ग़ज़ल : सादिक़

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रूप बदलती माया के सौ चेहरे जाते आते
काया लेकर मिट्टी की हम क्या खोते क्या पाते

धीरे-धीरे हस्ती की सब ख़ाक झड़ी जाती थी
कच्चे बरतन, आख़िर कब तक, रूहों को ढो पाते

इक वज़नी परबत के नीचे सुबहा दबी थी अपनी
तितर-बितर सपनों को लेकर रात कहाँ बिसराते

जो कुछ सच था, अपने अन्दर तक पैठ गया है
लहरें साँसों की गुज़रेंगी, दुख सहते ग़म खाते

हम आँधी में उखड़े पौधे और इतिहास हमारा
इतना ही धरती से छुट कर हम किसको अपनाते

2. रूप बदलती माया के सौ चेहरे जाते आते
काया लेकर मिट्टी की हम क्या खोते क्या पाते

धीरे-धीरे हस्ती की सब ख़ाक झड़ी जाती थी
कच्चे बरतन, आख़िर कब तक, रूहों को ढो पाते

इक वज़नी परबत के नीचे सुबहा दबी थी अपनी
तितर-बितर सपनों को लेकर रात कहाँ बिसराते

जो कुछ सच था, अपने अन्दर तक पैठ गया है
लहरें सांसों की गुज़रेंगीं, दुख सहते ग़म खाते

हम आंधी में उखड़े पौधे और इतिहास हमारा
इतना ही धरती से छुट कर हम किसको अपनाते

3. हम जो गुज़रे हज़ार ग़म लेकर
रेह गए लोग चश्मे-ए-नम लेकर

जोक़ दरजोक़ हादिसे अपनी
उम्र में घुस गए अलम लेकर

वो थे हम जो गुज़र गए आसाँ
अपनी मिट्टी की यम-बयम लेकर

वुसअतें चीर कर निकल भागे
ज़द से तारीख़ की अलम लेकर

अपनी तक़दीर भी न लिख पाए
क्या किया हाथ में क़लम लेकर

क़ैद में बेहर-ओ-बर की सादिक़ जी
आ फँसे फिर नया जनम लेकर

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