Shri Krishna 14 June Episode 43 : श्रीकृष्ण का सांदीपनि ऋषि से 64 कलाएं सीखना

अनिरुद्ध जोशी
रविवार, 14 जून 2020 (22:24 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 14 जून के 43वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 43 ) में  सुदाम से गुरुमाता कहती हैं ये बलराम है और इसका नाम है कृष्‍ण। तुम इन दोनों को अपने साथ अपनी कुटिया में ले जाओ। तब तक इन दोनों के लिए मैं कुछ बनाकर ले आती हूं।


रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
सुदामा दोनों को अपनी कुटिया में ले जाते हैं। सुदामा अपनी चटाई बिछाने के बाद उनकी चटाई बिछाने ही वाला रहता है कि श्रीकृष्‍ण कहते हैं रहने दो हम अपनी चटाई स्वयं ही बिछा लेंगे। यह सुनकर सुदामा कहते हैं आज नहीं कल से बिछा लेना। तब श्रीकृष्ण पूछते हैं क्यों आज क्यों नहीं। इस पर सुदामा कहता है कि आज तक यह कुटिया मेरी थी और तुम दोनों पहली बार मेरी कुटिया में एक अतिथि की तरह आए हो। सो अतिथि को भगवान समझकर मैं आपका भगवान की तरह स्वागत करूं। अत: इस समय मुझे अपनी सेवा करने दो।
 
श्रीकृष्ण यह सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं अच्छी बात है। सुमामा चटा बिछाने के बाद श्रीकृष्‍ण और बलराम के चरण धोते हैं। फिर वह उन्हें आसन पर बिठाकर उनके लिए भोजन की पत्तल और पानी की व्यवस्था करते हैं और कहते हैं लो थोड़ा जल पियो। तब श्रीकृष्‍ण जल पीकर कहते हैं वाह तुम्हारे जल से ही तृप्ति हो गई मित्र। यह सुनकर सदामा कहते हैं मित्र? तुमने मुझे मित्र कहा इतनी जल्दी ही? यह सुनकर कृष्ण कहते हैं क्यों इतनी जल्दी मित्र नहीं कहना चाहिए क्या? तब सुदामा कहते हैं कि नहीं, गुरुदेव कहते हैं किसी को अतिशीघ्र मित्र नहीं बना लेना चाहिए। क्योंकि मित्र कहने पर मित्रता को निभाना पड़ता है और मित्रता का उत्तरादायित्व बहुत कठिन है। इसलिए किसी को पूरी तरह परखे बिना उसे मित्र नहीं बना लेना चाहिए। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हमनें तो तुम्हें परख लिया इसीलिए मित्र कह दिया।
 
यह सुनकर सुदामा कहते हैं कि इतनी जल्दी कैसे परख लिया? तुम तो मुझे जानते भी नहीं। देखों मैं एक साधारण ब्राह्मण कुमार हूं। यदि तुम्हें किसी भी तरह की आवश्यकता आ पड़ी तो मैं मित्रता का उत्तरदायित्व कैसे निभा पाऊंगा? तब कृष्‍ण कहते हैं कि मैंने मित्र कहा है ना, सो मित्रता का उत्तरदायित्व निभाना मेरा ही काम होगा। कभी आवश्यकता आ पड़ी तो इस मित्रता को मैं ही निभाऊंगा। मैं वचन देता हूं तुम्हारी मित्रता की परीक्षा मैं कभी नहीं लूंगा। अब बोलो? मुझे अपना मित्र बनाओगे कि नहीं?
 
यह सुनकर सुदामा प्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं तुम तो सचमुच भगवान की तरह ही उदार हो। आज जीवन में पहली बार किसी को मित्र बनाने का आनंद पाया है मित्र।
 
दूसरे दिन से सांदिपनि ऋषि दोनों को विद्या प्रादान करने का कार्य प्रारंभ करते हैं। एक-एक करके संपूर्ण विद्याएं श्रीकृष्ण को प्रादान करने के बाद उन्हें अस्त्र-शस्त्र की विद्या प्रादान की जाती है। फिर दोनों को गीत और संगीत की शिक्षा दी जाती है। दोनों कुमार महाकाल की स्तुति करते हैं। फिर ऋषि सांदिपनि कहते हैं कि मैं तुम दोनों की प्रतिभा से बहुत प्रसन्न हूं। तुम दोनों ने 14 विद्याओं का ज्ञान और 64 कलाओं को मात्र चौसठ दिनों में ही प्राप्त कर लिया है। ऐसी तीव्र ग्रहण शक्ति साधारण मानव में नहीं हो सकती। तुम दोनों सचमुच किसी विलक्षण कोटि के जीव हो। ऐसे ओजस्वी और प्रतिभावान शिष्यों को पाकर कोई भी गुरु धन्य हो जाएगा। इसलिए अब मैं तुम्हें वो ज्ञान दूंगा जो साधारण कोटि के शिष्यों को नहीं दिया जाता।
 
