आखिर बालक की प्रथम गुरु मां ही क्यों ?

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शिवानी, जयपुर
अक्सर ऐसा कहा जाता है कि बालक की प्रथम गुरु उसकी माता होती है, परंतु मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। माता भी एक इंसान है और उसके अपने सुख-दुख हैं। कुछ चीजों से वह विचलित हो सकती है, कभी वह उद्वेलित भी हो सकती है। लेकिन उसको गुरु रूप में हम स्थापित करते हैं तो उससे अपेक्षा करते हैं कि वह इन भावनाओं पर काबू रखें और कभी भी कठोर प्रतिक्रिया ना दें।
 
वह हमेशा सद्गुणों से भरपूर रहे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे। घर में माहौल अच्छा रखे ताकि बच्चों में अच्छे संस्कार पड़े। मगर यह सारी चीजें हम स्त्री से ही क्यों अपेक्षित है, जबकि बच्चों की परवरिश में घर के दूसरे लोगों का भी पूरा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी का पति शराबी है या गुस्से वाला है, घर में माहौल अच्छा नहीं रखता है तो उसका प्रभाव क्या बच्चों पर नहीं पड़ेगा? एक स्त्री प्रभावों से, नहीं बल्कि कुप्रभाव कहना चाहिए, घर के माहौल के प्रभाव से अपने बच्चे को कैसे अछूता रख सकती है? ये जो हम मां को गुरु के रूप में, शिक्षक के रूप में, प्रथम शिक्षक के रूप में स्थापित करते हैं वह मेरी नजर में स्त्री पर अत्याचार है। 
 
अगर कोई बच्चा अच्छा संस्कारी है तो उसमें परिवार का नाम बताया जाता है कि अरे वाह, कितने अच्छे परिवार का बच्चा है। देखो उसके संस्कार कितने अच्छे हैं। और इसके विपरीत अगर कोई बच्चे में कोई बुरी आदतें हैं, कुछ गलत संस्कार है तो मां का नाम लेते हैं कि इसकी मां ने कुछ नहीं सिखाया। अरे सिखाने की सारी जिम्मेदारी अकेले मां की है क्या? परिवार के बाकी सदस्य भी ज़िम्मेदार होते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण है पिता। पिता की भूमिका को बच्चे पालने के लिए क्यों नजरअंदाज किया जाता है जबकि घर के वातावरण के लिए पिता बराबर से जिम्मेदार होता है। अगर पिता शराबी है या गुस्से वाला है, घर में वातावरण अच्छा नहीं रहता है।
 
बच्चों में भय का वातावरण रहता है, तो आप एक मां से अपेक्षा करते हैं कि वह उस वातावरण से बच्चों को दूर रखे? पर सोचिए क्या वो इंसान नहीं है? वो भी पति के भय से भयभीत है। तो ऐसे में आप उससे सहज रहने के अमानवीय व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं? कि वह सारे दुख दर्द चुपचाप सहते हुए बच्चों के सामने हंसती मुस्कुराती रहे और एक अच्छा माहौल बच्चों को दे? मैं इस चीज को अत्याचार जैसा महसूस करती हूं।
 
ये ठीक है कि वह अधिकतर अपनी माता के पास में रहता है इसलिए सबसे ज्यादा कोशिश मां को करनी चाहिए। पर आप सोचिए कि जो मां के जीवन में सब कुछ ठीक है तो उसके लिए सब कुछ आसान है। लेकिन यदि उसके जीवन में केवल कष्ट और पीड़ाएं ही हैं तो कैसे उससे अपेक्षा करते हैं कि सहजता से रहे? 
यह सारी चीजें उसके ऊपर दबाव डालती हैं कि वह बच्चे के सामने सामने आए तो सदा हंसते मुस्कुराते हुए आए। एक आदर्श स्त्री की भूमिका में आए।
 
