यूरोपीय कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट (ईसीएचआर) ने अपने एक फैसले में कहा है कि मोहम्मद पैगंबर को बदनाम करना, "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के दायरे में नहीं आता। ऐसा करने से रोकना मानवाधिकारों का हनन भी नहीं माना जा सकता।
यह पूरा मामला 2009 में ऑस्ट्रिया के एक सेमीनार से शुरू हुआ था। ऑस्ट्रिया की एक महिला ने "बेसिक इंफॉरमेशन ऑन इस्लाम" नाम से सेमीनार आयोजित किए थे। सेमीनार के दौरान हुई बहस में इस महिला ने मोहम्मद और छह साल की लड़की आयशा के साथ शादी की घटना का जिक्र किया। अपनी इसी बात में महिला ने मोहम्मद को बच्चों के साथ यौन शोषण करने वाला (पीडोफाइल) भी कह डाला था। जिसके बाद मामला अदालत पहुंच गया। अदालत ने महिला को धर्म का अपमान करने का दोषी करार देते हुए उस पर 546 डॉलर का जुर्माना लगाया। दूसरी घरेलू अदालतों ने भी इसी फैसले को बरकरार रखा जिसके बाद यह मामला ईसीएचआर पहुंचा।
महिला का तर्क था कि मोहम्मद पर की गई उसकी सारी टिप्पणियां अभिव्यक्ति की आजादी के तहत आती हैं और धार्मिक संगठनों को ऐसी आलोचनाएं सुननी चाहिए। महिला ने यह भी तर्क दिया कि ये सारी बातें एक बहस में कही जा रही थीं जिसका मकसद किसी भी तरह से इस्लाम के पैगंबर को बदनाम करना नहीं था।
ईसीएचआर ने इसी मामले की सुनवाई करते हुए ऑस्ट्रिया की अदालत का फैसला बरकरार रखा है। कोर्ट ने कहा "ऑस्ट्रियाई अदालत ने बेहद सावधानी से याचिकाकर्ता के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और अन्य लोगों के धार्मिक भावनाओं को सुरक्षित रखने के अधिकार के बीच संतुलन बनाया। इसका मकसद ऑस्ट्रिया में धार्मिक शांति को बनाए रखना है।" इसके साथ ही यूरोपीय अदालत ने कहा यह भी है कि धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार किसी को भी धर्म की आलोचना से नहीं रोकता है और न ही किसी के धर्म पालन पर सवाल उठाता है।
कोर्ट ने कहा, "याचिकाकर्ता के बयान किसी भी तथ्य पर आधारित नहीं थे, जिनका उद्देश्य शायद यही साबित करना हो सकता हो कि मोहम्मद पूजा के योग्य नहीं हैं। तथ्यों के बिना कहे गए इन बयानों के पीछे इस्लाम की निंदा करने का इरादा हो सकता है।"
इस्लाम में माना जाता है कि मोहम्मद और आयशा की बीच इस शादी में आपसी संबंध तब स्थापित हुए थे जब आयशा की उम्र नौ साल थी और मोहम्मद की उम्र 50 साल। आयशा को मोहम्मद के सबसे अच्छे मित्र और पहले खलीफा अबु बकर की बेटी कहा जाता है।