तत्ववेत्ताओं ने शिव के स्वरूप को चिन्मय और उसकी सहजसिद्ध चैतन्य शक्ति के संयुक्त रूप में अनुभूत किया। सहजसिद्ध अर्थात जैसे पुष्प में गंध, वायु में स्पर्श, अग्नि में ताप आदि। चिन्मय व चैतन्यता में भी यही संबंध है। चिन्मय के बिना चैतन्यता क्रियाशील नहीं हो पाती है और चैतन्यता के अभाव में चिन्मयता अबोधगम्य हो जाता है।
चैतन्यता ही वह इक्षण शक्ति है जिसके 'इ' कार से संयुक्त होने पर 'शव' रूपेण निर्विकल्प-शांत चिन्मय 'शिव' के कल्याणकारी स्वरूप में व्यक्त हो उठता है। चिन्मय व चैतन्यता की इक्षण-शक्ति के युग्म से निरूपित हुआ शिव का यह स्वरूप ही सृष्टि का मूल कारक होने के कारण 'अर्धनारीश्वर' का पर्यायवाची बना।
कुछ अन्य तत्व ज्ञानियों में शिव के चित्शक्ति स्वरूप द्वैत भाव के प्रकारांतर विस्तार को पंचधा प्रकृति के रूप में भी स्वीकार किया। उनकी मान्यता में चित्शक्ति से चैतन्यशक्ति, उससे आनंद, इससे इच्छा, ज्ञान तथा अंतत क्रिया उद्भूत हुई। यही पांच शक्तियां प्रतीकात्मक रूप से क्रमशः शिव के पांच मुखों के रूप में अर्थात ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव व सद्योजात के नाम से विख्यात हुए।
इन्हीं से क्रमशः आनंद, विज्ञान, मन, प्राण व वाक रूपी पांच अव्यय की उत्पत्ति हुई। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली शिवरात्रि तिथि, वस्तुतः शिव और शक्ति के महामिलन का अनमोल क्षण है। इसकी प्रामाणिकता शीत से मुक्ति व वसंत के मधुमास की संधि रूप में प्रत्यक्ष अनुभव की जा सकती है।