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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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चेतन भगत के ख्याल पर हिन्दी प्रेमियों के विचार

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लेखक चेतन भगत का मानना है कि हिन्दी को आगे बढ़ाना है तो देवनागरी के स्थान पर रोमन को अपना लिया जाना चाहिए।  क्या यह भाषा की हत्या की साजिश नहीं है? हिन्दी भाषा में अंगरेजी शब्दों का समावेश तो मान्य हो चुका है मगर लिपि को ही नकार देना क्या भाषा को समूल नष्ट करने की चेष्टा नहीं है?


 
समय की मांग है कि इस विषय पर खुले दिमाग से उचित समय पर आवाज उठाई जाए। हो सकता है आप चेतन के विचारों के समर्थन में खड़े हो या चेतन के विचारों के खिलाफ आपका अभिमत हो। आवश्यकता इस बात की है कि अभिव्यक्ति सही समय पर मुखर हो.... क्या आपको भी लगता है कि हिन्दी अब रोमन में लिखना आंरभ कर देना चाहिए। हमने बात की हिन्दी प्रेमियों से और लगातार हम तक पहुंच रहे हैं उनके विचार। प्रस्तुत है पहला भाग- 
 
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सुधा अरोड़ा / सुप्रसिद्ध लेखिका : मेरा मानना है कि चेतन भगत का कहना इतना मायने नहीं रखता कि उस पर बात की जाए। वैसे हममें से कोई भी यह नहीं कहेगा कि देवनागरी लिपि को भी होम कर दिया जाए। भाषा को अखबारों ने मनमाने तरीके से आहत कर ही दिया है।
 
लिपि नहीं होगी तो भाषा आखिर कितने दिन ज़िंदा रहेगी? नई पीढ़ी की दिलचस्पी वैसे भी कम हो गई है। इसके लिए स्कूल ज़िम्मेदार हैं जो हिन्दी पढ़ाने की शुरुआत दूसरी कक्षा से करते हैं। पूरे विश्व में अंग्रेजी को इतनी प्राथमिकता नहीं दी जाती, जितनी भारत में दी गई है। 
 
आज वैश्विक स्तर पर यह सिद्ध हो चुका है कि हिन्दी भाषा अपनी लिपि और ध्वन्यात्मकता (उच्चारण) के लिहाज से सबसे शुद्ध और विज्ञान सम्मत भाषा है। हमारे यहाँ एक अक्षर से एक ही ध्वनि निकलती है और एक बिंदु (अनुस्वार) का भी अपना महत्व है। दूसरी भाषाओं में यह वैज्ञानिकता नहीं पाई जाती। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्राह्य भाषा अंग्रेज़ी को ही देखें, वहां एक ही ध्वनि के लिए कितनी तरह के अक्षर उपयोग में लाए जाते हैं जैसे ई की ध्वनि के लिए ee(see) i (sin) ea (tea) ey (key) eo (people) इतने अक्षर हैं कि एक बच्चे के लिए उन्हें याद रखना मुश्किल हैं, इसी तरह क के उच्चारण के लिए तो कभी c (cat) तो कभी k (king)। ch का उच्चारण किसी शब्द में क होता है तो किसी में च। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। आश्चर्य की बात है कि ऐसी अनियमित और अव्यवस्थित, मुश्किल अंग्रेजी हमारे बच्चे चार साल की उम्र में सीख जाते हैं बल्कि अब तो विदेशों में भी हिंदुस्तानी बच्चों ने स्पेलिंग्स में विश्व स्तर पर रिकॉर्ड कायम किए हैं, जब कि इंग्लैंड में स्कूली शिक्षिकाएं  भी अंग्रेज़ी की सही स्पेलिंग्स लिख नहीं पाती।
 
हमारे यही अंग्रेज़ी भाषा के धुरंधर बच्चे कॉलेज में पहुंचकर भी हिन्दी में मात्राओं और हिज्जों की ग़लतियां करते हैं और उन्हें सही हिन्दी नहीं आती जबकि हिन्दी सीखना दूसरी अन्य भाषाओं के मुकाबले कहीं ज़्यादा आसान है। इसमें दोष किसका है? क्या इन कारणों की पड़ताल नहीं की जानी चाहिए? (देवनागरी लिपि की ध्वन्यात्मक वैज्ञानिकता देखने के बाद अब नए मॉन्टेसरी स्कूलों में बच्चों को ए बी सी डी ई एफ जी एच की जगह अ ब क द ए फ ग ह पढ़ाया जाता है।) भारत में अपनी भाषा की दुर्दशा के लिए सबसे पहले तो हमारा भाषाई दृष्टिकोण ज़िम्मेदार है जिसके तहत हमने अंग्रेज़ी को एक संभ्रांत वर्ग की भाषा बना रखा है। हम अंग्रेज़ी के प्रति दुर्भावना न रखें, पर अपनी राष्ट्रभाषा को उसका उचित सम्मान तो दें जिसकी वह हकदार हैं। 

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स्वरांगी साने / युवा लेखिका :  यदि रोमन में ही लिखना है तो सीधे अंग्रेजी में ही लिखें किसने रोका है?

