सांईं बाबा के पास एक ईंट हमेशा रहती थी। वे उस ईंट पर ही सिर रखकर सोते थे। उसे ही उन्होंने अपना तकिया बनाकर रखा था। दरअसल, यह ईंट उस वक्त की है, जब सांईं बाबा वैंकुशा के आश्रम में पढ़ते थे। वैकुंशा के दूसरे शिष्य सांईं बाबा से वैर रखते थे, लेकिन वैंकुशा के मन में बाबा के प्रति प्रेम बढ़ता गया और एक दिन उन्होंने अपनी मृत्यु के पूर्व बाबा को अपनी सारी शक्तियां दे दीं और वे बाबा को एक जंगल में ले गए, जहां उन्होंने पंचाग्नि तपस्या की। वहां से लौटते वक्त कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोग सांईं बाबा पर ईट-पत्थर फेंकने लगे।
बाबा को बचाने के लिए वैंकुशा सामने आ गए तो उनके सिर पर एक ईंट लगी। वैंकुशा के सिर से खून निकलने लगा। बाबा ने तुरंत ही कपड़े से उस खून को साफ किया। वैंकुशा ने वहीं कपड़ा बाबा के सिर पर तीन लपेटे लेकर बांध दिया और कहा कि ये तीन लपेटे संसार से मुक्त होने और ज्ञान व सुरक्षा के हैं। जिस ईंट से चोट लगी थी, बाबा ने उसे उठाकर अपनी झोली में रख लिया। इसके बाद बाबा ने जीवनभर इस ईंट को ही अपना सिरहाना बनाए रखा।
सन् 1918 ई. के सितंबर माह में दशहरे से कुछ दिन पूर्व मस्जिद की सफाई करते समय बाबा के एक भक्त माधव फासले के हाथ से गिरकर वह ईंट टूट गई। द्वारकामाई में उपस्थित भक्तगण स्तब्ध रह गए। सांईं बाबा ने भिक्षा से लौटकर जब उस टूटी हुई ईंट को देखा तो वे मुस्कुराकर बोले- 'यह ईंट मेरी जीवनसंगिनी थी। अब यह टूट गई है तो समझ लो कि मेरा समय भी पूरा हो गया।' बाबा तब से अपनी महासमाधि की तैयारी करने लगे।
हालांकि यह भी कहा जाता है कि दशहरे के कुछ दिन पहले ही सांईं बाबा ने अपने एक भक्त रामचन्द्र पाटिल को दशहरे पर 'तात्या' की मृत्यु की बात कही थी। तात्या बैजाबाई के पुत्र थे और बैजाबाई सांईं बाबा की परम भक्त थीं। तात्या, सांईं बाबा को 'मामा' कहकर संबोधित करते थे। सांईं बाबा ने तात्या को जीवनदान देने का निर्णय लिया और उन्होंने तात्या की जगह खुद के शरीर का बलिदान दे दिया।