निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 4 अक्टूबर के 155वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 155 ) में श्रीकृष्ण कहते हैं कि धर्म की रक्षार्थ मैंने कल्प के प्रारंभ में मत्स्य अवतसार लिया था। इस तरह श्रीकृष्ण सभी अवतारों के लेने की उद्देश्य को बताते हैं।
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फिर अर्जुन पूछता है कि हे केशव! तुम कहते हो कि प्राणी को सारे कर्म इस प्रकार करने चाहिए जैसे वह भगवान की पूजा कर रहा हो। अथवा लोक कल्याण के लिए कोई यज्ञ कर रहा हो। जैसे द्रव्य यज्ञ, ज्ञान यज्ञ आदि। तो हे माधव! मेरे मार्गदर्शन के लिए ये बताओ की मेरे लिए कौनसा यज्ञ उचित होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- रण यज्ञ। इस पर अर्जुन आश्चर्य से पूछता है रण यज्ञ?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हां पार्थ तुम एक छत्रिय हो और धर्म की रक्षा के लिए ही शस्त्र धारण करके तुम इस युद्ध भूमि पर आए हो। इसलिए इस समय तुम्हें सबसे पहले रण यज्ञ ही करना चाहिए अर्थात युद्ध करना चाहिए।
संजय जब यह बात धृतराष्ट्र को बताता है तो धृतराष्ट्र कहता है- ये कृष्ण की मुरली की तान युद्ध पर ही आकर टूटती है। देख रहे हो संजय अपनी बांसुरी ने कृष्ण ने नया सुर छेड़ा है। कोई मानेगा भला कि युद्ध को रण यज्ञ कह रहा है।
उधर, श्रीकृष्ण कहते हैं- हे पार्थ कर्म योगी का जीवन भी एक यज्ञ ही होता है। इसलिए तुम भी आसक्ति से मुक्त होकर स्वधर्म पालन करो और युद्ध करो। हे पार्थ, यदि तुम धर्म के लिए यज्ञरूपी रण करोगे तो दूसरे लोग भी तुमसे प्रेरणा लेंगे क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं अन्य पुरुष वैसे ही आचरण करते हैं। सभी उसी का अनुसारण करते हैं। हे अर्जुन! मेरी ओर देखो, यदि मैं भी तटस्थ होकर निष्क्रीय हो जाऊं, न्याय का समर्थन ना करूं, अन्याय का प्रतिरोध ना करूं तो लोग मेरा अनुसरण करके निष्क्रीय हो जाएंगे। कर्म का त्याग करेंगे और इस लोक का सारा विधान अस्त-व्यस्त हो जाएगा, संसार नष्ट हो जाएगा। इसलिए श्रेष्ठ लोगों को धर्म को बचाने और दूसरे लोगों को धर्म पर चलाने के लिए आदर्श कर्मों को दिखाना पड़ता है। मैं भी इसी उद्देश्य से कर्म करता हूं। इसलिए नहीं करता कि मुझे कर्म करके कुछ पाना है। असाध्य को साधना है। सब तो मेरे वश में है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
भावार्थ : श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक' शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।) हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥3-21-22॥
हे पार्थ! अहंकारी मनुष्य समझता है कि वह स्वयं कर्म कर रहा है परंतु इसका कर्ता साक्षात ईश्वर है। ईश्वर तुमसे कर्म करवा रहा है। ये मानकर तू अपने सारे कर्म मुझे अर्पण कर दें। कर्म फल की आशा छोड़कर युद्ध करो। अर्जुन तुम मेरे मित्र हो, सखा हो फिर भी मोह माया के आधीन कैसे हो गए। याद रखो पार्थ कि अधर्म का साथ देने वालों का विनाश अधर्मियों की तरह ही होता है और जो तुम्हारी तरह धर्म के मार्ग से हट जाता है और धर्म का साथ नहीं देता है वह अनजाने में अधर्म का ही साथ देता है। अधर्मियों की सहायता करता है। इसलिए तुम हथियार डालकर धर्मराज युधिष्ठिर का नहीं अधर्मी दुर्योधन का साथ दे रहे हो।...
हे अर्जुन जीवन देने वाला और लेने वाला मैं हूं। जन्म भी मैं हूं और मृत्यु भी मैं ही हूं। हे अर्जुन जो अज्ञानी मेरी नींदा करते हैं और मेरे बताए कर्म योग को नहीं मानते हैं वो नष्ट हो जाते हैं।
यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं- हे संजय कृष्ण के उपदेश के अनुसार तो मैं पहले की कर्म योग को अपना चुका हूं। वह कहता है कि क्षत्रिय का धर्म तो युद्ध करना होता है और इसीलिए मैंने अपने धर्म का पालन करने के लिए युद्ध करने की आज्ञा दे दी है। फिर तात वेद व्यास अपना कर्तव्य करने अर्थात युद्ध करने के क्यों रोक रहे थे? युद्ध के भीषण संहार का दायित्व मुझ पर क्यों रख रहे थे? यह सुनकर संजय कहता है कि क्षमा करें महाराज यदि मैं इसका उत्तर दे दूं तो आपके मन को मेरा उत्तर नहीं भाएगा। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है संजय मैं तुम्हें अभय देता हूं तुम स्पष्ट रूप से कहो कि इस संबंध में तुम्हारा मन क्या कहता है।
तब संजय कहता है कि महाराज जिसे आप कर्म योग का नाम दे रहे हैं वह वास्तव में निष्काम कर्म योग नहीं था क्योंकि उसके साथ आपकी आसक्ति जुड़ी हुई थी। आप इस कर्म का फल अपनी इच्छानुसार चाहते हैं। आप हस्तिनापुर का राज सिंघासन चाहते हैं। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं कि यदि वह कर्म योग नहीं था तो फिर क्या था? तब संजय कहता है कि वह एक राजनीतिक कुटिलता थी।
उधर, हे पार्थ! जैसे सूर्य उदय होते ही रात का अंधकार नष्ट हो जाता है वैसे ही ज्ञान का प्रकाश अज्ञान के अंधकार को नष्ट कर देता है। फिर मनुष्य परमात्मा की ओर जाने वाले मार्ग से कभी नहीं भटकता है। ज्ञान का साक्षात्कार होने के बाद मनुष्य जान जाता है कि एक ही कर्म पुण्य कैसे बनता है और वही कर्म पाप कैसे बन जाता है।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि तुम कहते हैं हो कि एक ही कर्म पुण्य भी हो सकता और पाप भी, वो कैसे? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि उदाहरण के तौर पर एक मनुष्य ने दूसरे मनुष्य की हत्या कर दी, परंतु यही कर्म पुण्य भी हो सकता है और पाप भी। एक मनुष्य किसी कमजोर बूढ़े मनु्ष्य का धन लुटने के लिए उसकी हत्या कर देता है तो वह क्या हुआ? तब अर्जुन कहता है कि निश्चय ही वह पाप है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि और यदि एक दुष्ट मनुष्य किसी अबला स्त्री के साथ जबरदस्ती बलात्कार करने का प्रयास कर रहा है तो उस अबला की रक्षा के लिए यदि बलात्कार करने वाले की हत्या कर दी जाए तो वह क्या होगा?
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि यह तो स्पष्ट है कि किसी असहाय स्त्री की रक्षा करना पुण्य होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुमने स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर दे दिया पार्थ। कर्म तो वही रहा किसी की हत्या करना परंतु उस कर्म के पीछे किसी की भावना क्या है।
मारने वाले की नियत क्या है इसी के फर्क के एक ही कर्म पाप हो सकता है अथवा पुण्य। हे अर्जुन जब मनुष्य निष्काम भावना से कर्म करता है तो उस कर्म का फल उसे नहीं भोगना पड़ता है। इसलिए वह अकर्म हो जाता है। कर्म उसे कहते हैं तो सकाम भाव से कर्म फल की इच्छा से किया जाता है। उसका फल कर्म के अनुसार अवश्य मिलता है। अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे का बुरा।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि विकर्म? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि असत्य, कपट, हिंसा आदि अनुचित और निषिद्ध कर्म विकर्म है। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि इसका अर्थ केशव युद्ध विकर्म है क्योंकि इसका उद्देशय हिंसा है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैंने अभी तुम्हें बताया कि कर्म जिस भावना से किया जाए उसी से वह पाप और पुण्य होता है।...युद्ध यदि धर्म समझकर अधर्म का और अन्याय का नाश करने के लिए किया जाए तो उस युद्ध में मरने पर भी प्राणी को स्वर्ग की प्राप्त होती है। इसलिए तुम सारी शंका और कुशंकाओं को त्याग दो और युद्ध करो। हे अर्जुन! जब तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा तो तुम जान जाओगे कि ये संसार मेरी ही माया है। यह संसार मेरे से ही उत्पन्न हुआ है और मैं ही इस संसार का पालक हूं और मैं ही इस संसार का संहारक हूं। ये सारी सृष्टि मेरी ही माया का खेल है।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि हे केशव! इस माया के संसार का रूप क्या है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन यदि तुम अपने ज्ञान चक्षुओं से देखोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि ये माया का संसार एक उल्टे वृक्ष की भांति है जिसकी जड़े ऊपर हैं और टहनियां एवं पत्ते नीचे की ओर है। अपने अंतर चक्षुओं के द्वारा इसे देखो अर्जुन। फिर श्रीकृष्ण अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं।
इस पर अर्जुन कहता है कि हे केशव! मैं इस संसार वृक्ष को देख सकता हूं। इसकी जड़ें ऊपर है और तुमसे निकली है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हां अर्जुन जैसा मैंने कहा कि यह संसार मेरी माया का रूप है। इसकी जड़े उपर है और मेरे से ही निकली है और माया का स्थान चूंकि मुझसे नीचे है इसलिए यह पेड़ उल्टा है।
तब अर्जुन पूछता है कि हे केशव! इस संसार वृक्ष में ब्रह्मा का स्थान किया है तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि ब्रह्मा इसकी मुख्य शाखा है और वेद इसके पत्ते हैं। हे पार्थ! शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ये पांचों इस वृक्ष के साखाओं की कोंपलों के रूप में हैं। हे पार्थ! इस माया वृक्ष को सत, रज और तम तीनों गुणों के जल से सींचा जाता है। आसक्ति का मारा मनुष्य इसी पेड़ की डालियों में उलझा रहता है। पार्थ यह वृक्ष अनादि है, अनंत है। यह वृक्ष संसार की माया का प्रतीक है।
यह सुनकर अर्जुन कहता हैं कि हे मधुसुदन जब ये पेड़ ही सृष्टि है तो इसकी विशाल छाया भी हर ओर फैली होगी तब मनुष्य इसकी छाया से कैसे बचकर रहा सकता है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन यह ठीक है कि यह वृक्ष विशाल है परंतु इसका विधाता तो उससे भी विशाल है। हे अर्जुन जब तुम ज्ञान और वैराग्य की तलवार से इस संसार वृक्ष को काट दोगे तो तब तुम्हें उस परमात्मा के दर्शन होंगे जो र्स्वव्यापी है। हर जगह मौजूद है, सबमें व्याप्त है। इसलिए पार्थ तुम मेरी शरण में आओ।
यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है कि संजय कृष्ण के मुंह से ये बातें सुनकर न जाने क्यों मेरा मन भय से व्याकुल हो रहा है। इससे पहले मुझे कभी मृत्यु से भय नहीं लगा। परंतु आज मुझे मृत्यु से भय लगने लगा है। मेरी ही नहीं मेरी अपनों की मृत्यु का भी भय। यह सुनकर संजय कहता है कि महाराज ये तो बड़ी विचित्र बात है। द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण तो अर्जुन और हर मनुष्य के मन से अपनी और अपनों की मृत्यु का भय निकालने के उद्देश्य से ही उपदेश दे रहे हैं।
यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है कि फिर मेरा मन भय से क्यूं कांप रहा है। एक ही उपदेश का विपरित प्रभाव क्यों पड़ रहा है। अर्जुन का मन शांत होता जा रहा है और मेरा मन अशांत हो रहा है। तब संजय कहता है कि महाराज किसी बात का किसी व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका अधार तो उस व्यक्ति की भावना पर निर्भर रहता है। यदि मन में कोई भय कुंडली मारे बैठा है तो वह सच्ची और कड़ी बात पर ऐसे ही फन उठाता है जैसे नाग लाठी को देखकर। परंतु आप क्यों व्याकुल हो रहे हैं। हर एक की मृत्यु का एक न एक दिन निश्चित है। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है कि परंतु मेरी व्याकुलता का कारण ये है कि कहीं मेरे पुत्र मेरे कारण इस युद्ध में मृत्यु का शिकार ना बन जाए। उसे समय मैंने कहा था कि प्रारब्ध में जो लिखा है वही होगा, मेरे हाथों में कुछ नहीं है। आज ऐसा लग रहा है कि उस समय मैं नहीं बोल रहा था नियति ही मेरे मुंह से बोल रही थी। संजय अब मेरे हाथों में कुछ नहीं रहा, कुछ नहीं रहा। सब कुछ कृष्ण के हाथ में ही है, सब कुछ। जय श्रीकृष्णा।
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