बचा जाए।
 
मुश्किलों या बाधाओं की सूची में उन्होंने ग़रीबी, बेरोज़गारी, जन-स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों, मौजूदा आर्थिक नीतियों के चलते तेज़ी से बढ़ती ग़ैर-बराबरी, लिंगभेद, समाज में बढ़ता तनाव, सांप्रदायिक हिंसा के विविध रूपों और भ्रष्टाचार आदि की कोई चर्चा नहीं की।
 
डोभाल की संघ से निकटता
'गठबंधन सरकारों की आशंका' और अंदरूनी (शत्रु) शक्तियों से बचाव आदि को उन्होंने बहुत ज़्यादा तवज्जो दी। मज़े की बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और उससे संबद्ध तमाम विकास एजेंसियां भारत सहित दुनिया के तमाम देशों के लिए 'टिकाऊ या सतत विकास' के जिन 17 सूत्री लक्ष्यों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बता रही हैं, उनमें किसी को भी डोभाल ने याद नहीं किया।
 
 
जबकि भारत संयुक्त राष्ट्र के उक्त 17 सूत्री लक्ष्यों को हासिल करने के लिए वचनबद्ध है। सबसे पहले ये बताना ज़रूरी है कि पूर्व की जनसंघ या आज की भाजपा ने अतीत में हमेशा गठबंधन सरकारों की पैरोकारी की।
 
 
अफ़सर होने के बावजूद डोभाल ने संघ विचारधारा से अपनी निकटता कभी छुपाई नहीं। फिर वे आज गठबंधन सरकारों की धारणा को सिरे से क्यों खारिज कर रहे हैं?
 
 
प्रचंड बहुमत वाली सरकारें
दीनदयाल उपाध्याय से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक, सभी ने गठबंधन सरकारों की सार्थकता की महिमा गाई। आज भी देश के ज़्यादातर राज्यों में गठबंधन के सहारे ही भाजपा राज कर रही है। फिर मोदी सरकार के मौजूदा कार्यकाल के अंतिम चरण में गठबंधन की राजनीति पर संघ-भाजपा बौद्धिकों के तेवर क्यों बदल रहे हैं?
 
 
क्या संघ-भाजपा के विचारकों को भविष्य में फिर एक नए तरह की गठबंधन सरकार की संभावना नज़र आ रही है? 
 
 
इतिहास गवाह है कि भारत में कुछेक अपवादों को छोड़कर प्रचंड बहुमत वाली ज़्यादातर सरकारों ने समस्याओं का जितना समाधान किया, उससे ज़्यादा समस्याओं को पैदा किया। प्रचंड बहुमत की कई सरकारें निरंकुशता और तानाशाही की तरफ बढ़ीं, तो कइयों ने भारी संकट पैदा किए।
 
 
इमरजेंसी लागू करने वाली सरकार भी एक दल की प्रचंड बहुमत वाली ही सरकार थी। राजीव गांधी की अगुवाई में भी एक बार जनता ने कांग्रेस को प्रचंड बहुमत दिया था। उसके हश्र से देश अच्छी तरह वाकिफ़ है।
 
 
सफल गठबंधन सरकारें
दूसरी तरफ गठबंधन सरकारों का रिकार्ड देखिए। आज़ादी के बाद भारतीय राज्यों में जिन सरकारों ने बेहतरीन काम किए, उनमें 90 फ़ीसदी से ज़्यादा गठबंधन सरकारें रही हैं।
 
 
*केरल को प्रगतिशील राज्य बनाने का श्रेय वाम-लोकतांत्रिक मोर्चे की सरकार को जाता है।
* कर्नाटक को सुखी और समृद्ध राज्य बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण क़दम देवराज अर्स की गठबंधन सरकार ने ही उठाए।
*तमिलनाडु में शुरुआत की द्रविड़ संगठनों की सरकारें भी अपनी अंदरूनी प्रकृति में सामाजिक गठबंधन की ही सरकारें थीं।
*जम्मू-कश्मीर के अब तक के इतिहास में जिन दो सरकारों ने अपेक्षाकृत बेहतर काम किए, वे दोनों गठबंधन की ही सरकारें थीं।
 
 
शेख अब्दुल्ला की अगुवाई की पहली सरकार पूरी तरह कांग्रेस के समर्थन पर टिकी थी, जिसे साल 1953 में कांग्रेस ने गिरा दिया और शेख को हटाकर अपनी पसंद के नेता की अगुवाई में नयी सरकार बनाई।
 
 
फिर नवंबर 2002 में मुफ़्ती सईद की अगुवाई में कांग्रेस-पीडीपी गठबंधन की सरकार बनी। शेख सरकार ने जहाँ अपने भूमि सुधार कार्यक्रम से सूबे को समृद्ध और खुशहाल बनाया, वहीं मुफ़्ती की पहली सरकार ने आतंकवाद से तबाह सूबे को राहत का मरहम लगाया।
 
