पितृ पक्ष में सनातन विधि से करें श्राद्ध-तर्पण, पितर होंगे प्रसन्न...

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* पितर होंगे तृप्त, तभी संभव है धन, सुख-समृद्धि... 
 
'श्रद्धया दीयते यत्‌ तत्‌ श्राद्धम्‌' पितरों की तृप्ति के लिए जो सनातन विधि से जो कर्म किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं। किसी भी कर्म को यदि श्रद्धा और विश्वास से नहीं किया जाता तो वह निष्फल होता है। 
 
महर्षि पाराशर का मत है कि देश-काल के अनुसार यज्ञ पात्र में हवन आदि के द्वारा, तिल, जौ, कुशा तथा मंत्रों से परिपूर्ण कर्म श्राद्ध होता है। इस प्रकार किया जाने वाला यह पितृ यज्ञ कर्ता के सांसारिक जीवन को सुखमय बनाने के साथ परलोक भी सुधारता है। साथ ही जिस दिव्य आत्मा का श्राद्ध किया जाता है उसे तृप्ति एवं कर्म बंधनों से मुक्ति भी मिल जाती है।
 
अनेक धर्मग्रंथों के अनुसार नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण पांच प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं जिनमें प्रतिदिन पितृ और ऋषि तर्पण आदि द्वारा किया जाने वाला श्राद्ध नित्य श्राद्ध कहलाता है। इसमें केवल जल प्रदान करने से भी कर्म की पूर्ति हो जाती है।

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इसी प्रकार, एकोद्दिष्ट श्राद्ध को नैमित्तिक, किसी कामना की पूर्ति हेतु काम्य श्राद्ध, पुत्र प्राप्ति, विवाह आदि मांगलिक कार्यों में जिनसे कुल वृद्धि होती है, के पूजन के साथ पितरों को प्रसन्न करने के लिए वृद्धि श्राद्ध किया जाता है जिसे नान्दी श्राद्ध भी कहते हैं। इसके अलावा पुण्यतिथि, अमावस्या अथवा पितृ पक्ष (महालय) में किया जाने वाला श्राद्ध कर्म पार्वण श्राद्ध कहलाता है।
 
भादों की पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक के सोलह दिन पितरों की जागृति के दिन होते हैं जिसमें पितर देवलोक से चलकर पृथ्वी की परिधि में सूक्ष्म रूप में उपस्थित हो जाते हैं तथा भोज्य पदार्थ एवं जल को अपने वंशजों से श्रद्धा रूप में स्वीकार करते हैं। आज के प्रगतिवादी युग में प्रायः लोगों के पास इस विज्ञान के रहस्य को जानने की अपेक्षा नकारने की हठधार्मिता ज्यादा दिखाई देती है।

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यदि हम विचार करें तो सामान्य सांसारिक व्यवहारों में भी दावत या पार्टियों में इष्ट मित्रों की उपस्थिति से कितनी प्रसन्नता होती है। यदि हम अपने पूर्वजों की स्मृति में वर्ष में एक-दो बार श्रद्धा पर्व मनाते हुए स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों का पितृ प्रसाद मिल बांट कर खाएं तो उससे जो आत्मीय सुख प्राप्त होता है वह शायद मौज-मस्ती के निमित्त की गई पार्टियों से कहीं आगे होगा।
 
कुछ लोग यह भी सोचते होंगे कि श्राद्ध में प्रदान की गई अन्न, जल, वस्तुएं आदि सामग्री पितरों को कैसे प्राप्त होती होगी। यहां यह भी तर्क दिया जाता है कि कर्मगति के अनुसार जीव को अलग-अलग गतियां प्राप्त होती हैं। कोई देव बनता है तो कोई पितर, कोई प्रेत तो कोई पशु पक्षी। अतः श्राद्ध में दिए गए पिण्डदान एवं एक धारा जल से कैसे कोई तृप्त होता होगा?
 
इन प्रश्नों के उत्तर हमारे शास्त्रों में सूक्ष्म दृष्टि से दिए गए हैं। 'नाम गोत्र के आश्रय से विश्वदेव एवं अग्निमुख हवन किए गए पदार्थ आदि दिव्य पितर ग्रास को पितरों को प्राप्त कराते हैं। यदि पूर्वज देव योनि को प्राप्त हो गए हों तो अर्पित किया गया अन्न-जल वहां अमृत कण के रूप में प्राप्त होगा क्योंकि देवता केवल अमृत पान करते हैं।
 
पूर्वज मनुष्य योनि में गए हों तो उन्हें अन्न के रूप में तथा पशु योनि में घास-तृण के रूप में पदार्थ की प्राप्ति होगी। सर्प आदि योनियों में वायु रूप में, यक्ष योनियों में जल आदि पेय पदार्थों के रूप में उन्हें श्राद्ध पर्व पर अर्पित पदार्थों का तत्व प्राप्त होगा।
 
श्राद्ध पर अर्पण किए गए भोजन एवं तर्पण का जल उन्हें उसी रूप में प्राप्त होगा जिस योनि में जो उनके लिए तृप्ति कर वस्तु पदार्थ परमात्मा ने बनाए हैं। साथ ही वेद मंत्रों की इतनी शक्ति होती है कि जिस प्रकार गायों के झुंड में अपनी माता को बछड़ा खोज लेता है उसी प्रकार वेद मंत्रों की शक्ति के प्रभाव से श्रद्धा से अर्पण की गई वस्तु या पदार्थ पितरों को प्राप्त हो जाते हैं।

वस्तुतः श्रद्धा एवं संकल्प के साथ श्राद्ध कर्म के समय प्रदान किए गए पदार्थों को भक्ति के साथ बोले गए मंत्र पितरों तक पहुंचा देते हैं।

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