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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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आतंकवाद की परिभाषा तय होनी चाहिए

हमें फॉलो करें आतंकवाद की परिभाषा तय होनी चाहिए
- महेश तिवारी
किसी भी देश की सुरक्षा उसके सैनिक तंत्र से ही होती है, लेकिन अगर उसी सेना की कही बातों को नागवार करके कोई सियासी दल आतंकी को मुआवजा देने की प्रथा शुरू कर दे, तो फिर यह सेना के गौरव के साथ ही खिलवाड़ की राजनीति मानी जा सकती है। सेना के वक्तव्य को सरकार को पहले ध्यान देना चाहिए था, फिर आतंकी के परिवार के लिए कुछ सोचना चाहिए था। 
 
भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश पिछले लगभग 3 दशकों से आतंकी हमलों से तार-तार होता रहा है और यहां के वीर सपूत अपने वतन की हिफाजत और आम अवाम की रक्षा के लिए सरहद पर अपनी जान की बाजी लगाते आ रहे हैं। लेकिन देश में इन जेहादी ताकतों से निपटने का अभी तक कोई ठोस कदम तक नहीं पहुंच पाना देश की आम अवाम और सेना की रक्षा के लिए उचित नहीं कहा जा सकता है।
 
जम्मू-कश्मीर जैसी खूबसूरत वादी अपनी राजनीतिक विरासत जमाने की वजह से इन षड्यंत्रवादी ताकतों से निजात पाने में असफल महसूस करती रही है। जब आतंकवाद की जड़ें पनप रही थीं, तभी से कहा जाता रहा है कि आतंकवाद का कोई मजहबी रंग नहीं होता। फिर जब अगर सेना किसी को आतंकी घोषित कर देती है, तो फिर उसके नाम पर सांत्वना दिखाने का लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या औचित्य रहता है? और इसके क्या राजनीतिक मायने तलाशे जाने चाहिए?
 
जो देश आतंकवाद नामक बला से त्रस्त हो चुका हो और उसी की नाजायज और नापाक करतूतों की वजह से उसके सैकड़ों सैनिक शहादत की बेला में अपना नाम दर्ज करा चुके हो, फिर इस राजनीति को क्या नाम दिया जाए कि एक और देश की शहादत को बेजा नहीं जाने देने की बात होती है तो दूसरी और आतंकी बुरहान वानी के भाई खालिद वानी के नाम पर 4 लाख का चेक दिया जाता है, फिर उसके खिलाफ आवाज उठाने का नामोनिशां नहीं होता।
 
घाटी की सुरक्षा हेतु काम करना देश की चुनी हुई सरकार और वहां की तत्कालीन सरकार का फर्ज बनता है कि वह वहां की अवाम और रहने वाली कौम की हिफाजत करे। लेकिन इसका यह कतई उद्देश्य नहीं कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए सरकार को मुआवजा देना पड़े, वह भी उसे जिसके लिए सेना ने फरमान जारी किया हो कि आतंकी गतिविधियों में संलिप्त होने की वजह से इसे आतंकी माना जाए, फिर वहां की सरकार 4 लाख देकर कौन-सा सियासी मंच बिछाने की तैयारी कर रही है? अगर कोई भी तत्व देश की अस्मिता और आन पर बेजा वार करता है, तो फिर उसे क्या समझा जाना चाहिए?
 
सेना के जिस लक्षित हमले पर अपनी पीठ थपथपाई जा रही है, फिर 2016 में मारे गए आतंकी के परिवार को मुआवजा राशि देने का क्या अर्थ हो सकता है? या इसे सेना के वीर जवानों की बातों की अवहेलना कह दें या फिर देशी राजनीति का विदेशी अंदाज। देश की सेना हमारे लिए सर्वोत्तम है जिसकी वजह से हम अपने आपको चहारदीवारी के अंदर महफूज पाते हैं, फिर सेना के कहे लफ्जों को क्यों अनदेखा किया जा रहा है?
 
हमारे देश की विडंबना देखने लायक है कि कुछ लोग खाते-पीते और रहते हिदुस्तान में हैं, लेकिन अपने कुछ स्वार्थी हितों को साधने के लिए राग अलापते हैं देश की सरहद के उस पार के। यहां भी देश की देशी राजनीति को परखने की जरूरत शुरू से रही है, लेकिन कुछ ऐसी अड़चनें राजनीति की आन पड़ती हैं कि यह मुद्दा भी बंद बस्ते में चला जाता है। खाना यहां का, गुणगान हुर्रियत का।
 
यह दोगली राजनीति या तुष्टिकरण की बेला समाप्त करना देश के भले के लिए नितांत जरूरी है। इन आतंकियों के आकाओं की हिमाकत इसी से परवान चढ़ जाती है, जब देशी चालबाज अपनी चाल चलने लगते हैं। देश को इन मौकापरस्तों से पीछा छुड़ाने की पहल करनी होगी। देश कब तक सैनिकों की शहादत और बेरहम, मासूमियत जिंदगियों को दांव पर लगता देखता रहेगा?
 
आज देश के सामने आतंकवाद की परिभाषा गढ़ने का वक्त नहीं है। अगर सेना ने उसे आतंकी बता दिया तो फिर सियासी रोटियां क्यों सेंकने का काम राज्य सरकार कर रही है? बड़ी बात तो यह है कि आतंकवाद को समूल नष्ट करने का हुंकार भरने वाले भी चुपचाप सत्ता की राजनीति में बने रहने की फेहरिस्त में शांत स्वभाव के दिख रहे हैं। देश के सामने यह चिंता की बात हो सकती है कि राजनीति में बने रहने के लिए पार्टियां कहीं तक भी गिरने को तत्पर दिखती हैं।
 
हमारे देश की एक और सबसे बड़ी कमजोरी कहें या कुछ और कि जब आतंकी पकड़ में आ जाता है तो फिर देश का करोड़ों रुपया उसके ऊपर पानी की तरह क्यों लुटाया जाता है, क्योंकि उससे न कोई सबूत हाथ आना है और न ही उससे उनके आकाओं पर कोई प्रभाव पड़ने वाला है, जब तक कि देश के भीतर ही होने वाले आघात से निपटारा नहीं पाया जाता। 
 
आतंकियों को लेकर एक स्पष्ट विजन और कूटनीति का चुनाव करना होगा। उससे निपटने के लिए सियासी चश्मे को उतार फेंकना होगा। दोहरी राजनीति देश के लिए अधिक पीड़ादायक सिद्ध हो सकती हैं, अत: आतंकवाद से निपटारा केवल संगठनों का सहयोग मिलने से नहीं होने वाला, बल्कि भीतरी चूहों को पहले बाहर निकाल फेंकना होगा।

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