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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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राजाश्रय से मुक्‍त होकर संगीत कला ने बनाया अपना ‘नया आसमान’

आजादी से अब तक कई पड़ावों में शास्‍त्रीय संगीत ने अपना सफर तय किया है

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नवीन रांगियाल

आजादी से पहले और उसके बाद अब तक शास्‍त्रीय संगीत की जो यात्रा रही है, उसने कई पड़ाव देखे हैं। एक दौर में संगीत को राजाश्रय मिला हुआ था, गजल, ठुमरी, दादरा हो या नृत्‍य कलाएं। साहित्‍य हो या चित्रकला। ये सब महाराजाओं के सभाकक्षों में उनके मनोरंजन के साधन हुआ करते थे। ऐसा नहीं है कि यह प्रश्रय गलत था, राजाश्रय की वजह से उस दौर में कला और कलाकारों का सम्‍मान भी बहुत होता था। कलाकारों को नवरत्‍न माना जाता था, लेकिन आजादी के बाद जब राजे-रजवाड़े खत्‍म होने लगे तो इन तमाम कलाओं के फैलाव के लिए दुनिया में एक खुला दालान भी मिलने लगा।

कला, खासकर संगीत की विधाएं किसी एक राजा के महल की दीवारों तक सीमित न रहकर देश-दुनिया में लोकप्रिय होने लगीं। जन-सामान्‍य तक संगीत कला का रस पहुंचने लगा। संगीत की इसी यात्रा, उसके वर्तमान, भविष्‍य और उसके लिए जरूरी तत्‍वों को लेकर वेबदुनिया ने आजादी के अमृत महोत्‍सव के तहत ख्‍यात शास्‍त्रीय गायिका कलापिनी कोमकली से विशेष चर्चा की। वे पंडित कुमार गंधर्व की बेटी होने के साथ ही एक मूर्धन्‍य गायिका भी हैं, इसलिए उनसे संगीत पर चर्चा बहुत समृद्ध और सार्थक रही।

सवाल: आप कुमार गंधर्व के परिवार और उनकी संगीत विरासत से आती हैं। मैं जानना चाहता हूं कि अतीत के संगीत या कलाओं और वर्तमान के संगीत या दूसरी कलाओं में क्‍या फर्क आया, क्‍या बदलाव आप महसूस करती हैं?
जवाब: मैं उन भाग्‍यशाली लोगों में से हूं कि मुझे अपने माता पिता गुरू के रूप में मिले। कुमार गंधर्व और मेरी मां वंसुधरा कोमकली का सानिध्‍य मिला। जहां तक भारतीय शास्‍त्रीय संगीत या दूसरी कलाओं की बात है तो पहल कलाओं को दरबारों या सरकारों का राजाश्रय मिला हुआ था। आजादी के पहले संगीतकारों, लेखकों, चित्रकारों और शिल्‍पकारों को बहुत सम्‍मान मिलता था। उन्‍हें नवरत्‍न की तरह देखा जाता था। कलाकार पहले दरबारों में पोषित होते थे। उनके लिए वे अपनी कलाओं की प्रस्‍तुति देते थे, तब कलाओं को राजा-महाराजा का प्रश्रय प्राप्‍त था। महाराजा के दरबारों में कला फलती फूलती थीं। हमारे भू-भाग उज्‍जैन को ही ले लीजिए, यहां कवि कालिदास को राजा के यहां प्रश्रय मिला और उस समय उनकी कला आगे बढ़ी। 

सवाल : तो क्‍या वो परंपरा अच्‍छी थी, या अच्‍छा नहीं माना जाता था?
देखिए, दोनों बातें हैं। आजादी के बाद जब राजघराने, राजाओं की रियासतें खत्‍म होती गई तो इससे कलाओं को खुला दालान मिला, वो जन-सामान्‍य के बीच लोकप्रिय हुईं। कलाकार सभी जगह गाने-बजाने जाने लगे। दोनों बातें ठीक हैं। पहले कलाओं को राजाओं का आश्रय मिला हुआ था, बाद में खुला आसमान मिला। हालांकि ये कलाओं के संरक्षण के लिए जरूरी भी था। जनसामान्‍य में कलाओं ने अपनी पहचान बनाई। पंडित विष्‍णु दिगंबर पलुस्‍कर ने 1901 में गांधर्व महाविद्याल की स्‍थापना की जो संगीत के संरक्षण के लिए एक बेहद जरूरी कदम और योगदान था। उनके शिष्‍य पूरे देश में संगीत का प्रचार-प्रसार करते थे।

