महिलाओं को पुरुषों के जुल्म,हिंसा और अन्याय से बचाने के लिए जिस राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया वह अपने मकसद में ज्यादा सफल नहीं हो पा रहा है। यह ठीक है कि आयोग में शिकायत दर्ज कराने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है लेकिन यहां गौर करने वाली बात यह है कि आयोग में शिकायत ले कर पहुंचने वाली महिलाओं में अधिकांश संख्या उनकी है जो न केवल पढ़ी-लिखी हैं बल्कि आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर होने के साथ-साथ अपने अधिकारों को पहचानती भी हैं लेकिन गांवों की अनपढ़, कम पढ़ी लिखी और दबी-कुचली महिलाओं की आवाज इस आयोग में नहीं सुनी जाती।
राष्ट्रीय महिला आयोग यह कहकर उनकी आवाज अनसुनी कर देता है कि उनके लिए राज्यों में आयोग है, पर राज्यों के आयोग किस भरोसे चल रहे हैं और इस मामले में राष्ट्रीय आयोग क्या कदम उठा रहा है, इस सवाल पर आयोग पल्ला झाड़ लेता है। किसी घटना के होने पर महिला आयोग ने तुरंत प्रतिक्रिया तो दी लेकिन वास्तव में उसने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। आरुषि हत्याकांड मामले में तो आयोग की कार्यशैली पर ही सवाल उठ गए।
आयोग में शिकायतों का ढेर लगा है लेकिन निपटाने वाला कोई नहीं है।
आयोग के कई प्रस्ताव कागजों में ही सिमट कर रह गए और उन्हें अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। बात चाहे लिव इन रिलेशनशिप की परिभाषा में परिवर्तन की हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में महिलाओं का अश्लील चित्रण रोकने या फिर विवाह पंजीकरण को अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव हो।
अलबत्ता, बलात्कार पीड़ित महिलाओं के राहत और पुनर्वास के लिए बनने वाले कानून में राष्ट्रीय महिला आयोग की भूमिका को याद किया जाएगा। अप्रवासी भारतीय पतियों के जुल्मों और धोखे की शिकार या परित्यक्त महिलाओं को कानूनी सहारा देने के लिए आयोग की भूमिका सराहनीय रही है। यह प्रकोष्ठ आप्रवासी मामलों के मंत्रालय और विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों और उच्चायोगों की मदद से जरूरी सहायता मुहैया करा रहा है। "ऑनर किलिंग" रोकने के लिए शीघ्र ही एक विधेयक लाने की तैयारी हो रही है। लेक्नि इस सबके बावजूद जो सशक्त भूमिका इसे निभानी चाहिए थी वह नहीं निभा सका है इसीलिए अक्सर यह संदेह के घेरे में दिखाई देता है।