Shri Krishna 4 August Episode 94 : स्यमन्तक मणि के कारण श्रीकृष्ण का हुआ दो युवतियों से विवाह

अनिरुद्ध जोशी
मंगलवार, 4 अगस्त 2020 (22:16 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 4 अगस्त के 94वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 94 ) में श्रीकृष्ण और जामवंतजी दोनों में घमासान मल्ल युद्ध होता है। जामवंत की पुत्री यह सब देख रही होती है कि किस तरह श्रीकृष्ण जामवंतजी को पटक-पटक कर मार रहे होता हैं और अंत में जामवंत की छाती पर पैर रख देते हैं। फिर जामवंत घबराकर कहते हैं- सच बताओ की कौन हो तुम? इस पर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- कह तो दिया देवकी पुत्र श्रीकृष्ण।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
यह सुनकर जामवंतजी कहते हैं कि परंतु मुझसे तो कुछ और ही कहा था। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि किसने, क्या कहा था? इस पर जामवंतजी कहते हैं कि दशरथ पुत्र श्रीराम ने मुझसे त्रेतायुग में कहा था कि मेरी प्रतीक्षा करना। जामवंत कहता है कि प्रभु ने कहा था कि मैं तुम्हें फिर दर्शन दूंगा और मैं आज तक उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
 
जामवंती वहीं थे जिन्होंने त्रेतायुग में भगवान राम की सहायता की थी। श्रीराम ने जल समाधि लेते वक्त जामवंत से कहा था कि ब्रह्मा के पुत्र रक्षराज जामवंत द्वापर के अंत तक धरती पर रहेंगे। पूरे एक युग बाद जामवंत ने अपने प्रभु को श्रीकृष्ण रूप में देखा तो वह अपने प्रभु को पहचान न सका। 
 
जामवंजी कहते हैं कि प्रभु ने कहा था कि मैं तुम्हें फिर दर्शन दूंगा और मैं आज तक उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा हूं। परंतु वो तो बोले थे कि... तभी श्रीकृष्ण कहते हैं- क्या बोले थे जामवंत? यही कि मैं वासुदेव बनकर तुमसे मिलने आऊंगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हैं।...फिर जामवंतजी कहते हैं कि और मैं ये भी जानता हूं‍ कि मुझे मेरे प्रभु के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं परास्त कर सकता था। परंतु तुमने तो मुझे परास्त भी कर दिया है और तुम तो कृष्ण हो ये कैसे संभव है। कैसे संभव है ये राम असत्य कैसे कह सकते हैं? वासुदेव कौन हैं?
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए कहते हैं- मैं वासुदेव हूं...हां वासुदेव कृष्ण मैं ही हूं। यह सुनकर जामवंतजी चौंक जाते हैं और उनकी पुत्री जामवंती भी चौंक जाती हैं। फिर प्रसन्न होकर भूमि पर से जामवंतजी उठकर प्रभु के चरणों में नमन करते हैं। फिर जामवंतजी कहते हैं- प्रभु कितनी प्रतीक्षा कराई आपने, मैं तो आपके लिए ही इस एकांत में साधना कर रहा था। ऐसा कोई दिन न गया कि आपकी याद न की हो प्रभु। अब तो मेरी बस एक ही इच्छा शेष है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- बोलो जामवंत। तब जामवंतजी कहते हैं- यही नाथ कि मेरी आंखों को अपनी उसी मोहिनी सूरत के दर्शन करा दें जिस रूप की सुधा से प्यास बुझाने के लिए त्रेतायुग से मेरी आंखें खुली हुई है और प्रतीक्षा कर रही हैं। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण अपने रामावतार के रूप में जामवंतजी को दर्शन देते हैं। जामवंतजी उन्हें देखकर प्रसन्न हो जाते हैं और प्रणाम करते हैं। फिर श्रीकृष्ण जामवंतजी को उठाते हैं और कहते हैं- उठो जामवंत तुम्हारी साधना पूरी हुई वर मांगो। यह सुनकर जामवंतजी कहते हैं- प्रभु जिन आंखों में आपके रूप का अमृत बसा हो उन आंखों को अब किसी वर की आश्यकता नहीं रही। मुझे तो वर नहीं चाहिए मुझे तो एक ऐसा वर चाहिए जो मेरी पुत्री जामवंती का वरण कर सके। इसलिए आपसे उपयुक्त और कौन वर मिलेगा। मैं अपनी पुत्री जामवंती के लिए आपको मांगता हूं प्रभु, क्या दया करेंगे?
 