सवाल : कलाओं के लिए क्‍या तत्‍व जरूरी है?
जवाब : मैं सोचती हूं कि संगीत या दूसरी परफॉर्मिंग आर्ट विचारशील क्रिया को मांगती है, इस बारे में हर कलाकार को विचार करना चाहिए, नहीं तो कलाएं प्रवाहहीन हो जाएगीं। कला में ताजगी और प्रवाह के लिए उस पर विचार और विस्‍तार जरूरी है, लेकिन यह कला के हाथ पैर तोड़कर नहीं, बल्‍कि संयुक्‍तिक रूप से और सौंदर्यपूर्ण रूप से किया जाना चाहिए। कलाओं में नवाचार की गुंजाईश होती है। इस दिशा में कुमार जी ने कला को लेकर संवाद किया, तब कला के बारे में बात होने लगी। ये अच्‍छा बदलाव था।

सवाल : वीडी पलुस्‍कर जी, पंडित ओमकार नाथ ठाकुर, कुमारजी ने बहुत योगदान दिया, बाद में कौनसे कलाकार या साधन रहें, जिनसे कला या खासतौर से संगीत का फैलाव हुआ?
जवाब : कलाओं के प्रसार के लिए आकाशवाणी के माध्‍यम से बहुत बड़ा काम हुआ है। हमारी सुबह रेडियो की आवाज से होती थी, सुबह भजन और कई राग सुनने को मिलते थे। स्‍कूल जाते हुए मन खुद गुनगुनाता था। शाम को रियाज करते थे। संगीत एक आदत हो गई थी। आज सीडी है, कार में भी संगीत है, लेकिन मैं आकाशवाणी के दिनों को मिस करती हूं,क्‍योंकि रेडियो ने कस्‍बों और गांवों में आकाशवाणी के माध्‍यम से संगीत को जिंदा रखा!

सवाल : अब इस नए दौर में संगीत और अत्‍याधुनिक तकनीक को कैसे देखती हैं?
जवाब : ये तकनीकी विस्‍तार का दौर है। इस पूरे दृश्‍य में तकनीक का बड़ा योगदान है, ग्रामोफोन थे, एलपी आए, रिकॉर्ड्स आए, स्‍पूल रिकॉर्ड  कैसेट आए, सीडी फिर पैन ड्राइव में म्‍यूजिक आया। अब हम डिजिटल हैं। कई बार लगता है कि कहीं तकनीक भी हमसे आगे तो नहीं निकल गई और हम पीछे रह गए। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि हम तंत्र के अधीन हो गए कि हमने अपनी खुद की आवाज को कहीं खो दिया है।

सवाल : तो क्‍या तकनीक के दौर में अब हम अपनी इंद्रियों और एक तरह से हूमन सेंस को इस्‍तेमाल करने के गुण को खोते जा रहे हैं?
जवाब : ये जरूर है कि हमारे सुनने की शक्‍ति में कहीं बदलाव आया है। बहुत बारीक और नाजुक चीजें नहीं सुन पाते हैं, हम उन्‍हें मिस कर जाते हैं, चीड़ियाओं का चहचहाना नहीं सुन पाते, हम कितनी दूर की आवाज सुन पाते हैं ये देखना होगा। गायक जब मंद्र स्‍वर लगाता है तो क्‍या हम सुन पाते हैं, हम तार सप्‍तक को सुनने के काबिल बचे हैं या नहीं। क्‍या वो दिल से निकलने वाला महीन और शालीन स्‍वर हम तक पहुंच रहा है, या हम इतना तंत्राधीन हो गए हैं कि इन्‍हें बगैर माइक्राफोन के नहीं सुनन सकते। ये सवाल हमें ही खोजने चाहिए।

सवाल : फिर आपके हिसाब से संगीत के लिए तकनीक अच्‍छी है या बुरी, अच्‍छा है तो क्‍या है?
जवाब : दोनों बातें हैं, तकनीक की वजह से अच्‍छा और बुरा बदलाव आया है। आज एक क्‍लिक पर यूट्यूब पर बड़े और महान कलाकार सुनने को मिल जाते हैं, रसूलनबाई, अंजलीबाई मालपेकर, बैगम अख्‍तर, ओमकार नाथ ठाकुर, डीवी पलुस्‍कर, मलिकार्जुन मंसूर, उस्‍ताद सलामत नजाकत। इनके गाने की शैलियों के बारे में घरानों के बारे में सबकुछ यूट्यूब पर मिल जाता है।

