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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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नज़्म : 'सियासत में'

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शायर - मेहबूब राही

Aziz AnsariWD
झूट की होती है बोहतात सियासत में
सच्चाई खाती है मात सियासत में
दिन होता है अक्सर रात सियासत में
गूँगे कर लेते हैं बात सियासत में
और ही होते हैं हालात सियासत में
जायज़ होती है हर बात सियासत में

सभी उसूलों वाले आदर्शों वाले
जोशीले और जज़्बाती नरों वाले
मर्दाना तेवर वाली मूँछों वाले
सच्चाई के बड़े बड़े दावों वाले
बिक जाते हैं रातों रात सियासत में
जायज़ होती है हरबात सियासत में

दिये तेल बिन जगमग जगमग जलते हैं
सूखे पेड़ भी बे मौसम ही फलते हैं
खोटे सिक्के खरे दाम में चलते हैं
लंगड़े लूले भी बल्लियों उछलते हैं
लम्बे हो जाते हैं हात सियासत में
जायज़ होती है हर बात सियासत में

वोटों के गुल जब कुर्सी पर महकेंगे
नोटों के बुलबुल हर जानिब चहकेंगे
बर्फ़ के तोदे अंगारों से दहकेंगे
ख़ाली पैमाने झूमेंगे बहकेंगे
होगी बिन बादल बरसात सियासत में
जायज़ होती है हर बात सियासत में

इंसाँ कहना पड़ता है शैतानों को
दाना कहना पड़ता है नादानों को
ख़्वाहिशात को, ख़्वाबों को, अरमानों को
रोकना पड़ता है उमड़े तूफ़ानों को
काम नहीं आते जज़्बात सियासत में
जायज़ होती है हर बात सियासत में

जितने रहज़न हैं रहबर हो जाते हैं
पस मंज़र सारे मंज़र हो जाते हैं
पैर हैं जितने भी वो सर हो जाते हैं
बोने सारे क़द आवर हो जाते हैं
बढ़ते हैं सब के दरजात सियासत में
जायज़ होती है हर बात सियासत में

जब हालात की सख़्ती से घबरा जाऊँ
ख़ुशहाली की मंज़िल मैं भी पा जाऊँ
सच्चे रस्ते से मैं भी कतरा जाऊँ
जी करता है राही मैं भी आ जाऊँ
मार के सच्चाई को लात सियासत में
जायज़ होती है हर बात सियासत में

पेशकश : अज़ीज़ अंसारी

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