जामवंती श्रीकृष्ण की ओर देखती हैं- तब वे कहते हैं तथास्तु, रक्षराज तथास्तु। फिर जामवंतजी अपनी पुत्री जामवंती का हाथ पकड़कर श्रीकृष्ण के हाथ में दे देते हैं और फिर वे मणि देकर कहते हैं- प्रभु इसे भी स्वीकार कीजिये। 
 
फिर उधर, द्वारिका में द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण और महारानी जामवंती के स्वागत में जय-जयकार होती है। जगह-जगह उनका स्वागत होता है। सम्यन्तक मणि के प्राप्त हो जाने के समाचार से सत्राजित बहुत लज्जित हुआ। द्वारिकावासी भी उसे भलाबुरा कहने से नहीं चुके। फिर श्रीकृष्ण बलराम के साथ उसकी सम्यन्तक मणि वापस करने सत्राजित के घर गए तो वह कहने लगा कि मैं बहुत लज्जित हूं द्वारिकाधीश। मैंने आप जैसे धर्म के अवतार पर मिथ्‍यारोप लगाया। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम चिंता न करो सत्राजित। यदि तुम ऐसा न करते तो मुझे जामवंत कैसे प्राप्त होते? यह सुनकर वहां खड़ी सत्यभामा श्रीकृष्ण को देखकर मुस्कुराती हैं।
 
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब तुम इस सम्यन्तक मणि को लो, परंतु अब इसे संभालकर रखना। यह सुनकर सत्राजित कहता है कि अब इस मणि का स्वामी मैं नहीं रह गया हूं।... यह सुनकर बलरामजी के चेहरे पर प्रसन्नता झलक जाती है। आगे सात्राजित कहता है कि  यह हम जैसे लोगों के धारण करने योग्य नहीं है। इसकी शोभा आप जैसे महान शूरवीर के साथ है। आज से इसके स्वामी आप हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बलरामजी की ओर देखते हैं। आगे सात्राजित कहता है कि मेरी इस प्रार्थना को आप स्वीकार कर लेंगे तो मैं अपने आप को कृतार्थ समझूंगा। मेरे हृदय का बोझ उतर जाएगा।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस वस्तु के कारण मुझ पर चोरी का मिथ्‍यारोप लगा था यदि मैं उसे अपने पास रख लूं तो द्वारिकावासी न जाने कौनसा अनुमान लगा लेंगी। इसलिए सहर्ष मैं इसे आपको वापस सौंपने आया हूं। यह सुनकर सत्यभामा की माता कहती हैं- और मैं सहर्ष अपने पूरे परिवार की सहमति के साथ इसे द्वारिकाधीश को भेंट करती हूं।.....यह सुनकर बलरामजी फिर प्रसन्न हो जाते हैं..आगे वह कहती हैं- मेरी बात तो नहीं ठुकराएं द्वारिकाधीश।...
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण मुस्कुाराते हैं..फिर सत्राजित की पत्नी आगे कहती हैं कि और इस मणि के साथ हमने यह संकल्प भी किया है द्वारिकाधीश कि आप मेरे हृदय की मणि मेरी पुत्री सत्यभामा को भी स्वीकार करें। यह सुनकर सत्यभामा को लाज आ जाती है और तब उनकी माता उनका हाथ पकड़कर श्रीकृष्ण के हाथ में रख देती हैं। श्रीकृष्ण सत्यभामा की ओर देखकर मुस्कुराते हैं। तब बलरामजी कहते हैं- हां हां कन्हैया, सत्यभामा सर्वाथा तुम्हारे योग्य है और फिर ये अपने ही कुल की है। सत्यभामा! आज से तुम मेरी अनुज हो वधू गई हो। यह सुनकर सत्यभामा बलरामजी के पैर छूती हैं तो वे कहते हैं- सदा सुखी रहो।
 
