8 मार्च को महिला दिवस के कार्यक्रमों की बाढ़ आनेवाली है। 3 मार्च तक एक उम्मीद थी कि निर्भया के आरोपियों को फांसी हो जाएगी..लेकिन अफसोस! फिर टल गई। तो सारी दरिंदगी, हैवानियत सिद्ध होने के बाद भी अगर हमारे देश में महिलाओं के सम्मान को ताक पर रख दिया है तो कोई आवश्यकता नहीं है एक दिन की औपचारिकता की।
जब तक निर्भया के गुनाहगारों को फांसी नहीं होती, मैं महिला दिवस के किसी भी कार्यक्रम में नहीं जाऊंगी। यह कहना है जानीमानी लेखिका ऋचा दीपक कर्पे का।
वे इन दिनों हर उस फोन को विनम्रता से मना कर रही है जो उन्हें महिला दिवस के कार्यक्रम में आमंत्रित कर रहे हैं।
उनका मानना है कि जब देश में जन्मी एक बेटी को इतनी निर्ममता से बर्बरतापूर्वक मार डाला जाता है और अपराधियों की सजा टलती रहती है ऐसे में शर्म आना चाहिए हमें महिला दिवस का गुणगान करते हुए।
वे यह अभियान आगे बढ़ाना चाहती हैं कि जब तक निर्भया के दोषियों को फांसी नहीं होती तब तक हमें हर तरह के महिला दिवस के आयोजनों में जाने से स्वयं को और अन्य को रोकना चाहिए।
ऋचा सवाल करती है
क्या आपको नहीं लगता कि निर्भया के माता-पिता रोज ज़हर के घूंट पी रहे हैं?
क्या आपको नहीं लगता कि केवल निर्भया नहीं बल्कि देश की हर बेटी असुरक्षित है??
क्या हमारा कोई भावनात्मक नाता नहीं है हर उस लड़की से, जिसके साथ ऐसा हादसा हुआ है?
क्या जरूरी है ऐसे हालात में "महिला दिवस" का दिखावा??
यदि आप मुझसे सहमत हैं तो इस मुहिम में मेरा साथ दीजिए।
उन्होंने वेबदुनिया के लिए निर्भया को लेकर एक कविता भी लिखी है।