अगर यह दबाव नहीं हो कि मां प्रथम गुरु है, बच्चा जो कुछ सीखता है वह मां सीखता है, तो घर के अन्य सदस्यों की जिम्मेदारी भी तय होगी और वह भी अपने आप को बच्चे के पालन पालन पोषण के लिए जिम्मेदार मानेंगे। और घर में माहौल सही रखने के लिए अपने व्यवहार और आचार विचार पर नियंत्रण रखने को बाध्य होंगे। सबकी सहभागिता सुनिश्चित हो, तो निश्चित रुप से घर में माहौल अच्छा रखने के लिए सब प्रयास करेंगे और मां अनावश्यक दबाव से मुक्त होकर अन्य सदस्यों की तरह ही सहजता से अपना जीवन जी सकेगी।
सहजता से अपना जीवन बिताने के लिए स्त्री स्वतंत्र क्यों नहीं है? अगर उसे कष्ट है, दुख है, भयभीत है वो तो इसे बच्चों से क्यों छुपाए? इसलिए कि उनके कोमल मन पर दुष्प्रभाव पड़ेगा! बच्चों की प्रथम शिक्षक होने के दबाव में ही वो बच्चों के सामने हंसती मुस्कुराती है, छुप छुप कर रोती है। जबकि सच तो यह है कि बच्चे घर में सभी से कुछ न कुछ सीखते हैं। जिनके भी संपर्क में वह दिन भर आते हैं उन सब से वह कुछ न कुछ सीखते हैं। बच्चे स्पंज की तरह होते हैं अपने आसपास के वातावरण से, माहौल से हर पल कुछ न कुछ सीखते रहते हैं।
 
आपको पता भी नहीं चलता जब तक कि उस स्पंज को निचोड़ा ना जाए। यानि कि जब बच्चे के मन से, जुबान से बात बाहर आएगी तभी आपको पता चलेगा कि उसने क्या सीखा है। ऐसे में वह सारा दिन केवल मां के पास ही नहीं रहता बल्क‍ि अगर संयुक्त परिवार है या बड़ा परिवार है तो हर इंसान से, हर उस इंसान से सीखता है जिसके पास वो पल भर भी रह जाता है। मां के ऊपर यह दबाव है कि वह पहली गुरु है, उससे उसे को बाहर निकालना हमारी जिम्मेदारी है। उसके ऊपर जो एक आदर्श होने का चोला हमने उसको जबरदस्ती पहनाया हुआ है वह बहुत ही अमानवीय व्यवहार है। वो मां होने के साथ साथ एक इंसान भी है। उसे दुख है तो दुखी होने दीजिए, भयभीत है तो कहने दीजिए। उसे इन चीजों को छुपाने के लिए मजबूर मत कीजिए। शिक्षक होने के दबाव के चलते व अपने बच्चों से बहुत कुछ छुपाती है। 
 
एक मात्र जिम्मेदारी स्त्री को सौंपकर पूरा परिवार जिम्मेदारी से मुक्त कैसे हो सकता है? दरअसल केवल मां को ये जिम्मेदारी सौंपकर खुद मुक्त रहने की ये एक खतरनाक सोच है, एक साजिश है जो कि सदियों से हमारी सामाजिक व्यवस्था में अन्य कुरीतियों के साथ ही विद्यमान है और जाहिर सी बात है कि इसके संवहन में औरतें भी सहयोगी हैं, बिना सोचे-समझे।
 
घर में जो भी माहौल है उसके प्रति दूसरे सदस्यों की जिम्मेदारी भी बराबरी से सुनिश्चित की जानी चाहिए । शिक्षक दिवस के अवसर पर यही कहना चाहती हूं, मां को इस महानता के दबाव से बाहर निकालना ही होगा। आज जब वो घर और बाहर, हर मोर्चे पर बराबरी से मेहनत कर रही है तो आवश्यक है कि उसकी इस ‘महान जि‍म्मेदारी’में परिवार के अन्य सदस्यों, खासकर पति की जि‍म्मेदारी भी सुनिश्चित की जाए। तभी परिवार में, विशेष रूप से एकल परिवार में बच्चों को अच्छी शिक्षा और माहौल देने के लिए पिता भी अपने सार्थक प्रयास करने को बाध्य होंगे जो कि अत्यंत आवश्यक है। निश्चित रूप से बचपन ही तय करता है हमारा भविष्य। और पूरे परिवार को उस भविष्य की नींव तैयार करने के लिए अपनी अपनी भूमिका महत्वपूर्ण समझते हुए समझदारी से निभानी चाहिए। 

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