फिर सत्यभामा श्रीकृष्ण की रानी बनकर राजमहल में आईं। परंतु अपने रूप और अहंकार के कारण वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानती रहीं। श्रंगार के वक्त वह अपनी दासियों से पूछती हैं- सखी मैं कैसी लग रहूं हूं? तो दासियां कहती हैं- अति सुंदर महारानी। तब सत्यभामा कहती हैं कि क्यों नहीं। मैं सुंदर हूं, उनके कुल की हूं और मेरी ही सम्यन्तक मणि के कारण द्वारिका में स्वर्ण के अंबार लग रहे हैं।
 
यह सुनकर एक दासी कहती हैं- यह सब तो ठीक है महारानी परंतु....यह सुनकर सत्यभामा कहती हैं परंतु क्या? तब वह दासी कहती हैं कि सच्ची बात तो यह है महारानी की मैं देख रही हूं कि द्वारिकाधीश देवी रुक्मिणी को आपसे अधिक महत्व दे रहे हैं। यह सुनकर सत्यभामा कहती हैं- मुझसे अधिक परंतु कैसे? तब वह दासी कहती हैं कि इसी बात से कि वह धरती पर देवी रुक्मिणी को अपनी प्रथम पूजा का अधिकार देते हैं। यह सुनकर सत्यभामा कहती हैं- क्या प्रथम पूजा? हां महारानी इसीलिए वे सूर्योदय से पहले चुपके से उनके कक्ष में जाती हैं और उनकी पूजा करके चली आती हैं। यह सुनकर सत्यभामा वहां से उठकर चली जाती हैं।
 
देवताओं का नियम था कि वह सूर्योदय से पहले ही द्वारिका के आकाश में प्रकट होकर श्रीकृष्ण की पूजा तथा आरती करके अपने-अपने लोकों में चले जाते थे। तत्पश्चात देवी रुक्मिणी आती हैं। रुक्मिणी स्वयं लक्ष्मी का अवतार थीं इस बात को रुक्मिणी और श्रीकृष्ण दोनों ही जानते थे। सो देवताओं के पश्चात रुक्मिणी चुपचाप उनके महल में आती और धरती पर भगवान श्रीकृष्ण की सर्वप्रथम पूजा वही करती हैं।
 
रुक्मिणी इसके लिए श्रीकृष्ण के कक्ष में जा ही रही होती हैं कि तभी रास्ते में उन्हें सत्यभाम मिलती है तो रुक्मिणी पूछती हैं- अरे सत्यभामा इतनी सुबह कहां जा रही हो? यह सुनकर सत्यभामा कहती हैं- वहीं जहां आप जा रही हैं दीदी। यह सुनकर रुक्मिणी चलते हुए मुस्कुराकर कहती हैं अर्थात? तब सत्यभामा कहती है कि अर्थात ये कि मैंने सुना है कि सवेरे-सवेरे चुपचाप आप अकेले द्वारिकाधीश के कमरे में उनकी पूजा करने जाती हैं?
 
यह सुनकर रुक्मिणी मुस्कुराते हुए कहती हैं- हूं। तब सत्यभामा कहती हैं कि तो आज मैंने भी सोचा कि उनकी सर्वप्रथम पूजा का पुण्य मैं भी अर्जित कर लूं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं- अरे वाह! ये तो बहुत अच्छा विचार है। आओ मेरे साथ। तब सत्यभामा कहती हैं- आपको बुरा तो नहीं लगा दीदी मैं आपके अधिकार में हिस्सा बांट रही हूं? यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं- अरे नहीं नहीं। वो तो त्रिलोकीनाथ हैं। उनकी पूजा का अधिकार तो ब्रह्माण्ड के हर एक प्राणी को है। भक्ति पर किसी एक का अधिकार नहीं होता। अब चलो नहीं तो देर हो जाएगी। 
 
ध्यान में बैठे श्रीकृष्ण यह सब सुन लेते हैं। फिर वे आंखें खोलते हैं तो सत्यभामा और रुक्मिणी को देखते हैं। फिर वह सत्यभामा की ओर देखकर कहते हैं- देवी सत्यभामा आज आप निंद से शीघ्र ही मुक्त हो गई? तब सत्याभामा कहती हैं- नहीं वासुदेव मैं तो यही सोचकर सोई थी कि प्रात:काल सर्वप्रथम मैं ही आपके दर्शनों का लाभ लूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- ये तो शुभ विचार है। 
 
