कुछ वस्तुओं के दान महादान की श्रेणी में आते हैं। अग्नि पुराण के अनुसार दस महादान ये हैं-सोना, अश्व (घोड़ा), तिल, हाथी, दासी, रथ, भूमि, घर, वधू और कपिला गाय। वैसे पुराणों में महादान की संख्या सोलह गिनाई गई है। ये इस प्रकार हैं- तुला पुरुष, मनुष्य के वजन के बराबर सोना, चांदी का दान, हिरण्यगर्भ, ब्रह्माण्ड, कल्पवृक्ष, गोसहस्त्र, कामधेनु, हिरण्याश्व रथ या केवल अश्वरथ, हेमहस्तिरथ या केवल हस्तरथ, पंचलांगल, घटादान, विश्वचक्र, कल्प लता, सप्तसागर, रत्नधेनु और महाभूतघट।
वेद, पुराणों के जमाने में किए जाने वाले ये दान अब ज्यादातर प्रचलन में नहीं हैं। पुराणों में अनेक दानों का वर्णन किया गया है। इनमें गोदान सबसे ज्यादा पुण्य देने वाला व महादानों में श्रेष्ठ माना जाता है। वैसे कहा गया है कि सब दानों में पहला दान तुला दान, उसके बाद हिरण्यगर्भ दान है। कल्पवृक्ष का दान भी महत्वपूर्ण है, इसके बाद हजार गायों के दान को पुण्य देने वाला माना गया है।
सोने की गाय, सोने का घोड़ा, सोने की घोड़े सहित गाड़ी, सोने के हाथी की गाड़ी, पांच हल से जोतने योग्य भूमि, बारह संसार चक्र कल्पवृक्ष, सात समुद्रों का दान, रत्न की गाय का दान, महाभूतों का दान और हाथियों का दान भी महत्वपूर्ण है।
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शास्त्रों में कहा गया है कि भरत जैसे राजाओं ने ये दान किए थे। संसार के अपकर्मों और पापों से छुटकारा पाने के लिए धनी व्यक्तियों को ये दान करना चाहिए।
जीवन क्षणभंगुर है, लक्ष्मी चंचला है वह हमेशा किसी के पास नहीं रहती। इसलिए धन होने पर दान करना ही उसकी शोभा है। तीर्थराज प्रयाग में महाराज रघु, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, सम्राट समुद्रगुप्त और शीलादित्य सम्राट हर्षवर्धन ने अनेक दान किए थे। इन दान का विवरण मिलता है।
सम्राट हर्षवर्धन हर पांचवें या छटे साल कुंभ मेले में जाते थे। वह बारी-बारी भगवान सूर्य, शिव और बुध का पूजन करते थे। पूजन के बाद ब्राह्मणों, आचार्यों, दीनों, बौद्ध संघ के तपस्वी भिक्षुओं को दान देते थे। इस दान के क्रम में वह लाए हुए अपने खजाने की सारी चीजें दान कर देते थे। वह अपने राजसी वस्त्र भी दान कर दते थे।। फिर वह अपनी बहन राजश्री से कपड़े मांगकर पहनते थे।