करीब एक दशक से संसद की एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात हो रही है, लेकिन इसके पक्ष में आज तक कोई बिल भी नहीं लाया जा सका हैं। वर्तमान में संसद के दोनों सदनों को मिलाकर भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व दस फीसदी भी नहीं है। विश्व के कई देशों ने माना है कि राष्ट्र के विकास के जमीन से जुड़े कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें महिलाएँ बेहतर तरीके से समझती हैं और उनके समाधान के उपाय भी उनके पास हैं। यूनिसेफ के अनुसार राजनीति में सक्रिय महिलाएँ सभी स्तरों पर बच्चों के हितों की विशेष रूप से हिमायती होती हैं। आँकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक से सभी देशों की संसदों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगातार बढ़ रहा है, लेकिन वहीं भारत में इस संबंध में कोई प्रगति नहीं दिख रही है। वोट के आधार पर जातिगत सीटों का निर्धारण तो हुआ हैं, लेकिन कोई राजनीतिक पार्टी अभी तक लोकसभा में दलगत आधार पर महिलाओं के लिए पुख्ता आवाज नहीं उठा सकी है। हालाँकि लगभग सभी राजनीतिक दलों में महिलाओं के वोट पाने के लिए महिला प्रकोष्ठ मौजूद है। |
करीब एक दशक से संसद की एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात हो रही है, लेकिन इसके पक्ष में आज तक कोई बिल भी नहीं लाया जा सका हैं। वर्तमान में संसद के दोनों सदनों को मिलाकर भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व दस फीसदी भी नहीं है। |
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वैसे महिलाएँ अपने दम पर आगे आ रही हैं लेकिन विधायिका (राज्य और केंद्र दोनों) में उनकी पहुँच कम है। दूसरी ओर सरकार ने पंचायत स्तर पर सीटों का बँटवारा किया है, लेकिन यहाँ भी कुछ को छोड़कर महिलाओं के नाम पर पुरुष ही काम करते हैं। राष्ट्र स्तर पर बात करें तो कमोबेश पूरी दुनिया में यही स्थिति है। आज भी महज 17 फीसदी महिलाएँ ही संसद में प्रतिनिधित्व कर रही हैं।
प्राथमिक से लेकर बड़े स्तर तक फैसले लेने के मामले में महिलाओं की योग्यता को सामाजिक नजरिए से कम आँका जाता है। महिलाओं पर काम के अधिक बोझ (घर-परिवार से लेकर समाज-व्यवसाय तक) के साथ-साथ लैंगिक भेदभाव के अनेक दुष्परिणाम राजनीति में उनकी भागीदारी में रोड़े अटकाते रहते हैं।
यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक संसद और विधान मंडलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने के बाद भी राजनीति में स्त्री-पुरुष समानता लक्ष्य कोसों दूर है। दुनिया भर में इस समय विभिन्न देशों की संसदों में महिला सांसदों का अनुपात बढ़ने की वार्षिक दर करीब 0.5 प्रतिशत है। इस दर से राजनीति में समानता का लक्ष्य 2068 तक भी हासिल नहीं हो सकेगा।
भारत में आज भी महिला अधिकारों से जुड़े कई ऐसे मसले हैं, जिन पर सही और असरदार नीतियाँ नहीं बनाई गई हैं और जो कानून बने भी हैं, उनमें से कई के पालन होने और उनके साबित होने में काफी खामियाँ हैं। जैसे बलात्कार के मामलों की जाँच प्रक्रिया और उसकी सजा पर कई बार केवल चर्चा हो सकी है। घरेलू हिंसा, आरक्षण, लैंगिक भेदभाव, अवसर जैसे कई मसले हैं, जिन पर गौर करने की जरूरत है।
पुरुष सांसदों में पौरुष की कमी
