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लंबे दौरे से परेशान टीम इंडिया

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अनवर जमाल अशरफ

ऑस्ट्रेलिया में जब पहली बार वर्ल्ड कप हुआ, तो भारतीय टीम वहां चार महीने से डेरा जमाए बैठी थी। अब जब दूसरी बार वहां वर्ल्ड कप हो रहा है, भारत फिर से तीन महीने से जमी है। टीम माहौल को अपना रही है या लंबे दौरे से एक बार फिर परेशान हो चुकी है।
1992 और 2015 में फर्क सिर्फ खिलाड़ियों का है, नतीजों का नहीं। अजहरुद्दीन, कपिल देव और सचिन तेंदुलकर की वर्ल्ड कप टीम 1992 में बुरी तरह पिटी थी। वर्ल्ड कप के दौरान टीम आठ में से पांच मैच हार कर पहले दौर में ही बाहर हो गई थी। उससे पहले ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट मैचों की सीरीज और तीन देशों के त्रिकोणीय वनडे मुकाबलों में भी हार का सामना करना पड़ा था। 
 
इस बार भी टीम को लगातार हार का सामना करना पड़ रहा है। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट सीरीज में वह बुरी तरह हारी और इसी दौरान कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को विवादित तरीके से टेस्ट क्रिकेट से संन्यास भी लेना पड़ा। टेस्ट के बाद वनडे में हारने की बारी आई, जब भारत इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के साथ खेले गए त्रिकोणीय मुकाबले के फाइनल तक भी नहीं पहुंच पाया।
 
क्या वर्ल्ड कप से ठीक पहले क्रिकेट टीम का लंबा दौरा ठीक है। अगर कामयाबी मिलती रहे तो शायद इसे सही ठहराया जा सकता है। लेकिन तेज विकेटों वाले देशों में भारत के रिकॉर्ड को देखते हुए इसका उलटा असर ज्यादा होता है। सबसे ज्यादा खतरा फिटनेस का होता है। तीन महीने तक किसी भी क्रिकेटर को क्रिकेट खेलते हुए फिटनेस बनाए रखना आसान काम नहीं होता।

इस दौरे में भी ओपनर बल्लेबाज रोहित शर्मा से लेकर ओपनर गेंदबाज इशांत शर्मा तक फिटनेस में फंस गए। टीम की रणनीति जिन खिलाड़ियों को लेकर बनी थी, उन्हें आखिरी वक्त में हटाना पड़ रहा है और अब नए खिलाड़ियों के साथ नई रणनीति बनानी पड़ रही है। ऐसे में तीन महीने लंबे दौरे का फायदा क्या हुआ।
 
वर्ल्ड कप से ठीक पहले सभी टीमों को प्रैक्टिस मैच खेलने का मौका दिया गया है। पहले मैच में भारत जिस तरह ऑस्ट्रेलिया के हाथों चित्त हुआ, उससे तो नहीं लगता कि खिलाड़ियों ने तीन महीने में माहौल और मौसम को समझा है। 100 रन से ज्यादा अंतर की हार हमेशा बुरी होती है।

इस हार के बाद भी कप्तान धोनी कह रहे हैं कि कुछ चीजें अच्छी हुई हैं, कुछ बुरी और उन्हें अगले मैच में कुछ और चीजों को आजमाना होगा, जिसके बाद ही वर्ल्ड कप खेलने वाली आखिरी टीम तय हो पाएगी। सवाल यह है कि जब टीम का फैसला ही आखिरी दो मैचों से करना था, तो फिर इतने लंबे कैलेंडर की क्या जरूरत थी। ऊपर से खुद वर्ल्ड कप का कैलेंडर भी बहुत लंबा है, लगभग दो महीने का। यानी इस दौरान भी खिलाड़ियों को न सिर्फ मानसिक रूप से, बल्कि फिटनेस के लिहाज से भी खुद तैयार रखना होगा।
 
क्रिकेट और फुटबॉल में मुकाबला तो नहीं किया जा सकता। फिर भी 2014 के वर्ल्ड कप के प्रोग्राम को देखें, तो जर्मनी की फुटबॉल टीम भी अलग मौसम वाले देश ब्राजील में खेलने गई थी। उसका दौरा सिर्फ 15 दिन पहले शुरू हुआ । टीम ने पक्की तैयारी के साथ इतने दिनों में ही कामयाबी हासिल कर ली और खुद को माहौल के मुताबिक ढाल भी लिया। इस दौरान किसी खिलाड़ी के घायल या चोटिल होने का खतरा भी नहीं रहा।
 
ऑस्ट्रेलिया में लगातार हार के बाद पिछले हफ्ते कप्तान धोनी ने सुझाव दिया था कि राष्ट्रीय टीम के खिलाड़ियों ने क्रिकेट बहुत खेल ली और अब कुछ दिनों के लिए उन्हें क्रिकेट से “स्विच ऑफ“ हो जाना चाहिए। उनकी दलील थी इससे खिलाड़ियों को दोबारा बेहतर ढंग से ध्यान लगाने में मदद मिल सतकी है। लेकिन ठीक वर्ल्ड कप के वक्त भला कोई क्रिकेट से कैसे स्विच ऑफ हो सकता है।

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