योग के आठ अंग है, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। यम के पांच उपांग है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इसी तरह नियम के पांच उपांग है- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान। इसी तरह अन्य अंगों के भी उपांग होते हैं। लॉकडाउन के दौरान आपने योग के नियम का पालन कर लिया तो शर्तिया आप हर संकट से जीत जाएंगे।
।।शौचसंतोषतप: स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:।।- योगदर्शन 2/32
भावार्थ : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान ये पांच नियम है।
1. शौच : मूलत: शौच का तात्पर्य है पाक और पवित्र हो जाओ, तो आधा संकट यूं ही कटा समझो। शौच अर्थात शुचिता, शुद्धता, शुद्धि, विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता। पवित्रता दो प्रकार की होती है- बाहरी और भीतरी। बाहरी या शारीरिक शुद्धता भी दो प्रकार की होती है। पहली में शरीर को बाहर से शुद्ध किया जाता है। इसमें मिट्टी, उबटन, त्रिफला, नीम आदि लगाकर निर्मल जल से स्नान करने से त्वचा एवं अंगों की शुद्धि होती है। दूसरी शरीर के अंतरिक अंगों को शुद्ध करने के लिए योग में कई उपाय बताए गए है- जैसे शंख प्रक्षालन, नेती, नौलि, धौती, गजकरणी, गणेश क्रिया, अंग संचालन आदि।
भीतरी या मानसिक शुद्धता प्राप्त करने के लिए दो तरीके हैं। पहला मन के भाव व विचारों को समझते रहने से। जैसे- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को त्यागने से मन की शुद्धि होती है। इससे सत्य आचरण का जन्म होता है।
2. संतोष : वर्तमान समय में संतोष रखना जरूरी है। संतोष से शांति की प्राप्ति होती है। शांति से मन और शरीर निरोगी बनते हैं। संसार में सुखी और निरोगी जीवन जीना है तो कम से कम, लेकिन जरूरी आवश्यकताओं पर ध्यान दें- रोटी, कपड़ा और मकान। मेहनत और लगन द्वारा प्राप्त धन-सम्पत्ति से अधिक की लालसा न करना, न्यूनाधिक की प्राप्ति पर शोक या हर्ष न करना ही संतोष है। संतोषी सदा सुखी। साधना या सिद्धि में वही व्यक्ति प्रगति कर पाता है जिसमें धैर्य और संतोष है। शक्ति या शांति स्वयं के भीतर ही विराजमान है।
असंतोष से मन में बेचैनी और विकार उत्पन्न होता है, जिससे शरीर और मन रोगग्रस्त हो जाता है। असंतोष की भावना लगातार रहने से व्यक्ति किसी गंभीर रोग का शिकार भी हो सकता है। असंतोष से अनिंद्रा रोग उत्पन्न होता है तथा ब्लड प्रेशर की शिकायत भी हो सकती है। असंतोष से ईर्ष्या, द्वैष, क्रोध, द्वंद्व आदि मनोरोग भी उत्पन्न होते हैं।
3. तप : वर्तमान समय एक अवसार है। यह अवसार बार बार नहीं मिलता है। आत्मसंयम का नाम है तप। तप से ही तपस्या शब्द की उत्पत्ति हुई है। तप का अर्थ दैहिक कष्ट कतई नहीं है। सतत अभ्यास करते रहना ही तप है। मन और शरीर की गुलामी से मुक्त होना ही तप है।
तप की शुरुआत आप छोटे-छोटे संकल्प से कर सकते हैं। अपनी बुरी आदतों को छोड़ने का संकल्प ले। आहार संयम का संकल्प लें और फिर धीरे-धीरे सरल से कठिन तप की और बढ़ते जाएं। तप से सिद्धियों का मार्ग खुलता है। तप से मानसिक और शारीरिक शक्ति का विकास होता है। शरीर, मन और मस्तिष्क हमेशा सेहतमंद बने रहते हैं।
4. स्वाध्याय : स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का और ग्रंथों का अध्ययन करना। भगवान बुद्ध कहते हैं कि आज आप जो भी हैं वह आपके पिछले विचारों का परिणाम है। इसका सीधा-सा मतलब यह है कि हम जैसा सोचते हैं वैसे ही भविष्य का निर्माण करते हैं। इसलिए अपने विचारों की समीक्षा करें और सकारात्मक विचार और भावनाओं के बारे में सोचे। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन करना। अच्छे विचारों का अध्ययन करना और इस अध्ययन का अभ्यास करना। जीवन को नई दिशा देने की शुरुआत आप छोटे-छोटे संकल्प से कर सकते हैं। संकल्प लें कि आज से मैं बदल दूँगा वह सब कुछ जिसे बदलने के लिए मैं न जाने कब से सोच रहा हूँ। अच्छा सोचना और महसूस करना स्वाध्याय की पहली शर्त है।
5. ईश्वर प्राणिधान : सिर्फ एक ही ईश्वर है जिसे ब्रह्म या परमेश्वर कहा गया है। इसके अलावा और कोई दूसरा ईश्वर नहीं है। ईश्वर निराकार है यही अद्वैत सत्य है। ईश्वर प्राणिधान का अर्थ है, ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास। यदि आप निराकार ईश्वर के प्रति समर्पित होने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं तो अपने ईष्ट के प्रति समर्पित रहें, इमानदार बने रहें। एकनिष्ठ बनें।
ईश्वर या ईष्ट के प्रति अडिग रहने वाले के मन में दृढ़ता आती है। यह दृढ़ता ही उसकी जीत का कारण है। चाहे सुख हो या घोर दुःख, उसके प्रति अपनी आस्था को डिगाएँ नहीं। इससे आपके भीतर पांचों इंद्रियों में एकजुटता आएगी और लक्ष्य को भेदने की ताकत बढ़ेगी। वे लोग जो अपनी आस्था बदलते रहते हैं, भीतर से कमजोर होते जाते हैं।