Panchamukhi shiva: पुराणों में बताया गया है कि शिव और आदिशक्ति से मिलकर पंच तत्वों का निर्माण हुआ था, ताकि सृष्टि पर जीवन निरंतर चलता रहे। चार वेदों में से एक यजुर्वेद के एकादश अध्याय के 54वें मंत्र में बताया गया है कि रूद्रदेव के रूप में शिव ने ही भूलोक का सृजन किया और उसे सूरज के प्रकाश से प्रकाशित किया। भगवान शिव ही सर्वप्रथम देव हैं, जिन्होंने पंच तत्वों से इस सृष्टि की रचना, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह किया। उन्होंने रचना का कार्य ब्रह्मा को सौंपा, पालन का कार्य विष्णु को और संहार, तिरोभाव और अनुग्रह का कार्य स्वयं के पास रखा।
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शिवजी ने सर्वप्रथम आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति की। इन पांच तत्वों के बाद पृथ्वी से औषधि और औषधि से अन्न, अन्न से जीव-जंतुओं का निर्माण किया। जब इन सभी का संहार होता है तो यह पुन: सभी आकाश में लीन हो जाते हैं। दर्शकों पंचमुखी शिव इन्हीं पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये पंचमुख है- सद्योजात, अघोर, वामदेव, तत्पुरुष और ईशान हैं। इसलिए उन्हें पंचानन या पंचमुखी कहा जाता है।
1. सद्योजात : पश्चिम दिशा के स्वामी सद्योजात पृथ्वी तत्व के अधिपति हैं। इसका कार्य है सृष्टि रचना करना। कांचीपुरम में एकाम्बरेश्वर में पृथ्वीलिंग स्थापित है जोकि स्वच्छ, शुद्ध और निर्विकार है। यह जन्म देने वाला शिव हैं।
2. वामदेव : उत्तर दिशा के स्वामी वामदेव जल तत्व के अधिपति हैं। इनका कार्य है स्थिति या पालन करना। जल की शक्ति पालन करने की होती है। जल से ही सभी जीवों की उत्पत्ति हुई है। तिरुचिरापल्ली के जम्बुकेश्वर में भगवान शिव जललिंग रूप में स्थापित है जो कि विकारों का नाश करने वाले हैं और जीवन का पालन करने वाले हैं।
4. तत्पुरुष : पूर्व दिशा के स्वामी तत्पुरुष वायु तत्व के अधिपति हैं। इनका कार्य है तिरोभाव करना। वायु जिस तरह किसी बीज को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है जहां वह उगता है। उसी प्रकाश शिवजी किसी जीवन को उसके शरीर से निकालकर दूसरे शरीर में स्थापित कर देते हैं। यही तिरोभाव शक्ति है। आंध्र प्रदेश के श्रीकालहस्पति में शिवजी वायुलिंग के रूप में विराजमान है जोकि आत्मा को स्थिर करना है।
5. ईशान : ऊर्ध्व या आकाश दिशा के स्वामी ईशान आकाश तत्व के अधिपति हैं। इनकी शक्ति अनुग्रह यानी कृपा और मोक्ष देना है। आकाश तत्व के रूप में भगवान शिव तमिलनाडु के चिदंबरम में नटराज और आकाशलिंग के रूप में स्थापित हैं जो आकाश के अधिपति है। जैसे एक पुप्ष से सुगंध आती रहती है किंतु वह जैसे ही मुरझा जाता है तो उसकी सुगंध कहां चली जाती है? वह सुगंध उस अनंत आकाश के अंदर व्याप्त हो जाती है। इसी प्रकार से जब एक जीवन को मुक्ति प्राप्त होती है तो वह अनंत परमेश्वर में लीन हो जाता है। वह जन्म मरण के कार्य से दूर हो जाता है।
इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान शिव ही इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के दृष्टा हैं। निर्माण, रक्षण और संहरण के कार्यों के कर्ता होने के कारण ही, उन्हें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा जाता है।
श्रावण मास के 5 सोमवार के पांच मुख:-
1. श्रावण मास में महादेव के पांच मुख का महत्व है। पांच मुख पांच सोमवार का प्रतीक है महादेव के 5 मुख पंच महाभूतों के सूचक भी हैं। दस हाथ 10 दिशाओं के सूचक हैं। हाथों में विद्यमान अस्त्र-शस्त्र जगतरक्षक शक्तियों के सूचक हैं। अनेक विद्वान मानते हैं कि सृष्टि, स्थिति, लय, अनुग्रह एवं निग्रह- इन 5 कार्यों की निर्मात्री 5 शक्तियों के संकेत शिव के 5 मुख हैं। पूर्व मुख सृष्टि, दक्षिण मुख स्थिति, पश्चिम मुख प्रलय, उत्तर मुख अनुग्रह (कृपा) एवं ऊर्ध्व मुख निग्रह (ज्ञान) का सूचक है।
2. भगवान शंकर के पांच मुखों में ऊर्ध्व मुख ईशान दुग्ध जैसे रंग का, पूर्व मुख तत्पुरुष पीत वर्ण का, दक्षिण मुख अघोर नील वर्ण का, पश्चिम मुख सद्योजात श्वेत वर्ण का और उत्तर मुख वामदेव कृष्ण वर्ण का है। भगवान शिव के पांच मुख चारों दिशाओं में और पांचवा मध्य में है। भगवान शिव के पश्चिम दिशा का मुख सद्योजात बालक के समान स्वच्छ, शुद्ध व निर्विकार हैं। उत्तर दिशा का मुख वामदेव अर्थात् विकारों का नाश करने वाला। दक्षिण मुख अघोर अर्थात निन्दित कर्म करने वाला। निन्दित कर्म करने वाला भी शिव की कृपा से निन्दित कर्म को शुद्ध बना लेता हैं। शिव के पूर्व मुख का नाम तत्पुरुष अर्थात अपने आत्मा में स्थित रहना। ऊर्ध्व मुख का नाम ईशान अर्थात जगत का स्वामी।
3. शिवपुराण में भगवान शिव कहते हैं- सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह-मेरे ये पांच कृत्य (कार्य) मेरे पांचों मुखों द्वारा धारित हैं।
4. कथा अनुसार एक बार भगवान विष्णु ने अत्यन्त मनोहर किशोर रूप धारण किया। उस मनोहर रूप को देखने के लिए चतुर्भुज ब्रह्मा, बहुमुख वाले शेष, सहस्त्राक्ष मुख धारण कर इन्द्र आदि देवता आए। सभी ने भगवान के इस रूप का आनंद लिया तो भगवान शिव सोचने लगे कि यदि मेरे भी अनेक मुख होते तो मैं भी अनेक नेत्रों से भगवान के इस किशोर रूप का सबसे अधिक दर्शन करता। कैलाशपति के मन में इस इच्छा के उत्पन्न होते ही वे पंचमुख हो गए।
5. भगवान शिव के पांच मुख-सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान हुए और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र बन गए। तभी से वे 'पंचानन' या 'पंचवक्त्र' कहलाने लगे। भगवान शिव के इन पंचमुख के अवतार की कथा पढ़ने और सुनने का बहुत माहात्म्य है। यह प्रसंग मनुष्य के अंदर शिव-भक्ति जाग्रत करने के साथ उसकी समस्त मनोकामनाओं को पूरी कर परम गति देने वाला है।