सवाल : गिरिजा देवी से लेकर किशोरी अमोनकर तक मूर्धन्‍य गायिकाएं रहीं हैं उस दौर में, इस दौर में महिला गायकों में आप किसे पसंद करती हैं, सिग्‍निफिकेंट मानती हैं?
जवाब : अभी के दौर में बहुत अच्‍छी गायिकाएं हैं, किशोरी अमोनकर हमारे बीच नहीं रहीं, वसुंधरा ताई, हीराबाई बड़ोदकर ऐसी महान गायिका रहीं हैं कि सभ्‍य महिलाओं के बीच संगीत को लेकर आई हैं। मालिनी राजूरकर अच्‍छी गायिका रहीं हैं। माणिक वर्मा अच्‍छी गायिका रहीं हैं। अभी भी कई सारे नाम हैं जो बहुत अच्‍छा गा रहे हैं।

सवाल : आप शुरुआत में संगीत पसंद नहीं करती थी, वसुंधरा ताई को गाते देख मना करती थी, एक बार तो उन्‍हें गाता देख रोने लगी। अगर आप गायिका नहीं होती तो क्‍या होती?
जवाब : शायद मैं माउंटनियर हो जाती, मुझे पहाड़ों से बहुत लगाव है। शायद बावर्ची बन जाती, मुझे तरह- तरह की पाक कलाओं में रूचि है। या हो सकता है मैं एडमिनिस्‍ट्रेटीव स्‍तर पर कुछ करने की चेष्‍ठा करती। मैं अक्‍सर लिखती भी हूं।

सवाल : लेखन और गायन में कोई अंतर-संबध है, या दोनों किस तरह से अलग हैं?
जवाब : दोनों अलग विधाएं हैं। कंठ के तौर पर संगीत हमेशा हमारे साथ होता है, लिखने की विधा अलग है, लेखन अलग तरह का अभ्‍यास मांगता है। उसमें कई रिफ्रेंस लगते हैं।

सवाल : कोरोना काल में सबकुछ वर्चुअल हो गया, महफिले और सभाएं नहीं हो सकी। सबकुछ फेसबुक या किसी लाइव के माध्‍यम से हुआ, इसे कैसे देखती हैं आप?
जवाब : कोरोना काल ने कलाकारों की जिंदगी पर बुरा असर डाला है। कलाकार फ्रीलान्‍स होता है, ऐसे में अगर उसका जरिया ही बंद हो जाए तो वो कैसे जिएगा। वाद्य बनाने वाले कारीगर, वाद्य बजाने वाले कलाकार, संगत कलाकार सभी संकट में आ गए। यह बहुत बुरा दौर था। तकनीक में तो हम दुनिया में बहुत पीछे हैं, ऐसे में हमें अपनी कला, संस्‍कृति, गायन, कविता, साहित्‍य, नाटक और चित्रकला जो हमारे प्रबल गुण हैं, उन्‍हें सहेजना चाहिए। लेकिन कलाकारों और कलाओं की चिंता हमारे देश में बहुत कम लोग करते हैं। ये दुखद है।

सवाल : आप शास्‍त्रीय गायिका हैं, कभी सुगम संगीत सुनती हैं, किसे सुनती हैं?
जवाब : मैं फिल्‍मी संगीत सुनती हूं, लता जी, किशोर कुमार, रफी साहब मेरे प्रिय रहे हैं, ठुमरी, दादरा भी सुनती हूं। लेकिन यह भी सच है कि आज का संगीत है उससे मैं अपने आप को नहीं जोड़ पाती, मुझे रस नजर नहीं आता, हालांकि शंकर महादेवन जैसे गायक अच्‍छे गा रहे हैं। अब संगीत में रिदम ज्‍यादा है, मैलोडी कम है।

सवाल : आप लता मंगेशकर को कैसे याद करती हैं?
जवाब : लता जी के बारे में यह कहूंगी ऐसी सरस्‍वती के दर्शन कभी जीवन में हो पाएंगे। पीएल देशपांडे मराठी के लेखक हैं,उन्‍होंने कहा है कि सूर्य है, एक चंद्र है और एक लता हैं।

सवाल : पंडित कुमार गंधर्व को एक गायक या अपने पिता के तौर पर याद करती हैं?
जवाब : रोजमर्रा के जीवन में पिता के रूप में उन्‍हे याद करती हूं, लेकिन रियाज करती हूं और संगीत के बारे में सोचती हूं तो उनका गुरूपद सामने आ जाता है।

सवाल : मुकुल जी और आपके संबंध कैसे हैं, क्‍या उनसे बातचीत होती है?
जवाब : दादा मुझसे बहुत बड़े हैं, और समय-समय पर उनका प्रेम मुझे मिलता रहा है, क्‍योंकि मैं घर में सबसे छोटी हूं। हमारी अक्‍सर बात होती हैं, हालांकि वे लंबे समय से देवास में नहीं रहते हैं, लेकिन ये कहूंगी कि उनके जैसा संगीत अभ्‍यासक, कलाकार और संगीत विद्वान पूरे देश में नहीं है, या बहुत कम है।

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