फिर रुक्मिणी श्रीकृष्ण के चरणों में कुछ अर्पित करने लगती हैं तो सत्यभामा उन्हें रोककर कहती हैं- नहीं दीदी। आज से प्रथम पूजा तो मैं ही करूंगी। यह सुनकर रुक्मिणी श्रीकृष्ण की ओर देखती हैं तो श्रीकृष्ण आंखों के संकेतों से उन्हें धीरज धरने का कहते हैं। तब रुक्मिणी मुस्कुराकर सत्यभामा से कहती हैं- अवश्य। आज से ये अधिकार तुम्हारा हुआ। 
 
फिर सत्याभामा श्रीकृष्ण को सर्वप्रथम तिलक लगाती हैं, सिर पर फूल डालती हैं और अंत में आरती उतारती हैं। इसके बाद रुक्मिणी की बारी आती है तो रुक्मिणी पहले श्रीकृष्ण के चरणों में फूल अर्पित करती हैं और उनके पैर छूती हैं तो श्रीकृष्ण आशीर्वाद देते हैं। तब रुक्मिणी उनकी आरती उतारती हैं। यह देखकर सत्यभामा मुंह बनाती रहती हैं। 
 
आरती उतारने के बाद रुक्मिणी आंखें बंदकर उनका ध्यान करती हैं। तब श्रीकृष्ण मन ही मन पूछते हैं- क्या सोच रही हो रुक्मिणी? तब रुक्मिणी मन ही मन कहती हैं- मैं क्या सोचूं प्रभु। मेरा तो सबकुछ आप ही का है। मनसा, वाचा और कर्मणा से मैंने आपको अपने हृदय में बसाया है। मुझे अपना अधिकार किसी से मांगना नहीं पड़ेगा और मेरा अधिकार कोई छीन भी नहीं सकता प्रभु। तब श्रीकृष्ण मन ही मन में कहते हैं तो फिर अपनी छोटी बहन सत्यभामा को भी अपने जैसा क्यों नहीं बनाती? उसके अहंकार का नाश क्यों नहीं करती? इस पर रुक्मिणी कहती हैं- अपने प्रियजनों को अहंकार से मुक्त करके उन्हें ज्ञान के मार्ग तक पहुंचाने का उत्तरदायित्व आपका ही है प्रभु। अपने सखा अर्जुन को आपने ही संभाला है प्रभु और महामुनि नारद को आपने ही शिक्षा दी थी तो अब सत्यभामा का भी आप ही बेड़ा पार लगाएं प्रभु। यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराकर हां में गर्दन हिला देते हैं और कहते हैं- जैसी तुम्हारी इच्छा देवी।
 फिर श्रीकृष्ण दोनों की ओर देखकर मुस्कुरा देते हैं। 
 
उन्हीं दिनों दैत्यराज नरकासुर ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। नरकासुर से परास्त होकर इंद्र भाग जाता है तो नरकासुर इंद्रलोक में पहुंचकर वहां पर अपना अधिकार जमा लेता है। वह इंद्र की माता अदिति के कक्ष में पहुंचकर उन्हें भी धमकाता है और कहता है मेरे शासन में अब कोई भी स्त्री आभूषण नहीं पहनेंगी तभी उसकी नजर ‍देवी अदिति के कानों के स्वर्ण कुंडल पर पड़ती है तो वह दोनों कुंडल छीन लेता है और कहता है कि यदि इंद्र यहां आए तो उससे कहना की नरकासुर देवलोक की विजय के रूप में देवताओं की माता का ये कुंडल उतारकर ले गया। यदि इंद्र या अन्य देवताओं में शक्ति है तो मुझे युद्ध में परास्त कर ये कुंडल वापस ले जाएं।
 
