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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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काशी विश्वनाथ : जिनके त्रिशूल पर विराजित है वाराणसी नगर

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'काशी विश्वनाथ' के दर्शन से होता है हर भय का नाश
 
भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में शामिल उत्तरप्रदेश की प्राचीन धार्मिक नगरी वाराणसी में हजारों साल पूर्व स्थापित श्री काशी विश्वनाथ मंदिर विश्वप्रसिद्ध है। हिन्दू धर्म में सर्वाधिक महत्व के इस मंदिर के बारे में कई मान्यताएं हैं। माना जाता है कि भगवान शिव ने इस 'ज्योतिर्लिंग' को स्वयं के निवास से प्रकाशपूर्ण किया है। पृथ्वी पर जितने भी भगवान शिव के स्थान हैं, वे सभी वाराणसी में भी उन्हीं के सान्निध्य में मौजूद हैं। भगवान शिव मंदर पर्वत से काशी आए तभी से उत्तम देवस्थान नदियों, वनों, पर्वतों, तीर्थों तथा द्वीपों आदि सहित काशी पहुंच गए।
 
विभिन्न ग्रंथों में मनुष्य के सर्वविध अभ्युदय के लिए काशी विश्वनाथजी के दर्शन आदि का महत्व‍ विस्ता‍रपूर्वक बताया गया है। इनके दर्शन मात्र से ही सांसारिक भयों का नाश हो जाता है और अनेक जन्मों के पाप आदि दूर हो जाते हैं।
 
काशी विश्वेश्वर लिंग ज्योतिर्लिंग है जिसके दर्शन से मनुष्य परम ज्योति को पा लेता है। सभी लिंगों के पूजन से सारे जन्म में जितना पुण्य मिलता है, उतना केवल एक ही बार श्रद्धापूर्वक किए गए 'विश्वनाथ' के दर्शन-पूजन से मिल जाता है। माना जाता है कि सैकड़ों जन्मों के पुण्य के ही फल से विश्वनाथजी के दर्शन का अवसर मिलता है। मान्यता है कि शिव के त्रिशूल की नोंक पर वाराणसी शहर बसा है। 
 
गंगा नदी के तट पर विद्यमान श्री काशी विश्वनाथ मंदिर में वैसे तो सालभर यहां श्रद्धालुओं द्वारा पूजा-अर्चना के लिए आने का सिलसिला चलता रहता है, लेकिन सावन आते ही इस मोक्षदायिनी मंदिर में देशी-विदेशी श्रद्धालुओं का जैसे सैलाब उमड़ पड़ता है।
 
विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में उपलब्ध जानकारी के मुताबिक यह सिलसिला प्राचीनकाल से चला आ रहा है। इस मंदिर में दर्शन-पूजन के लिए आने वालों में आदिशंकराचार्य, संत एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि स्वामी दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास जैसे सैकड़ों महापुरुष शामिल हैं।
 
वर्ष 1676 ई. में रीवा नरेश महाराजा भावसिंह तथा बीकानेर के राजकुमार सुजानसिंह काशी यात्रा पर आए थे। उन्होंने विश्वेश्वर के निकट ही शिवलिंगों को स्थापित किया।
 
हिन्दू वास्तुकला की यह अनमोल धरोहर इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा वर्ष 1780 ई. में बनवाई गई थी। मंदिर का निर्माण वर्ष 1780 में भाद्रपद मास कृष्ण पक्ष की अष्टमी को पूर्ण हुआ था। वर्तमान मंदिर का स्वरूप और परिसर आज मूल रूप से वैसे का वैसा ही है, जैसा कि महारानी अहिल्याबाई द्वारा वर्ष 1780 ई. में बनवाया गया होगा। पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह ने वर्ष 1853 में 1,000 किलोग्राम शुद्ध सोने से मंदिर के शिखरों को स्वर्ण मंडित किया जिसका स्वरूप आज भी विद्यमान है।
 
मोक्ष लक्ष्मीविलास मंदिर के ही समान इस मंदिर में 5 मंडप बनाने का प्रयत्न किया गया लेकिन विश्वनाथजी के कोने में होने के कारण पूर्व दिशा में मंडप नहीं बन पाया। यही वजह है कि पूर्व दिशा में मंदिर का विस्तार किया गया है। इस विस्तृत प्रांगण में दोनों ओर शाला मंडप निर्मित हैं। हालांकि उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा मंदिर परिसर का विस्तार किया जा रहा है। मंदिर के शिखर पर जहां तक स्वर्णमंडन हुआ है, उसके नीचे के भाग को भी स्वर्णमंडित किए जाने का प्रयत्न वर्तमान मंदिर प्रशासन द्वारा किया जा रहा है।
 
श्रुति स्मृति इतिहास तथा पुराणादि के अनुसार काशी सकल ब्रह्मांड के देवताओं की निवास स्थली है, जो शिव को अत्यंत प्रिय है। काशी में शिव के अनेकानेक रूप विग्रह, लिंग आदि की पूजा-अर्चना की जाती है।
 
शिवपुराण के अनुसार काशी में देवाधिदेव विश्वनाथजी का पूजन-अर्चन सर्व पापनाशक, अनंत अभ्युदयकारक, संसाररूपी दावाग्नि से दग्ध जीवरूपी वृक्ष के लिए अमृत तथा भवसागर में पड़े प्राणियों के लिए मोक्षदायक माना जाता है। 
 
ऐसी मान्यता है कि वाराणसी में मनुष्य के देहावसान पर स्वयं महादेव उसे मुक्तिदायक तारक मंत्र का उपदेश करते हैं। पौराणिक मान्यता है कि काशी में लगभग 511 शिवालय प्रतिष्ठित थे। इनमें से 12 स्वयंभू शिवलिंग, 46 देवताओं द्वारा, 47 ऋषियों द्वारा, 7 ग्रहों द्वारा, 40 गणों द्वारा तथा 294 अन्य‍ श्रेष्ठ शिवभक्तों द्वारा स्थापित किए गए हैं।
 
काशी या वाराणसी भगवान शिव की राजधानी मानी जाती है इसलिए अत्यंत महिमामयी भी है। अविमुक्त क्षेत्र, गौरीमुख, त्रिकंटक विराजित, महाश्मशान तथा आनंद वन प्रभृति नामों से मंडित होकर गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों वाली है। 

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