कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र भगवान परशुराम ने दिया था। परशुराम के पहले यह चक्र उन्होंने वरुणदेव से प्राप्त किया था। वरुणदेव ने अग्निदेव से, अग्निदेव ने भगवान विष्णु से यह चक्र प्राप्त किया था।
श्रीकृष्ण और दाऊ के मुख से सुदर्शन प्राप्त करने वाली घटना सुनकर सत्यकि तो सुन्न ही रह गया था। यादवों के तो हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। श्रीकृष्ण और दाऊ दो दिनों तक भृगु आश्रम में रहने के बाद क्रौंचपुर के यादव राजा सारस के आमंत्रण पर उनके राज्य के लिए निकल पड़े।
राजा सारस ने सभी अतिथियों स्वागत किया। वहां रुकने के बाद श्रीकृष्ण को लगने लगा था कि अब उन्हें मथुरा लौटना चाहिए जहां उनके बंधु बांधव जरासंध के भय से ग्रसित हैं। श्रीकृष्ण ने वहां से विदा होने से पहले राजा सारस ने सहायता करने का वचन लिया।
वहां से वे ताम्रवर्णी नदी पार कर घटप्रभा के तट पर आ गए। वहां एक सैन्य शिविर में गुप्तचर विभाग का एक प्रमुख हट्टे-कट्टे नागरिक को पकड़कर उनके सामने ले आया। नागरिक ने करबद्ध अभिनन्दन कर कहा- मैं करवीर का नागरिक हूं आपसे न्याय मांगने आया हूं। हे श्रीकृष्ण महाराज! पद्मावत राज्य के करवीर नगर का राजा श्रृगाल हिंसक वृत्ति का हो गया है। वह किसी की भी स्त्री, संपत्ति और भूमि को हड़प लेता है। कई नागरिक उसके इस स्वभाव से परेशान होकर राज्य छोड़ने पर मजबूर हैं। क्या मुझे भी राज्य छोड़ना पड़ेगा?
श्रीकृष्ण उठकर उसके समीप गए और उससे कहा, 'हे श्रेष्ठ मैं किसी राज्य का राजा नहीं हूं। न में किसी राजसिंहासन का स्वामी हूं फिर भी मैं तुम्हारी व्यथा समझ सकता हूं।' वह नागरिक श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ा और सुरक्षा की भीख मांगने लगा। तब श्रीकृष्ण ने सेनापति सत्यकि की ओर मुखातिब होकर कहा कि अब हम करवीर से होते हुए मथुरा जाएंगे। तब श्रीकृष्ण और उनकी सेना करवीर की ओर चल पड़ी।
पद्मावत राज्य के माण्डलिक श्रृगाल का पंचगंगा के तट पर बसा करवीर नामक छोटासा राज्य था। करवीर के दुर्ग पर यादवों की सेना ने हमला कर दिया। दुर्ग को तोड़कर सेना अंदर घुस गई। श्रृगाल और यादवों की सेना में घनघोर युद्ध हुआ। श्रीकृष्ण राजप्रासाद तक पहुंच गए। ऊपर श्रृगाल खड़ा था और नीचे श्रीकृष्ण। श्रृगाल ने चीखकर श्रीकृष्ण को कहा, यह मल्लों की नगरी करवीर है, तू यहां से बचकर नहीं जा सकता। मैं ही यहां का सम्राट हूं।
तभी कृष्ण श्रीकृष्ण पे पहली बार सुदर्शन चक्र का आह्वान किया और उनकी तर्जनी अंगुली पर चक्र गरगर करने लगा था। उस प्रलयंकारी चक्र को श्रीकृष्ण प्रक्षेपित कर दिया। पलक झपकने से पहले ही वह श्रृगाल का सिर धड़ से अलग कर पुन: अंगुली पर विराजमान हो गया। दोनों ओर की सेनाएं देखती रह गईं और चारों तरफ सन्नाटा छा गया। सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि सभी आवाक् रह गए। आश्चर्य कि चक्र में रक्त की एक बूंद भी नहीं लगी हुई थी।
करवीर नगरी अब श्रृगाल से मुक्त हो गई थी। श्रीकृष्ण ने श्रृगाल के पुत्र शुक्रदेव को वहां का राजा नियुक्त किया तथा उसको उपदेश देकर वे वहां से चले गए। इस पहले प्रयोग के बाद उन्होंने शिशुपाल का वध करने के लिए चक्र छोड़ा था।