Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

पाप नष्ट करती है राजा विक्रम की नगरी उज्जैन

हमें फॉलो करें पाप नष्ट करती है राजा विक्रम की नगरी उज्जैन
भारत को आदिकाल से ही 'विश्व-गुरु' की उपाधि प्रदान की गई है। भारतवर्ष की पुण्यस्थली संत-महात्माओं की तपोभूमि एवं आध्यात्मिक साधनाओं की कर्मस्थली रही है।  हमारे देश में अनेक तीर्थस्थल हैं, अत: भारत को तीर्थों का केंद्र भी कहा जाता है। इन तीर्थस्थलों में प्राय: सभी का अपना विशिष्ट महत्व है किंतु भगवान महाकाल की पुनीत और पावन नगरी उज्जैन का महत्व तो सबसे निराला है। आध्यात्मिक तीर्थपीठों के वर्णन में उज्जैन में उज्जैन को '‍मणिपुर चक्र' अर्थात शरीर का नाभिप्रदेश कहा गया है। 
'सिंहस्थ' में उज्जैन का महत्व और भी बढ़ जाता है। इस अवसर पर उज्जैन में स्नान का महत्व इसलिए अधिक है, क्योंकि इसमें सिंहस्थ गुरु तथा कुंभ दोनों ही पर्व मिलते हैं। 
 
'सिंहस्थ' पर्व के पुण्यमय और कल्याणकारी प्रसंग के अवसर पर वेबदुनिया द्वारा प्रस्तुत सामग्री अध्यात्म-प्रेमी, जिज्ञासु साधक, धर्मप्रेमी तथा आस्थावान श्रद्धालुओं के लिए पर्याप्त उपयोगी होगी, ऐसी आशा है। सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोणों से उज्जैन का अपना अलग ही महत्व है। भगवान महाकाल की पावन नगरी होने के कारण उज्जैन का द्वादश ज्योतिर्लिंगों में समावेश किया गया है, साथ ही ब्राह्मण ग्रंथों एवं शास्त्रों में भी उज्जैन के व्यापक महत्व का उल्लेख है-
 
अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तेता मोक्षदायिका।।
 
अर्थात उज्जैन भारत की मोक्षदायक सप्तपु‍रियों में से एक है। इन सब में काशी को सबसे अधिक पवित्र माना गया है, किंतु अवन्तिका (उज्जैन) उससे भी दस गुना अधिक पुण्यदायक और मोक्षदायिनी है। 
 
समय के साथ अवन्तिका का नाम भी बदलता रहा है। इस नगरी को कभी कनकश्रृंगा, अवन्तिका, कुशस्थली, उज्जयिनी, पद्मावती, कुमुदवती, अमरावती व विशाल आदि नामों से संबोधित किया जाता था। अब यह शहर उज्जैन नाम से प्रसिद्ध है तथा मप्र के ही नहीं, अपितु भारत के प्रमुख धार्मिक एवं आध्यात्मिक केंद्रों में से एक है।
 
इस नगरी को राजा हरीशचन्द्र की मोक्षभूमि, सप्तर्षियों की निर्वाण भूमि, महर्षि सांदीपनि की तपोभूमि, भगवान कृष्ण की विद्यास्थली, राजा भर्तृहरि की योग भूमि तथा संवत् की शुरुआत करने वाले महान सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। इस नगर को मंगल ग्रह की उत्पत्ति स्थली भी माना गया है। प्राचीनकाल से यह नगरी विद्या, वैभव, ज्योतिष एवं साहित्य सृजन की आधार भूमि भी रही है। यह नगर सदा ही ज्ञान-विज्ञान के लिए विख्यात रहा है। 
webdunia
सम्राट अशोक भी अपने प्रारंभिक जीवनकाल में यहां पर सूबेदार के रूप में पदभार संभाल चुके हैं। यहीं से उनके पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा सिद्धवट की पवित्र टहनी लेकर बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु सिंहल देश (श्रीलंका) गए थे। समय के प्रवाह में अनेक राजाओं ने उज्जैन में अपना शासन स्‍थापित किया और इसकी गरिमा को बढ़ाया। किंतु सर्वाधिक गौरव एवं सम्मान की उपलब्धि इस नगर को महान शासक विक्रमादित्य के शासनकाल में हुई। तत्पश्चात यह क्रम अनवरत रूप से चलता रहा। परमारों एवं राजा भोज के शासनकाल में भी उज्जैन को पर्याप्त गौरव प्राप्त हुआ। मुस्लिम शासकों के आगमन के बाद ऐतिहासिक इमारतों एवं मंदिरों को अवश्य नुकसान पहुंचा, लेकिन शीघ्र ही राजा जयसिंह ने इसकी क्षतिपूर्ति की एवं सुंदर मंदिरों एवं वेधशाला का निर्माण यहां पर करवाया।
 
सन् 1752 में श्रीमंत राणोजीराव सिंधिया ने उज्जैन को अपने अधीन कर इसे स्थायी रूप से अपनी आंचलिक राजधानी घोषित किया तथा श्री रामचन्द्र बाबा शेषणी को उज्जैन का दीवान बनाया। इस सुयोग्य दीवान ने ही सभी जीर्ण मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया। इसी प्रकार 12 वर्ष के अंतराल से लगने वाले सिंहस्थ (कुंभ पर्व) में शासकीय प्रबंधन की शुरुआत भी तभी से हुई।
 
उज्जैन नगर 'सर्वधर्म समभाव' का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यहां पर सभी प्रमुख धर्मों के केंद्र स्थित हैं, विशेषत: हिन्दू, मुस्लिम एवं बोहरा संप्रदायों के प्रमुख तीर्थ भी यहां हैं। 
 
अत: सत्य ही कहा गया है- उज्जैन नगरी में जो आता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है।
 
उज्जैन नगर में 9 माताओं के मंदिर हैं, 84 महादेव हैं, साथ ही यहां नवनारायण, सप्तसागर, अष्टतीर्थ एवं पंचक्रोषी आदि तीर्थ भी स्‍थित हैं, जहां पर समय-समय पर उत्सव होते रहते हैं। पदयात्राएं, कावड़-यात्राएं एवं मेले आदि भी आयोजित होते रहते हैं। इन सबका अपना पृथक-पृथक विशिष्ट महत्व है। कुल मिलाकर यह नगर मप्र की आध्यात्मिक तपोभूमि और धार्मिक राजधानी है। पवित्र पावनी शिप्रा में स्नान करने मात्र से ही लोगों के अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। यहां की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत यहां के वातावरण को और भी अधिक भक्तिपूर्ण एवं गरिमामय बना देती है। मंदिरों में बजने वाली घंटियां, आरती, मंत्रों के उच्चारणों से होने वाले मधुर स्पंदन से समूचा शिप्रा तट गुंजायमान होता है। नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति भी सिंहस्थ जैसे महान पर्व पर यहां आकर पूर्ण आस्तिक और धर्मनिष्ठ हो जाता है। 
 
आधुनिक काल में इस प्राचीन नगरी का पर्याप्त विकास हुआ है। उद्योग, व्यापार, शिक्षा, साहित्य-सृजन के साथ ही साथ संचार संसाधनों में भी यहां पर व्यापक विस्तार हुआ है। अब तीर्थयात्रियों के लिए शासन की ओर से और भी बेहतर सुविधाएं यहां उपलब्ध हैं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi