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Shri Krishna 2 Sept Episode 123 : प्रद्युम्न प्राप्त करता है मायावी विद्या, विकटासुर भेजता है अंचभासुर को

हमें फॉलो करें Shri Krishna 2 Sept Episode 123 : प्रद्युम्न प्राप्त करता है मायावी विद्या, विकटासुर भेजता है अंचभासुर को

अनिरुद्ध जोशी

, बुधवार, 2 सितम्बर 2020 (22:07 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 2 सितंबर के 123वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 123 ) में देवर्षि कहते हैं- अब आप ही बताइये भगवन! रति और कामदेव का मिलन कैसे समाप्त किया जाए? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि देवर्षि संभरासुर से युद्ध करने के पहले प्रद्युम्न को भानामति से मायावी विद्या भी ग्रहण करनी है। आप तो देख ही रहे हैं कि संभरासुर के मायावी असुर प्रद्युम्न को किस तरह ढूंढ रहे हैं। समय की मांग को आप प्रद्युम्न को समझाइये। उसका पृथ्वीलोक पर जन्म किसलिए हुआ है और शिवजी ने उसे द्वापर युग में शरीर धारण करने का वरदान क्यों दिया है ये भी उसे बताइये। संभरासुर उसे हर तरह से नष्ट करने का प्रयास करेगा देवर्षि। इसलिए आप प्रद्युम्न और रति को उपदेश दीजिये। यह सुनकर देवर्षि नारदमुनि कहते हैं- जैसी आपकी आज्ञा प्रभु।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
फिर नारदमुनि वहां जाकर प्रद्युम्न और रति को समझाते हैं और अपने कर्तव्य की याद दिलाते हैं और कहते हैं कि जब तक प्रद्युम्न संभरासुर का वध नहीं कर देते हैं तब तक देव रति आप प्रद्युम्न को प्रेम बंधन में नहीं बांध सकती। इस पर देवी रति कहती हैं कि इन्हें खोकर पाने के बाद इन्हें मैं‍ फिर से नहीं खो सकती। यह सुनकर कामदेव अर्थात प्रद्युम्न कहते हैं कि यह भय अपने दिल से निकाल दो और मुझे थोड़ी देर के लिए अपने प्रेम बंधन से मुक्त कर दो। देवी रति मुझे जाने दो कहीं भगवान श्रीकृष्ण नाराज न हो जाएं। यह सुनकर देवी रति प्रद्युम्न को जाने की अनुमति दे देती है।
उधर, संभरासुर का भेजा राक्षस विकटासुर प्रकट होकर संभरासुर से कहता है- हे असुरेश्वर! मैंने प्रद्युम्न को सब जगह ढूंढा परंतु मुझे वह कहीं नहीं मिला। तब संभरासुर कहता है कि उसे ढूंढों विकटासुर किसी भी तरह से। तुम उसे मायावी विद्या से ढूंढों, तुम्हें अपने भ्राता प्रलयासुर की मृत्यु का बदला लेने का अवसर मिला है। यह सुनकर विकटासुर कहता है कि इससे पहले कि मेरे भाई के हत्यारे का भतीजा आपके प्राण लेने के लिए यहां पहुंचे मैं उसके प्राण उसके शरीर से बाहर खींच लूंगा। ऐसा कहकर वह वहां से चला जाता है।
 
फिर उधर प्रद्युम्न भानामति के पास पहुंच जाता है तो उसकी मां भावुक हो जाती है। प्रद्युम्न बिना बताए दे‍वी रति के साथ चले जाने पर क्षमा मांगता है और कहता है कि आपको सब पता था कि मैं वहां सु‍रक्षित था। तब भानामति कहती है कि तुम वहां सुरक्षित थे परंतु यहां नहीं। तुम्हें बचाते हुए मुझे अपना घर त्यागना पड़ा और अपने पति को छोड़ना पड़ा। समय की गति को बढ़ाकर तुम्हें शीघ्र ही बालक से युवा बनाना पड़ा। तुम्हारे प्राणों की रक्षा करने के लिए मैं केवल भागती ही रही हूं। तब प्रद्युम्न कहता है कि मैं ये सब नहीं जानता था माताश्री मुझे क्षमा कर दीजिये। फिर भानामति कहती है कि तुम अपने शुत्र की शक्ति को ना तो जानते हो और ना ही तुमने उसे देखा है। मैं नहीं जानती की देवी रति ने तुम्हें क्या कहा है परंतु तुम्हारा शत्रु अधर्मी है, महत्वकांशी है और त्रिलोक पर अपना राज्य स्थापित करना चाहता है। उसका नाम है दैत्याराज संभरासुर। उसे पता चल गया है की तुम्हीं उसकी मृत्यु का कारण हो। इसलिए वह तुम्हें हर जगह ढूंढ रहा है। तुम उसका सामना शारीरिक शक्ति से नहीं कर सकते पुत्र। 
 
