हिज्र की सब का सहारा भी नहीं अब फलक पर कोई तारा भी नहीं
बस तेरी याद ही काफी है मुझे और कुछ दिल को गवारा भी नहीं
जिसको देखूँ तो मैं देखा ही करूँ ऐसा अब कोई नजारा भी नहीं
डूबने वाला अजब था कि मुझे डूबते वक्त पुकारा भी नहीं
कश्ती ए इश्क वहाँ है मेरी दूर तक कोई किनारा भी नहीं
दो घड़ी उसने मेरे पास आकर बारे गम सर से उतारा भी नहीं
कुछ तो है बात कि उसने साबिर आज जुल्फों को सँवारा भी नहीं। (ये साबिर इंदौरी की उन आखिरी ग़ज़लों में से एक है, जिसे उन्होंने कहीं नहीं पढ़ा, किसी को नहीं सुनाया।)