श्रीकृष्‍ण यह सुनकर कहते हैं, अर्थात? ऋषि कहते हैं अर्थात ये कि अब मैं तुम्हें कुछ गुप्त विद्याएं सिखाऊंगा। कुछ आसुरी विद्याएं हैं जिनके बल पर कभी-कभी असुर लोग देवताओं को भी हरा देते हैं और कुछ दैवीय विद्याएं हैं जिनके बल पर देवता लोग धर्म की रक्षा और दुष्टों का नाश करने में सफल होते हैं। कुछ दिव्य अस्त्रों की विद्या भी मैं तुम्हें प्रादान करूंगा जिनका आह्‍वाहन, चालन और संधान गुप्त मंत्रों की शक्ति के द्वारा ही प्राप्त होता है। क्योंकि तुम्हें देखकर मुझे विश्वास हो गया है कि तुम जन कल्याण के लिए ही इन शक्तियों का उपयोग करोगे। इसलिए मैं ये शक्तियां तुम्हें अवश्य प्रदान करूंगा।
 
मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो परंतु मेरे हृदय में माता सरस्वती का एक संदेश स्पष्ट होता है कि ऐसे शिष्य जन्म जन्मांतर में भी कभी नहीं मिलेंगे। इसलिए जो कुछ तुम्हारे पास है इन्हें दे दो। अपने ज्ञान की सारी झोली इनके चरणों में खाली कर दो। समस्त समर्पण कर दो। बस तुम्हारा कल्याण हो जाएगा।... अंत में ऋषि कहते हैं कि जीने की कलाएं तुम सीख चुके हो, अब मैं तुम्हें मरने की कलाएं सिखाता हूं।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं मरने की कला? तब ऋषि कहते हैं कि अर्थात यह मोक्ष प्राप्त करने की कला है और बड़ी सहज कला है। यह सुनकर बलराम कहते हैं मोक्ष प्राप्ति और वह भी बड़ी सहज? इस पर ऋषि कहते हैं कि धर्म, अर्थ और काम तो सभी प्राप्त कर सकते हैं लेकिन मोक्ष की प्राप्ति तो उसके मरने पर ही हो सकती है, वह भी जबकि उसे मरने की कला आती हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं यदि ऐसा है गुरुवार तो हमें विस्तार से बताएं। 
 
फिर सांदिपनि ऋषि बहुत ही गूढ़ और गंभीर ज्ञान के बारे में दोनों को बताते हैं। फिर अंत में वे बताते हैं ऐसा करने के बाद साधक केवल श्रीहिरि के चरणों का ध्यान करें तो उसी क्षण उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। सभी बातें सुनने के बाद श्रीकृष्ण कहते हैं गुरुदेव आपने इतनी सहजता से इस कला को बताया, वह कला इतनी सहज नहीं। 
 
यह सुनकर सांदिपनि ऋषि कहते हैं कि ले‍किन यदि मनुष्‍य अपने नित्य कर्मों को करते हुए केवल श्रीहिरि के नाम का जप करता रहे तो श्रीहरि अपने भक्तों को यह मोक्ष सहज ही प्रादान कर देते हैं, वे बड़े दयालु हैं। वे धरती पर अवतार लेते रहते हैं। कभी मत्स्य रूप में तो कभी नृसिंह रूप में और कभी वराह रूप में। वही भक्तों के अंत समय में उनकी सहायता करते हैं। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं भगवन यदि आप हमें श्रीहरि की उन कथाओं को सुनाने की कृपा करें जिन्हें सुनकर प्राणी भगवान की भक्ति में स्थिर हो जाता है तो बड़ी कृपा होगी। यह सुनकर सांदिपनि ऋषि प्रसन्न होकर उन्हें प्रभु श्रीहरि विष्णु के अवतारों की कथा सुनाते हैं। जय श्रीकृष्‍णा ।
 
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