उधर, संभरासुर को उसकी पत्नी अपने पुत्र मायासुर और अन्य असुरों की मृत्यु के बारे में बताती है तो संभरासुर कहता है कि अपने पुत्र मायासुर की हत्या का बदला लेने के लिए मुझे अपने बाकी के 99वें पुत्रों के शव भी दांव पर लगाने पड़े तो लगा दूंगा। 99वें के विरुद्ध भला एक प्रद्युम्न क्या कर सकता है। भानामति प्रद्युम्न को लेकर कहीं छुप गई है वर्ना विकटासुर उन दोनों का वध करके अब तक वापस आ चुका होता मायावती। 
 
उधर, रुक्मिणी पूछती है कि हे प्रभु ये विकटासुर क्या कर रहा है तो श्रीकृष्ण बताते हैं कि वह गुरुदेव की आत्मा को बुला रहा है।...फिर विकटासुर अपनी माया से यज्ञ निर्मित करके संभरासुर के गुरुदेव की आत्मा को बुलाता है। गुरुदेव प्रकट होकर कहते हैं-  मैं तुम्हें तुम्हारे कार्य में सफलता का आशीर्वाद नहीं दे सकता विकटासुर क्योंकि तुम्हारी मृत्यु समीप आ गई है, ये मैं जान गया हूं। यह सुनकर विकटासुर हंसते हुए कहता है- मेरी मृत्यु! गुरुदेव मुझे संभरासुर के अलावा कोई नहीं मार सकता। आप मुझे प्रद्युम्न के बारे में जानकारी दीजिये। मैं उसका अंत करूंगा और संभरासुर को अमृत्व प्रदान करूंगा। 
इधर, भानामति प्रद्युम्न को मायावी विद्या प्रदान करने के लिए श्रीकृष्ण से अनुमति मांगती हैं। श्रीकृष्ण अनुमति दे देते हैं तब वह प्रद्युम्न से कहती है कि तुम मायावी विद्या का प्रयोग केवल त्रिलोक के कल्याण के लिए ही करोगे। प्रद्युम्न इसका वचन दे देता है तब भानामति उसे दीक्षा देने लगती है। 
 
उधर, विकटासुर गुरुदेव से पूछता है कि मुझे बताइये कि प्रद्युम्न कहां है? गुरुदेव विकटासुर को सावधान करने की चेष्ठा करते हैं और कहते हैं कि तुम अपनी मृत्यु की ओर मत जाओ। यह सुनकर वहां कालपुरुष प्रकट होकर कहता है बताइये गुरुदेव बताइये। तुमने तो अनुभव कर लिया है कि जिसकी मृत्यु आती है उसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता है। तब गुरुदेव कहते हैं कि मैं विकटासुर की आंखें खोलना चाहता हूं तब काल पुरुष कहता है कि जिसने जान-बूझकर सोच-समझकर आंखें बंद कर ली है उसकी आंखें आप कभी नहीं खोल सकते।...रुक्मिणी पूछती है कि गुरुदेव की विचारधरा में ये परिवर्तन कैसे? तब श्रीकृष्ण बताते हैं कि अब उनकी आत्मा शुद्ध हो गई है।
 
विकटासुर पूछता है कि मुझे जल्दी बताइये कि प्रद्युम्न कहां हैं वहां अनर्थ हो जाएगा। तब गुरुदेव कहते हैं कि अनर्थ तो होने ही वाला है विकटासुर। यदि तुम जानना ही चाहते हो तो सुनो! प्रद्युम्न गंधमादन पर्वत पर भानामति से मायावी विद्या ग्रहण कर रहा है। यह सुनकर विकटासुर प्रसन्न हो जाता है और कहता है कि अब देखिये गुरुदेव की मैं प्रद्युम्न को कैसे नष्‍ट करता हूं।
 
