बालिका दिवस विशेष : लड़की हूं (कैसे?) लड़ सकती हूं...

डॉ. छाया मंगल मिश्र
पैदा होने के पहले से ही षडयंत्र का शिकार होने लगती हूं और तुम कहते हो ‘लड़की हूं लड़  सकती हूं’। ‘गर्ल्स चाइल्ड डे/ बालिका दिवस’ मनाते हो, नौ दिनों तक ‘कन्यापूजन’ करते हो पर चाहते हो कन्या रत्न अपने घर पैदा न हो दूसरों के घर हो। हर देश में लगभग यही हाल है।दोयम दर्जे में जीते ये प्राणी भाग्यशाली हो उठते हैं जब कोई इंसान इन्हें इंसान समझ कर जीवन का मार्ग खुला रखता है।वरना इनका ‘लड़की बन पैदा होना गुनाह होता है’।
 
गर्भ के अंदर ही या पैदा होते ही न मार दिए जाने का एहसान इन्हें जीवन पर्यंत चुकाना होता है। कैसे भी। किसी भी तरह. बचपन से दुर्भावनापूर्ण व्यवहार को झेलती तिरस्कृत जिंदगी जीती ये बालिकाएं अपनेपन को तरसती हैं।वो तो प्राणवायु प्रकृति का उपहार है वरना सांसें भी भीख में मांगनी पड़ती। पैदा होते ही ‘पराया धन है’की भावना का शिकार हो जाती है पर पूजी लक्ष्मी के रूप में जाती है।
 
चिड़िया है एक दिन उड़ जाएगी, अंगना सूना कर जाएगी बोलते बोलते उसका बचपन जहर कर दिया जाएगा। खाने-पीने से लेकर ओढ़ने-पहरने और जाने-आने से लेकर पढ़ने-लिखने तक की मर्यादा दूसरे तय करते आए। उसकी एक न चलने देते फिर कहते हैं लड़की हूं लड़ सकती हूं का नारा बुलंद करो।
आज तक बराबरी का समझा नहीं, माना नहीं। खौफजदा रहते उसकी पैदाइश से लेकर उसकी दबंगाई, ताकत, तर्क शक्ति से. अपनी हक और अधिकार से वंचित ये अपने लिए बने कानूनों का कहर नहीं बरपा सकीं। जलील होती रहतीं हैं अपने लड़की होने के श्राप से। देखती रह जातीं हैं बेबस और लाचार अपनी धज्जियां उड़ते क्योंकि वो लड़की हैं खुद ही लड़ सकतीं हैं।इन्हें आसानी से मौत जो नहीं आती।
 
मां की कोख में यदि किसी घात के बाद भी गर्भ न गिरा हो तो फिर तो पक्का लड़की ही है। लड़कियां ढीठ होतीं हैं। ऐसा पुराने लोगों को कहते सुना। उन्होंने भी अनुभवों से जाना होगा। तभी तो फेंक दी जातीं हैं कूड़े के ढेर में, जानवर नोचते, खाते, बच जाती हैं यदि, तो परोस दी जाती हैं। चरित्रहीन ठहरा दो, डाकन बना दो, शारीरिक-मानसिक शोषण करो, बंधुआ मजदूर बना लो, इनके अधिकार खालो। हड़प लो इनका सारा सुख चैन, जीने के जरिए। जी लेंगी ये क्योंकि ये लड़ सकतीं हैं, लड़की जो हैं।
 
इन्हें संस्कारों के पाठ पढ़ाए जाते हैं, सीमाएं तय की जातीं हैं। और ये हैं कि इन सभी को तोड़ने पर आमादा हो उठीं हैं. मेडिकल स्टोर पर आत्मविश्वास से खड़ी होकर बिंदास अपने पसंदीदा फ्लेवर के गर्भनिरोधक मांगने और बिना झेंपे शर्माए सेनेटरी नेपकिन मांगने वाली ये आधुनिकाएं ‘कुलक्षणी’ हो जातीं हैं। 
इनकी शादी की उम्र सरकार अपने गुणा-भाग के लिए तय करे, इनकी मर्जी से ये अपनी कोख में बच्चा रखे न रखे का कोई अधिकार नहीं पातीं। और यदि ऐसा किया तो बदचलनी का तमगा माथे पर लगा घूमती है।क्योंकि वो बोझ है, लड़की है, लड़ कैसे सकती है? 
 
किसी भी प्रकार के कानून में उसकी इच्छा, उसकी मर्जी उसकी भागीदारी नहीं। सब दूसरों के द्वारा निर्धारित हैं। जिस देश में बालिकाएं सुरक्षित नहीं वो कभी तरक्की नहीं कर सकता। भले ही समय बदल रहा है, थोड़ी बहुत सोच भी बदली है. हक और अधिकारों की बातें भी हुईं हैं पर अंधेरा अभी भी है। कुछ एक उदाहरणों से दुनिया नहीं बदलेगी। दूसरों की दी जीवन की भीख नहीं, अपने जीवन के स्वयं निर्णय की आवश्यकता है. ‘लड़की हो’ का भय नहीं, ‘इंसान हैं’ का भाव चाहिए. अपनी प्रकृति को स्वीकारते हुए अपने मार्ग खुद निर्धारित करने का साहस चाहिए।
ऐसी परवरिश की आवश्यकता है जो सिखाए कि धन बल, शक्ति बल, विद्या बल तुम ही हो, तुम्हें भी भौतिक रूप से इसका उपयोग करना पड़ेगा। ये तीनों तुम्हारे लिए भी बहुत जरुरी है। केवल तुम पूजने का साधन मात्र नहीं हो बल्कि “साधक” हो. लाख भाषणबाजी करें, दिन मनाएं, हल्ला मचाएं पर सत्य से नजरें न चुराएं. अभी भी ‘आजादी राहों में है, पता नहीं किसकी बाहों में है...’।
 
 लड़की हूं पर कैसे लड़ सकती हूं रूढ़िवादिता के राक्षस से, दहेज के दल दल से, दुर्भावना की सुरसा से, अपनों की प्रताड़ना से, वासना के प्रेत से, हवस की कालिमा से, दरिंदगी के पंजों से, मजबूरियों के जाल से, देह के बाजार से, आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक दलाल से, कोख के जंजाल से के आलावा महानता के उपदेशों के भरमभरे इस कंकाल से।
 
सीखना और सिखाना शेष है अभी कि लड़की हूं कैसे लड़ सकती हूं अपने लिए...क्यों लडूं अपने लिए... कब तक लडूं अपने लिए। कभी तो ख़त्म हो ये कष्ट, ये संघर्ष, ये लड़ाई. और जिंदगी जीने को मिले इंसानों की तरह...कम से कम इंसानों की तरह तो... 

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