योग के दूसरे अंग 'नियम' के उपांगों के अंतर्गत प्रथम 'शौच' का उल्लेख मिलता है। शौच के अभाव के चलते शरीर और मन रोग और शोक से ग्रस्त हो जाता है और व्यक्ति मृत्यु के करीब पहुंच जाता है। शौच का अर्थ शरीर और मन की बाहरी और आंतरिक शुद्धि और पवित्रता से है। शौच का अर्थ मलिनता को बाहर निकालना भी है। मलिनता के बाहर निकलने से व्यक्ति का शरीर निरोगी और मन निर्मल हो जाता है। आओ जानते हैं कि शौच क्या है और यह कैसे किया जाता है।
पवित्रता दो प्रकार की होती है- बाहरी और भीतरी। बाहरी और भीतरी शौच के द्वारा ही जीवन की हर जंग को जीता जा सकता है।
1. बाहरी शुद्धता : बाहरी या शारीरिक शुद्धता भी दो प्रकार की होती है:-
A.पहली में शरीर को बाहर से शुद्ध किया जाता है। इसमें मिट्टी, उबटन, त्रिफला, नीम आदि लगाकर निर्मल जल से स्नान करने से त्वचा एवं अंगों की शुद्धि होती है।
B.दूसरी शरीर के अंतरिक अंगों को शुद्ध करने के लिए योग में कई उपाय बताए गए है- जैसे शंख प्रक्षालन, नेती, नौलि, धौती, त्रिबंध, गजकरणी, गणेश क्रिया, सूर्य नमस्कार, अंग संचालन आदि।
2. भीतरी : भीतरी या मानसिक शुद्धता प्राप्त करने के लिए दो तरीके हैं:-
A. पहला मन के भाव व विचारों को समझते रहने से। जैसे- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, भय को समझना और उनसे दूर रहना। इससे हमारा इम्युनिटी सिस्टम गड़बड़ा जाता है।
ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिमान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। अर्थात व्यक्ति स्वयं के समक्ष सत्य और ईमानदार बना रहता है। इससे जाग्रति का जन्म होता है। विचारों के असर की क्षमता बढ़ती है।
B. भीतरी शुद्धता के लिए दूसरा तरीका है आहार-विहार पर संयम रखते हुए यम, प्राणायाम और ध्यान का पालन करना।
मूलत: शौच का तात्पर्य है पाक और पवित्र हो जाओ, तो आधा संकट यूं ही कटा समझो। योग में पवित्रता का बहुत महत्व है। शरीर के सभी छिद्रों को संध्या वंदन से पूर्व पाक-साफ करना भी शौच है। पंचकर्म क्रिया से भी यह संभव हो जाता है।