इधर, प्रद्युम्न को भानामति मायावी विद्याओं की शिक्षा दे रही होती है। एक-एक करके प्रद्युम्न सारी विद्या ग्रहण कर लेता है और उधर विकटासुर भी अपनी मायावी विद्या से कुछ बुदबुदाता रहता है। फिर विकटासुर अपनी माया से एक पुतला निर्मित कर लेता है और उस पुतले को जीवित करके कहता है- हे अचंभासुर बड़ा हो जा। फिर वह विशालकय हो जाता है और कहता है- क्या आज्ञा है स्वामी। तब विकटासुर कहता है कि तुम गंधमादन पर्वत पर जाकर भानामति और प्रद्युम्न का विनाश करो जाओ।.. यह आदेश देते समय गुरुदेव भी उपस्‍थित रहते हैं। अचंभासुर वहां से चला जाता है। फिर काल पुरुष गुरुदेव से कहते हैं- गुरुदेव उसका अहंकार शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा।
इधर, भानामति प्रद्युम्न को सारी मायावी विद्या प्रदान करने के बाद उसका फूलों से स्वागत करके उसे आशीर्वाद देती हैं तो प्रद्युम्न अपनी माता को प्रणाम करता है तो भानमति कहती है कि मैंने तुम्हें मायावी विद्या में निपुण कर दिया है अब मैं तुम्हें मायावी विद्या का प्रयोग करते देखना चाहती हूं। तब प्रदयुम्न कहता है कि जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव। 
 
फिर प्रद्युम्न मायावी विद्या से विशालकाय होकर एकदम से लगु रूप हो जाता है। यह देखकर भानामति हर्षित हो जाती है। फिर वह अदृश्य हो कर पुन: प्रकट हो जाता है और एक मायावी राक्षस भी बन जाता है। फिर वह कई तरह के अस्त्र-शस्त्र को पैदा कर देता है। इस तरह वह कई तरह के चमत्कार बताता है। यह देखकर इंद्र भी अब आश्वस्त हो जाते हैं कि उनका साम्राज्य अब जाने नहीं पाएगा। यह करतब सभी देवी-देवता देख रहे होते हैं। 
 
फिर सभी चमत्कार बताने के बाद प्रद्युम्न अपनी गुरु मां को प्रणाम करने के लिए सिर झुकाता है और जब वह सिर उठाता है तो वहां पर उसकी मां उसे नजर नहीं आती है क्योंकि वह अपनी मायावी विद्या से अदृश्य हो जाती है। प्रद्युम्न चारों ओर देखता है परंतु उसे भानामति नजर नहीं आती है। तब वह कहता है- गुरुदेव आप कहां हैं? तब भानामति कहती है कि वत्य प्रद्युम्न! मुझे मायावी विद्या का प्रयोग करने ढूंढ निकालो। फिर जब वह ऐसा ही करता है तो उसे दो-दो भानामति नजर आती है। यह देखकर प्रद्युम्न कहता है कि गुरुदेव अब क्या आज्ञा है? तो भानमति कहती है कि मेरा सच्चा रूप ढूंढ निकालो। 
 
फिर वह ऐसा करता है तो भानमति प्रसन्न होकर कहती है कि अब तुम मायावी विद्या में निपुण हो चुके हो। यह सुनकर प्रद्युम्न अपनी मां के चरणों में झुककर उनसे आशीर्वाद मांगता है तो भानामति कहती है कि मेरा आशीर्वाद सदा ही तुम्हारे साथ है पुत्र। तभी भानामति देखती है कि कोई राक्षस आसमान में (अचंभासुर) गंधमादन पर्वत पर कुछ ढूंढ रहा है। वह उधर आसमान में देखने लगती है इस बीच प्रद्युम्न कहता है कि गुरुदेव शिक्षा तो अब समाप्त हो चुकी है परंतु आपने गुरु दक्षिणा की मांग नहीं की?
यह सुनकर भानामति कहती है कि तुम मुझे गुरु दक्षिणा देना चाहते हो ना? तब प्रद्युम्न कहता है- हां गुरुदेव। फिर भानामति कहती है- तो उठो वत्स और देखो आसमान में संभुरासुर का भेजा हुआ राक्षस हमें ढूंढता हुआ आ रहा है। तुम मेरी दी हुई शिक्षा से उस राक्षस का वध कर दो यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी। तभी वह राक्षस अचंभासुर जिसे विकटासुर ने भेजा था उन दोनों को देख लेता है। जय श्रीकृष्णा।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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