देश की आबादी में पचास करोड़ तक की हिस्सेदारी के बाद भी संसद में सिर्फ एक तिहाई सीटों की माँग आज तक रंग नहीं ला पाई है। भारत में पंचायत और ग्राम सभा स्तरों पर तो इसमें कुछ प्रगति आई है, लेकिन राज्यों और केंद्र स्तर पर इस दिशा में कदम बढ़ाने की हिम्मत सांसद नहीं कर पाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण सांसदों, राजनेताओं और पार्टियों की महत्वाकांक्षा है।
वर्तमान में विश्व में कुल संसदीय सीटों में से केवल 17.7 फीसदी सीटों पर महिलाएँ काबिज हैं। दोनों सदनों को मिलाकर जहाँ पुरुष सांसदों की संख्या 36,294 है, वहीं महिला सांसद 7,793 ही है। दूसरी ओर निचले सदन में यह आँकड़ा 30,404 और 6,615 और उच्च सदन में 5,890 और 1,178 का है।
अगर पूरे विश्व में महिला सांसदों के प्रतिनिधित्व के बारे में पड़ताल करें तो पता चलता है कि इस मामले में भारत पिछड़े देशों से भी पिछड़ा है। विश्व के 130 से अधिक देशों की संसद में भारत का स्थान 104वाँ है। गौर करने वाली बात यह है कि नेपाल और बांग्लादेश भी इससे ऊपर हैं। इससे अलग रवांडा और स्वीडन में जहाँ महिलाओं का संसद में प्रतिनिधित्व 48 फीसदी है, वहीं भारत में लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 8.2 फीसदी (545 में 45 महिला सांसद) और राज्यसभा में 10.7 फीसदी (242 में 26 महिला सांसद) हैं।
सन 1999 में अन्तरसंसदीय संघ ने 65 देशों में 187 महिला सांसदों का एक विस्तृत सर्वेक्षण करवाया था, जिसमें पता चला था कि महिलाओं की प्राथमिकता पुरुषों से अलग होती है। इनमें से 90 फीसदी का मानना था कि महिलाओं की कार्यपालिका में भागीदारी होने से व्यापक बदलाव आएगा।
सर्वेक्षण में यह बात आई कि महिलाओं के लिए राजनीति सामाजिक कार्य करने का माध्यम होती है। इसके साथ ही महिलाओं की प्रगति के रास्ते भी खुले क्योंकि वे अपने आपको हर महिला का प्रतिनिधि समझती है। इस मामले में उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होता है।
इच्छाशक्ति की कमी-
वैसे राजनीति में महिलाओं के पीछे होने में कुछ उनकी अरुचि और लोगों में मिथ भी देखने का मिलता है। राजनीति में महिलाओं के कम आने के पीछे सामाजिक और निजी जिम्मेदारी को दोहरा बोझ उनके ऊपर होना भी है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा होता है। इसके अलावा कार्य करने के साथ भारतीय रूढ़ियों को ढोने की भी प्रबल कामना के कारण मुखर होकर माँगे करना मतदाताओं को नहीं लुभाता है, जिससे चुनाव जीतने में उन्हें मुश्किल आती है।
दाँव-पेंच की राजनीति महिलाओं को रास नहीं आती है और वे अक्सर राजनीति छोड़ देती हैं। ऐसी धारणा होती है कि महिलाएँ बड़े निर्णय नहीं ले सकती हैं और बड़े पद ग्रहण करने में उन्हें दिक्कत आती है। लेकिन इंदिरा गाँधी ने भारत की प्रधानमंत्री होते हुए पोखरण में परमाणु परीक्षण किया, जो बड़ा कारनामा था। इसके अलावा विश्व में 13 महिलाएँ रक्षा मंत्रालय के पद भी संभाल चुकी हैं और 9 वित्तमंत्री भी रह चुकी हैं।
बहरहाल उनका मनोबल कहीं कम नहीं है। अवसर की उपलब्धता और मानसिकता के बदलाव के लिए महिलाओं का विधायिका में आधा प्रतिनिधित्व होना जरूरी है और इसके लिए समाज के हर वर्ग के साथ ही सांसदों को कारगर नीति बनाने का पौरुष भी दिखाना होगा।