नज़्म : अख्तर शीरानी

Webdunia
बुधवार, 18 जून 2008 (12:49 IST)
सावन की घटाए ँ छा गईं है
बरसात की परियाँ आ गई हैं

दिल देने की रुत आई है
सीनों में उमंग समाई है
अरमानों ने ईद मनाई है
उम्मीदें जवानी पा गई हैं
सावन की-------

कहीं सुंबुल-ओ-गुल की बहारें हैं
कहीं सर्व-ओ-सुमन की क़तारें हैं
कहीं सबज़े ने रंग निकाला है
कहीं कलियाँ छावनी छा गई हैं
सावन की-------

कहीं कोयल शोर मचाती है
कहीं बुलबुल नग़में गाती है
कहीं मोर मल्हार सुनाते हैं
घनी बदलियाँ धूम मचा गई हैं
सावन की घटाएं छा गई हैं

सावन की घटाएं छा गई हैं
बरसात की परियाँ आ गई हैं

गीत (माहिया) --अख्तर शीरान ी
घनगोर घटाओं से
फिर इश्क़ मेरा जागा
कोयल की सदाओं से
घनगोर---------

जी किस को तरस्ता है
क्यों दर्द बरस्ता है
सावन की हव्वों से
घनगोर-----

क्यों याद सताती है
बू किस की ये आती है
बरखा की फ़िज़ाओं से
घनगोर-----

ये इश्क़ नहीं फलता
कुछ काम नहीं चलता
अख्तर की दुआओं से
घनगोर-------

घनगोर घटाओं से, फिर इश्क़ मेरा जागा
कोयल की सदाओं से, घनगोर--------

नज़्म : अख्तर शीरानी
झूम कर आई है मस्ताना घटा बरसात की
जी लुभाती है नसीम-ए-जाँफ़िज़ा बरसात की

बाग़ का ए क- एक शजर है इक उरूस-ए-सब्ज़ पोश
जिसको आकर गुदगुदाती है हवा बरसात की

रेहमत-ए-हक़ अब्र बन कर चार जानिब छा गई
कब से करते थे दुआए ँ मेहलक़ा बरसात की

कोयलें कूकीं, पपीहे पी कहाँ कहने लगे
नग़मों से लबरेज़ है रंगींफ़िज़ा बरसात की

झूलती हैं तितलियों की तरहा कमसिन मेहवशें
या शगूफ़ों को उड़ाती है हवा बरसात की

इक तरफ़ फूलों की आँखों में उमंड आई बहार
इक तरफ़ रंगत दिखाती है हिना बरसात की

सर से ढलके हैं दुपट्टे, बाल बिखरे सर खुले
छेड़ती है नाज़नीनों को हवा बरसात की

शाखसारों से मल्हारों की सदा आने लगी
क्या सुहाने गीत गाती है घटा बरसात की

दिल मचलता है मेरा अख्तर घटा को देखकर
आह! ये काली, ये मतवाली, घटा बरसात की

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