उधर, इंद्र सहित सभी देवता ब्रह्मा के पास जाते हैं और कहते हैं कि आपके वरदान से शक्तिशाली होकर नरकासुर ने उधम मचा रखा है अब आप ही बताएं कि हम क्या करें? तब ब्रह्माजी कहते हैं कि वह देवताओं के लिए अवध है अत: उसे कोई मानव ही मार सकता है सो इस समय भगवान विष्णु धरती पर मानव लीला में हैं तो तुम उनसे सहायता मांगों। 
 
तब इंद्र भगवान श्रीकृष्ण के पास जाते हैं। सत्यभामा के साथ श्रीकृष्ण देवराज इंद्र का स्वागत करते हैं। इंद्र अपने आने का कारण बताते हैं और नरकासुर से रक्षा करने की मांग करते हैं और बताते हैं कि वह देवमाता अदिति के कुंडल ले गया है सो हे श्रीकृष्ण अब आप ही हमारी सहायता कर सकते हैं। यह सुनकर सत्यभामा कहती हैं- परंतु क्यों? देवता को सर्वशक्तिमान कहे जाते हैं।..यह सुनकर इंद्र बताते हैं कि उसको ब्रह्मा से यह वरदान मिला है कि कोई देवता उसे नहीं मार सकता है। ब्रह्माजी ने कहा कि अब आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं प्रभु। 
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब स्वयं ब्रह्माजी ने ही कह दिया है तो फिर मुझे नरकासुर से आप लोगों को मुक्ति दिलानी ही पड़ेगी। मैं आपके साथ अवश्य चलूंगा देवराज। यह सुनकर इंद्रदेव कहते हैं कि तो फिर विलंब ना करें प्रभु। नरकासुर के ‍वध के लिए प्राग्जोतिषपुर के लिए प्रस्थान करें। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तो ठीक है आप अपने लोक जाइये और देवताओं से कहिये की वे निश्चंत रहें। धर्म की रक्षा और उसकी स्थापना करना मेरा प्रथम कर्तव्य है।
 
इंद्रदेव वहां से चले जाते हैं तब सत्यभामा कहती है- तो आप जा रहे हैं द्वारिकाधीश? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां धर्म की रक्षा तो करनी ही पड़ेगी। यह सुनकर सत्याभामा कहती हैं- मैं भी आपके साथ चलूंगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तुम सत्यभामा? मुझे नरकासुर से युद्ध करना पड़ेगा, तुम युद्ध में क्या करोगी? यह सुनकर सत्यभामा कहती हैं- मैं युद्ध में आपकी सहायता करूंगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण आश्चर्य से कहते हैं- मेरी सहायता?
 
तब सत्यभामा कहती हैं- मैं भी तो यादव कन्या हूं। नारी को अशक्त ना समझें द्वारिकाधीश। यह सुनकर श्रीकृष्ण हंसकर कहते हैं- जैसी तुम्हारी इच्‍छा।...फिर दोनों गरुढ़ पक्षी पर बैठकर नरकासुर के राज्य में पहुंच जाते हैं। फिर पहाड़ों पर बसी एक नगरी को देखकर श्रीकृष्ण कहते हैं- सत्यभामा वो देखो नरकासुर की नगरी। 
 
फिर श्रीकृष्ण गरुढ़ से कहते हैं कि पक्षीराज तुम नरकासुर की इस नगरी को हमारे आगमन की सूचना दो। तनिक अपने पंखों की शक्ति का इन्हें आभाष कराओ। गरुढ़ ऐसा ही करता है। वह अपने पंखों से तूफान खड़ा कर देता है तो नगर में भगदड़ मच जाती है। फिर श्रीकृष्ण के पांचजन्य शंख की ध्वनि से संपूर्ण नगर हिल जाता है। नरकासुर अपने महल में यह भयानक ध्वनि सुनकर भयभित हो जाता है। वह चीखते हुए कहता है- ये किसकी शंख ध्वनि है? कौन मुझे युद्ध के लिए ललकार रहा है? किसकी मृत्यु उसे मेरे नगर तक घसिटकर ले आई है। फिर नरकासुर अपने एक दैत्य सैनिक से कहता है- जाओ देखो अपने प्राणों की आहूति देने कौन मेरे नगर में आ गया है। उसे उसकी इस धृतष्टता का दंड दो, मृत्युदंड। उसके सभी सैनिक चले जाते हैं। जय श्रीकृष्णा। 
 
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