किसी भाषा की आत्मा उसकी लिपि होती है, लिपि को नष्ट करना भाषा को नष्ट करना है मेरा रोमन में हिन्दी लिखने के प्रति कड़ा विरोध है। 
 
 
 
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अलकनंदा साने/ वरिष्ठ लेखिका  : मैं चेतन भगत से बिलकुल भी सहमत नहीं हूं। देवनागरी एक वैज्ञानिक लिपि है और हमारी हिन्दी की (इसमें मराठी को भी रखा जा सकता है) विशेषता है कि हम जैसा बोलते हैं वैसा ही लिखते हैं। इससे भाषा का इस्तेमाल आसान हो जाता है। हिन्दी को रोमन में लिखने से शुद्धता और भावाभिव्यक्ति में खलल पैदा हो सकता है। रोमन में यदि ''मान'' लिखना हो या ''माँ'' दोनों की वर्तनी एक ही होती है- maan, इस तरह के दूसरे उदाहरण भी मिल जाएंगे। ऐसे में हमारी भाषा को किस तरह बचाकर रखा जा सकता है? 


हमारी भाषा हिन्दी को रोमन में लिखने के पीछे उनका एक तर्क यह भी है कि नए उपकरणों से जो हिन्दी लिखी जाती है, वह ransliteration है, जबकि यह पूर्ण सत्य नहीं है। कम्प्यूटर पर अलग-अलग हिन्दी फॉण्ट उपलब्ध हैं। ज्यादातर अखबारों ने अपने फॉण्ट विकसित कर लिए हैं, वहीँ मोबाईल और टैब पर हिन्दी के न सिर्फ 52 अक्षर बल्कि हर अक्षर की पूरी बाराखड़ी उपलब्ध है। चेतन भगत को यह जानकारी नहीं होगी यह तो संभव नहीं है, लेकिन अपने कथ्य के समर्थन में और युवा पीढ़ी को खुश करने के लिए, अधूरी जानकारी देकर जन सामान्य को बरगलाने का घोर निंदनीय कृत्य उन्होंने किया है। चेतन भगत के इस आलेख का पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए।

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सुनिल मिश्र/ फिल्म समीक्षक :  मुझे बिल्कुल भी नहीं लगता कि हिन्दी को अब रोमन में लिखना आरम्भ कर देना चाहिए। चेतन भगत आज के समय में रचनात्मकता का एक ऐसा उत्पाद बन गए हैं जिन्हें अपनी सीमाओं में ही यह आभास अतिरेकपरक लग रहा है कि वे शाब्दिक स्पर्श से सम्मोहन का सोना बना रहे हैं। ऐसा है नहीं। यह कुछ समय के आभासित हैं, छोटे छोटे भ्रम हैं समय के साथ दूर होते चले जाएंगे। चेतन भगत एक धारणा, हो सकता है, उनकी अपनी कामना भी हो, विचार के माध्यम से पाठक तक भेज रहे हैं। दरअसल हमारे यहां तवज्जो करना ही बात के पक्ष में एक तरह से खड़ा हो जाना होता है क्योंकि अचानक सुर्खियां और चर्चाएं शुरू होती हैं। बहुतेरे मसलों में हम प्राय: उपेक्षा की नीति अपनाते हैं और महत्व न देने का निर्णय लेते हैं। ऐसी बातें, ऐसी चीजें क्षणिक उत्तेजना के बाद आप ही मूर्छित और मृत हो जाती हैं। हमारे पास दरअसल बहुत स्वतंत्रता है, हमारे पास अपना एक वैचारिक लोकतंत्र है, वह हमारी बड़ी शक्ति है। चेतन गुणी या ज्ञानी नहीं हैं, वे एक विचार दे रहे हैं, वे प्रस्तावक भी नहीं हो सकते। दरअसल हमें ऐसी बातों के मूल में छिपे भाषा के साथ होने वाले गहरे छल का आभास बराबर होना चाहिए। सचेत रहेंगे तो फिक्र भी करेंगे, बेफिक्र हो जाएंगे तो जरूर आगे सुप्त और निरीह अवस्था को प्राप्त करेंगे।


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डॉ. किसलय पंचोली/ कथाकार :  लेखक चेतन भगत अच्छा लिख रहे हैं। उनकी हिन्दी पाठक वर्ग में अच्छी पैठ है।  लेकिन उन्हें यह याद रखना चाहिए कि इस पहचान में देवनागरी लीपि का महती योगदान है। ऐसे में उनकी यह बिन मांगी/प्रायोजित? सलाह कि "हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि में लिखा जाए तो बेहतर" मानने  लायक नहीं है। ऐसी कोई आसमानी मजबूरी नहीं आन पड़ी है। धीरे-धीरे ही सही हिन्दी अपनी मुकम्मल जगह दुनिया के परिदृश्य में भी बनाती जा रही है। अलबत्ता होना तो यह चाहिए कि हिन्दी के लिए तकनीकी दृष्टि से और क्या बेहतर किया जा सकता है इस पर विचार और काम हो। किसी भी भाषा से उसकी लिपि छीन लेना उसे और पंगु बनाने जैसा है। वैसे ही हिन्दी, अंग्रेजी शब्दों की जरूरत से ज्यादा आमद से त्रस्त है। तिस पर रोमन लिपि का उपयोग तात्कालिक रूप से एक नजर में तुरंत प्रभाव पैदा करने वाला भले नजर आए दूरगामी रूप से हिन्दी भाषा के लिए आत्मघाती ही सिद्ध होगा।  

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