स्त्री सुरक्षा, सम्मान व समानता के लिए बेटों को "मेल ईगो" से बचाएं

Webdunia
डॉ. साधना सुनील विवरेकर
आज समाज में स्त्री सुरक्षा का प्रश्न सबसे अहं है। स्त्री अपने ही साथी, सहकर्मी, सहयोगी या कभी-कभी परिवार के ही किसी संबंधी द्वारा प्रताड़ित, अपमानित या बलात्कार की शिकार बनती है। समाज में पुरूष उसे व्यक्ति तो क्या इंसान तक समझना नहीं चाहता। तीन वर्ष की मासूम बच्ची से लेकर अस्सी-नब्बे की वृद्धा के साथ भी बलात्कार का घिनौना खेल खेला जाता है तो इंसानियत शर्मसार होने से नहीं बच सकती। यह कृत्य पुरूष की पाशविक क्रूर व घिनौनी मानसिकता का ही परिचायक है। साथ ही घर-घर में होने वाली घरेलू हिंसा, चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक, अपराध की ही श्रेणी में आती है।
 
यह सब पुरूषों के "मेल ईगो" का परिणाम है जो समाज में सदियों से पुरूष को श्रेष्ठ व नारी को हीन समझे जाने की सोच के कारण उत्पन्न होता है। स्त्री सदा से परिवार, पति व पुत्रों के लिए समर्पित भाव से जीती आयी है व उसी की बरसों की साधना, त्याग व समर्पण से ही सुखद गृहस्थी बनती है। खुशहाल परिवार ही स्वस्थ समाज की नींव होती है।
 
स्त्री भी इंसान व व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बना जीना चाहती है। सम्मान व साझेदारी के साथ चाहती है ऐसा सुखद वातावरण, जहां उसकी सुरक्षा पूर्ण रूप से सुरक्षित हो। वह चाहती है ऐसा वातावरण, जहां उन्हें अपनी पहचान बनाने, व्यक्तित्व को निखारने, प्रगति के शिखर पर पहुंचने की पूर्ण स्वतंत्रता हो और इन सबको प्राप्त करने के लिए उसका कोमल शरीर, उसकी भावनाएं व विशेषकर उसकी अस्मिता दांव पर न लगे। उसे गुलाम कमजोर, असहाय व भोग्या मानने की कुछ गंदी मानसिकता वाले पुरूषों की सामंतवादी सोच, स्वयं को पुरूष होने से "मेल ईगो" के कारण श्रेष्ठ समझने की मानसिकता को बदलने की अत्यंत आवश्यकता है। यह बदलाव संस्कारों से, सोच से ही संभव है। ये संस्कार बेटों में विकसित करने का दायित्व मां व बहन बेटी के रूप में स्त्री का ही है। बेटों को संस्कारित करने से ही समाज की विकृतियों, अपराध रूकेंगे।
 
आज बेटियों को सहनशीलता व समझौता करने की शिक्षा देने से ज्यादा आवश्यक है कि वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो, अन्याय के प्रति आवाज उठाने का हौंसला उनमें हो, अपराधों को अनदेखा न करते हुए उनके विरूद्ध आवाज उठा न्याय मांगने का व आत्म सम्मान की खातिर सब कुछ त्यागने की हिम्मत हो, छोटे-छोटे प्रलोभनों व सफलता के लिए शार्टकट न अपनाते हुए अपनी अस्मिता व आत्म रक्षा व सम्मान को सर्वोपरि समझ अपनी निजता न खोते हुए वे अपनी पहचान बनाए। इसके लिए आवश्यक है जहां बेटियों को दृढ़ता का पाठ पढ़ाया जाए, वहीं बचपन से बेटों को बहन, पत्नी, भाभी, सखी हो या सहकर्मी सभी से समानता मैत्री व सम्मान के भाव से व्यवहार करने का। अतः मां को चाहिए कि वह -
 
1. बेटों में "मेल ईगो" न पनपने दे।
2. पुत्र मोह से बचे।
3. स्त्री भ्रूण हत्या का पुरजोर विरोध करें।
4. परवरिश करते समय श्रेष्ठता की भावना पुत्रों में न बढ़ने दे।
5. स्त्री जाति का सम्मान करने के संस्कार दें।
6. स्त्री शिक्षा को महत्व दे व समझाए।
7. हर रूप में स्त्री से मित्रवत व्यवहार करना सिखाए।
8. हर स्त्री की व्यस्तता व करियर की जिम्मेदारी को समान महत्व देना आवश्यक बताए।
9. गृह कार्यों में योगदान देना सिखाए व घर के काम छोटे नहीं होते यह मानसिकता विकसित करे।
10. हर निर्णय लेते समय बहन हो या पत्नी बराबरी की भागीदारी सुनिश्चित करवाए।

11. हर रिश्ते को गरिमा शालीनता व सभ्यता से बनाने की सीख दे।
12. प्रेम स्नेह व अपनत्व भाव से घर की जिम्मेदारियों को उठाना सिखाए। एहसान भाव न प्रदर्शित होने दे।
13. ससुराल पक्ष के रिश्तों की भी एहमियत समझाए व वहां केवल आदर आतिथ्य की अपेक्षा रखने की बजाए कर्तव्यपूर्ति के भाव विकसित करें।
14. किसी भी स्थिति में स्त्री को शब्दों या क्रियाकलापों से आहत या अपमानित न करें न ही उस पर छींटाकशी वस्त्रों या चरित्र को लेकर करने दे।
15. स्त्री को मात्र शरीर समझ उसका मजाक बनाने की प्रवृत्ति पर रोक लगाए।
 
स्त्रियों का परम कर्तव्य है कि अपने भाई, पुत्र, पति या पिता द्वारा किसी स्त्री के प्रति अनुचित व्यवहार या वाणी प्रयोग प्रतीत होते ही विरोध करे। तमाम संस्कारों के बाद भी यदि किसी निकट संबंधी द्वारा पाशविक वृत्ति का अपराध किए जाने की भनक भी मिले तो उसे सजा दिलवाने में मददगार बने।
 
"मेल ईगो" जैसी पुरूषों की घृणास्पद पाशविक वृत्ति से ही समाज में स्त्री असुरक्षा की भावना से ग्रसित हो हर कदम पर डरती है। इससे ही अपराध जन्म लेते हैं व परिवार व समाज की जो क्षति होती है वह अपूरणीय है। अतः बेटियों को अन्याय न सहने की, दृढ़ रहने की शिक्षा देना व बेटों को स्त्री सम्मान व समानता के संस्कार देने से ही समाज की मर्यादा कायम रह सकती है। बेटों को सुधारें तो बेटियां स्वयं ही सुरक्षित होंगी। बेटों को संस्कार देंगे तो सोच विकसित होगी वहीं समाज में बदलाव लाएगी। यह बीड़ा उठाना हर मां का कर्तव्य है।

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