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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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मैं अक्सर चाँद पर जाता हूँ

हमें फॉलो करें मैं अक्सर चाँद पर जाता हूँ
अज़ीज़ अंसारी के मुनतख़िब अशआर

Aziz AnsariWD
मैं अक्सर चाँद पर जाता हूँ शाइर आदमी हूँ
पलट कर फिर यहीं आता हूँ आख़िर आदमी हूँ

शबनम के सामने जो खड़ी हो गई है धूप
लगता है मोतियों की लड़ी हो गई है धूप

तुम हो क्या ये तुम्हें मालूम नहीं है शायद
तुम बदलते हो तो मौसम भी बदल जाते हैं

हमारे क़त्ल को मीठी ज़ुबान है काफ़ी
अजीब शख़्स है ख़ंजर तलाश करता है

जो जैसा है उसको वैसा बोले मेरी ग़ज़ल
आँख पे पट्टी बाँधके सबको तोले मेरी ग़ज़ल

झूट का लेके सहारा जो उभर जाऊँगा
मौत आने से नहीं शर्म से मर जाऊँगा

ऊँची पुख़ता दीवारें हैं क़ैदी कैसे भागेगा
जेलके अन्दर से रस्ता हो, ये भी तो हो सकता है

रात गए जब लफ़्ज़ों की बरसात हुई
एक मुरस्सा नज़्म हमारी ज़ात हुई

फूल जो दिल की रेहगुज़ार में है
जाने किस के वो इंतिज़ार में है

दुनिया भर की रंगीनी
तित्ली के इक पर में है

सर्द हवा में उसके बदन पर आँचल उडते देखा है
पानी वाला बादल जैसे सैर करे कोहसारों की

बू-ए-ख़ुलूस, ख़ू-ए-इताअत, नहीं रही
बच्चों में बात सुन्ने की आदत नहीं रही

यक़ीं ज़रा भी नहीं अपने ज़ोर-ए-बाज़ू पर
हथेलियों में मुक़द्दर तलाश करता है

पेड अपना है तो साया भी हो अपने सेह्न में
इसलिए हमसाए शाख़ें मुख़तसर करने लगे

अब मैं शायद नज़्र-ए-तूफ़ाँ हो गया
लोग साहिल पर नज़र आते नहीं

रहने वाले यहाँ लोग ही लोग हैं
दिल का ख़ाली मकाँ लोग ही लोग हैं

सिर्फ़ ज़र्रा हूँ अगर देखिए मेरी जानिब
सारी दुनिया में मगर रोशनी कर जाऊँगा

उसके करम की बात न पूछो, साथ वो सब के होले है
इक दरवाज़ा बन्द अगर हो, सौ दरवाज़े खोले है

सरों पे माँ की दुआओं का शामियाना है
हमारे पास तो अनमोल ये ख़ज़ाना है

बहुत दिनों से थमा हुआ है बीच समन्दर एक जहाज़
धीरे धीरे डूब रहा हो, ये भी तो हो सकता है

जैसा मौक़ा देखे वैसी होले मेरी ग़ज़ल
वो बातें जो मैं नहीं बोलूँ बोले मेरी ग़ज़ल

तमाम सेह्न-ए-चमन बिजलियों की ज़द में है
मगर हमें तो यहीं आशियाँ बनाना है

हुक्म हुआ है काँच का बरतन सर पर रख कर नांच 'अज़ीज़'
बरतन में तेज़ाब भरा हो, ये भी तो हो सकता है

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