रेशम के फाहों में लिपटा
मन का कोमल-सा भाव,
या फिर अपनी आँखें मींचता
भोला सा स्वप्न सुकुमार...
हौले से आकर
कुम्हला जाता है मन को
और छोड़ जाता है
मीठा-मीठा सा अहसास...
कभी अंगड़ाई में लिपटता
कभी तनहाई में सिमटता
कभी चाँद देख, छूने को ललचता
खिड़की से झाँकता बार-बार...
कभी बनकर अखंड विश्वास
देता है सर्वस्व निःस्वार्थ
एक नहीं फिर बारंबार
फैलाता है बन प्रकाश
उल्लास भरा अद्भुत अहसास
जिसे शायद कहते हैं प्यार...