एक विज्ञापन में अक्सर अधिक उम्र के एक चुस्त-दुरुस्त पुरुष को बताया जाता है, उसे उपमा दी जाती है 'साठ साल का जवान'। क्या ऐसी ही कोई मॉडल स्त्री नहीं हो सकती? जरूर हो सकती है। नहीं हो सकती तो समाज को अपनी दृष्टि बदलना होगी। लिंगभेद से परे जाकर चुस्ती, फुर्ती, ऊर्जा, जीने की आकांक्षा के आधार पर सोचना होगा कि साठ वर्ष के युवा का खिताब किसे दिया जाए?
अँगरेजी की जानी-मानी लेखिका शोभा डे ने इस माने में पहल शुरू कर दी है। हाल ही में शोभा ने अपने साठवें जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक चमकीली पत्रिका के लिए मॉडलिंग सहित साक्षात्कार दिया है। डब्बू रत्नानी द्वारा लिए गए चित्रों में शोभा उत्साह से लबरेज चमकती हुई नजर आ रही हैं। ठीक से कहा जाए तो जी भरकर जीने की आकांक्षी शोभा की यह तीसरी पारी है।
शोभा कहती हैं, 'अपने साठवें जन्मदिन पर सबसे महत्वपूर्ण बात जो मैंने महसूस की है, वह यह है कि महिलाएँ उम्र के पिंजरे में कैद रहती आई हैं और उन्हें इस कैद से आजाद होना चाहिए।' ठीक कहती हैं शोभा।
स्त्री के लिए चालीस हम महज आँकड़ा नहीं मानते, बल्कि उसे झटपट अधेड़ का तमगा देकर उससे ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद करने लगते हैं कि वह खुद को रिटायर मान लें। सजने, सँवरने, खुद की उमंगों को जीने से रिटायर! इस बारे में शोभा का कहना है, 'हमारी सोसायटी 'एजिस्ट' है खास करके औरत के बारे में। उम्रदराज होते हीहम उसे एक ओर पटक देते हैं। इस बात से मुझे बहुत गुस्सा आता है। यह स्त्री की ऊर्जा को कम करके आँकना हुआ।
अब देखिए ना, हिलेरी क्लिंटन और सोनिया गाँधी जैसी महिलाएँ भी तो हैं, जो 60 की उम्र पर आकर शिखर को ही छू रही हैं। मैं भी यह सोचती हूँ कि उम्र के साठवें को एक बढ़िया अवसर में तब्दील करूँ। बजाय समय की रेत पर फेंक दिए जाने के।'
शोभा ने इसी तर्ज पर एक आलेख भी बॉम्बे टाइम्स के लिए लिखा। इस आलेख को पढ़कर कई स्त्रियों की भावभीनी प्रतिक्रियाएँ उन्हें मिलीं। एक स्त्री ने कहा, 'पता नहीं उम्र बढ़ने पर हम अपनी बढ़ती उम्र को लेकर इतने क्षमा प्रार्थी क्यों हो जाते हैं, जैसे हमने कोई गलती कर दी हो!
हम अपने आपको अनुपयोगी और नाचीज मानने लगते हैं। यह गलत है। जैसे ही मुझे यह महसूस हुआ, मैंने अपनी बहू से कहा कि मैं अपने पसंदीदा हुनर की कोई क्लास ज्वॉइन करूँगी। मनचाहे परिधान पहनूँगी। मैं एक ओर क्यों बैठा दी जाऊँ? मेरा अपना जीवन है औरमैं उसे जिऊँगी।'
अपनी पाठिका की तरह शोभा भी ऐसी ही कुछ योजनाएँ बना रही हैं, आज के जमाने का 60 पहले का 40 है, वैसे भी सारा दारोमदार इस बात पर होता है कि महिलाएँ स्वयं के बारे में क्या सोचती हैं। मैं भी अब मनपसंद के परिधान पहनूँगी। यह एक मुक्त करने वाला एहसास है। मनोवैज्ञानिक तौर पर भी मुक्त करने वाला।
मैंने अपने परिवार को भी कह दिया है कि मैं अचानक 'साल्सा डांस' सीखने की योजना बना लूँ तो आश्चर्य में न पड़ जाएँ। हो सकता है मैं फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स करना चाहूँ या ऐसा कोई काम करना चाहूँ, जो बचपन से करना चाहती थी। जो तब नहीं कर पाई वो भी अब करूँगी। इसका मतलब यह नहीं कि मैं स्वार्थी हो गई हूँ। मतलब यह कि मैंने अब यह अधिकार अर्जित कर लिया है कि मैं अपने मनपसंद काम तीसरी पारी में कर सकूँ, हर वक्त स्वीकृति की राह न देखूँ।
अन्य महिलाओं को भी शोभा डे का सुझाव है कि वे अपना ध्येय साफ रखें, उम्र के आँकड़े को तवज्जो न दें तो बाकी सब होता जाएगा।