 
स्थितियों में काफ़ी सुधार आया, जिसे केंद्र की मौजूदा 'मज़बूत सरकार' ने फिर पटरी से उतार दिया और हालात अब साल 2002 के पहले जैसे हो गए हैं। दूसरी तरफ अधिकतम समय बहुमत की सरकारों वाले उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का हाल‌ देखिए।
 
 
मानव विकास सूचकांक, कानून व्यवस्था और अन्य क्षेत्रों में इनका पिछड़ापन पूरे देश के लिए चिंता का विषय बना रहता है। मध्य प्रदेश बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के लिए कुख्यात है जबकि दलितों और महिलाओं पर अत्याचार के लिए यूपी कुख्यात है। 
 
 
अंतरराष्ट्रीय फलक पर देखें तो जर्मनी, फ़्रांस और यूरोप के अनेक विकसित लोकतांत्रिक देशों में गठबंधन या दलीय तालमेल की सरकारें लंबे समय से अच्छा काम करती रही हैं।
 
 
बताएं कि डर किससे है?
डोभाल कह रहे हैं कि अंदरूनी (शत्रु) शक्तियों से देश को ज़्यादा ख़तरा है। फिर उनकी सलाह पर चलने वाली सरकार फ़्रांस, रूस, अमेरिका और इसराइल से इतने सारे हथियार, युद्धक विमान, गोला-बारूद, मिसाइलें आदि ख़रीदने में देश के बजट का एक बड़ा हिस्सा क्यों गंवा रही है?
 
 
अंदरूनी (शत्रु) शक्तियों से निपटने के लिए वो जनता को गोलबंद कर सकती है। घरेलू संकट से निपटने भर के हरबा-हथियारों की हमारे यहाँ कोई कमी नहीं है। डोभाल को ये चिन्हित करना चाहिए था कि ये अंदरूनी शत्रु शक्तियाँ कौन-कौन सी हैं? सिर्फ़ 'अर्बन नक्सल' या अन्य विपक्षी भी?
 
 
दिवंगत गौरी लंकेश जैसे पत्रकार या दादरी के अख़लाक जैसे आम ग्रामीण?
 
साल 1973-77 के दौर में हमने तब के शासक नेताओं के मुँह से 'विदेशी हाथ' के साथ 'देश के अंदर के विघटनकारी तत्वों' से ख़तरे की बातें अक्सर सुनी थीं।
 
 
बार-बार ख़तरे की बात करते-करते जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी की कुर्सी पर ख़तरा मंडराने लगा तो इमरजेंसी लागू कर दी गई। क्या भारत उसी तरह के इतिहास की पुनरावृत्ति की तरफ़ बढ़ रहा है?
 
 
ये भी बताएं कि कठोर फ़ैसले कौनसे वाले?
डोभाल को बताना चाहिए कि क्या नए रूप और तरीक़े के साथ इतिहास दुहराने की क़वायद चल रही है। सीबीआई मुख्यालय में दो दिन पहले आधी रात की 'सर्जिकल स्ट्राइक' कोई सामान्य घटना नहीं लगती।
 
 
जिस आनन-फ़ानन में एक विवादास्पद और 'संघ-प्रिय' अफ़सर को संस्था की बागडोर सौंपी गई, वो शासन के लोकतांत्रिक मिजाज़ का परिचायक तो नहीं है। डोभाल साहब अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे संविधान के तहत देश में सरकार पाँच साल के लिए चुनी जाती है। लेकिन वो 10 साल के लिए 'मज़बूत और निर्णय लेने वाली सरकार' की निरंतरता की बात कर रहे हैं।
 
 
नए जनादेश के बगैर ये कैसे संभव है? वो कठोर फ़ैसले लेने वाली सरकार की पैरोकारी कर रहे हैं। क्या नोट बंदी जैसे कठोर फ़ैसले? रिज़र्व बैंक के आधिकारिक आंकड़े बता चुके हैं कि वो कठोर फ़ैसला सरकार की नीतिगत मूर्खता और व्यर्थता के सिवाए कुछ भी नहीं था।
 
 
100 से अधिक लोगों की मौत और हज़ारों लघु व मध्यम स्तर की औद्योगिक इकाइयों की बंदी से उत्पन्न लाखों लोगों के बेरोज़गार किये जाने जैसे कठोर फ़ैसलों को भला कोई भी समझदार और मानवीय सोच का व्यक्ति कैसे जायज़ ठहरा सकता है?
 
 
और जो डोभाल भूल गए...
ये महज़ संयोग नहीं है कि दुनिया के अनेक प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने मोदी सरकार की नोटबंदी को ग़ैर ज़रूरी और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह कदम बताया।

 
अपने लंबे व्याख्यान में डोभाल ने भारत और चीन की बेवजह तुलना की है। दोनों की स्थितियों और व्यवस्थाओं का फ़र्क दोनों मुल्कों के लिए विकास की अलग-अलग रणनीति की माँग करता है।
 
 
भारत ने आज़ाद मुल्क बनने के बाद अपने विकास के लिए जो रास्ता चुना, उसमें जनतंत्र, समानता और बंधुत्व, तीन सबसे अहम पहलू हैं। डोभाल का बताया रास्ता इन तीनों को नजरंदाज़ करता है।
 

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