ऐसी मान्यता है कि हिन्दू देवी-देवताओं की संख्या 33 या 36 करोड़ है। वेदों में देवताओं की संख्या 33 कोटि बताई गई है। कोटि का अर्थ प्रकार होता है जिसे लोगों ने या बताने वाले पंडितों ने 33 करोड़ कर दिया। यह भ्रम आज तक जारी है। देवी और देवताओं को परमेश्वर ने प्रकाश से बनाया है और प्रमुख रूप से इनके 33 प्रकार हैं। ये सभी ईश्वर के लिए संपूर्ण ब्रह्मांड में कार्य करते हैं। देवताओं को इस्लाम में फरिश्ते और ईसाई धर्म में एंजेल कहते हैं।
प्रमुख 33 देवता ये हैं:- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवी और देवता होते हैं। कुछ लोग इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। 12 आदित्यों में से एक विष्णु हैं और 11 रुद्रों में से एक शिव हैं। उक्त सभी देवताओं को परमेश्वर ने अलग-अलग कार्य सौंप रखे हैं।
कौन थे 8 वसु? : 'वसु' शब्द का अर्थ 'वसने वाला' या 'वासी' है। धरती को वसुंधरा भी कहते हैं। 8 पदार्थों की तरह ही 8 वसु हैं। इन्हें 'अष्ट वसु' भी कहते हैं। इन आठों देवभाइयों को इन्द्र और विष्णु का रक्षक देव माना जाता है। सभी का जन्म दक्ष कन्या और धर्म की पत्नी वसु से हुआ है। दक्ष कन्याओं में से एक सती भी थी, जो शिव की पत्नी थीं। सती ने दूसरा जन्म पार्वती के रूप में लिया था।
स्कंद पुराण के अनुसार महिषासुर मर्दिनी दुर्गा के हाथों की अंगुलियों की सृष्टि अष्ट वसुओं के ही तेज से हुई थी। रामायण में वसुओं को अदिति पुत्र कहा गया है। हालांकि यह शोध का विषय भी है।
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आठ वसुओं के नाम : वेद और पुराणों में इनके अलग-अलग नाम मिलते हैं। स्कंद, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में 8 वसुओं के नाम इस प्रकार हैं:- 1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष।
भागवत पुराण के अनुसार- द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। महाभारत में आप (अप्) के स्थान में 'अह:' और शिवपुराण में 'अयज' नाम दिया है। ऋग्वेद के अनुसार ये पृथ्वीवासी देवता हैं और अग्नि इनके नायक हैं। तैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में इनकी संख्या क्रमश: 333 और 12 है।
प्रकृति से संबंध : धर धरती के देव हैं, अनल अग्नि के देव है, अनिल वायु के देव हैं, आप अंतरिक्ष के देव हैं, द्यौस या प्रभाष आकाश के देव हैं, सोम चंद्रमास के देव हैं, ध्रुव नक्षत्रों के देव हैं, प्रत्यूष या आदित्य सूर्य के देव हैं।
वसुओं का इतिहास : जालंधर दैत्य के अनुचर शुंभ को वसुओं ने ही मारा था। पद्मपुराण के अनुसार वसुगण दक्ष के यज्ञ में उपस्थित थे और हिरण्याक्ष के विरुद्ध युद्ध में इन्द्र की ओर से लड़े थे। भागवत में कालकेयों से इनके युद्ध का वर्णन है।
एक कथा के अनुसार पितृशाप के कारण एक बार वसुओं को गर्भवास भुगतना पड़ा, फलस्वरूप उन्होंने नर्मदातीर जाकर 12 वर्षों तक घोर तपस्या की। तपस्या के बाद भगवान शंकर ने इन्हें वरदान दिया। तदनंतर वसुओं ने वही शिवलिंग स्थापित करके स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया।
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वसुओं की उत्पत्ति की कथा : 8 वसुओं में सबसे छोटे वसु 'द्यो' ने एक दिन वशिष्ठ की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लिया था। वशिष्ठ को जब पता चला तो उन्होंने आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। वसुओं के क्षमा मांगने पर वशिष्ट ने 7 वसुओं के शाप की अवधि केवल 1 वर्ष कर दी।
'द्यो' नाम के वसु ने अपनी पत्नी के बहकावे में आकर उनकी धेनु का अपहरण किया था अत: उन्हें दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में रहने तथा संतान उत्पन्न न करने, महान विद्वान और वीर होने तथा स्त्री-भोग परित्यागी होने को कहा। इसी शाप के अनुसार इनका जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ। 7 को गंगा ने जल में फेंक दिया, 8वें भीष्म थे जिन्हें बचा लिया गया था। लेकिन इससे इतर भी उनकी मनुष्य योनि में जन्म से पूर्व की कथा प्राचीन है।
क्या वसु आठ प्रकार की ध्वनियों का नाम है...
संस्कृत विद्वानों के अनुसार सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग-अलग निकलती हैं। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गईं। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। इस तरह सूर्य की जब 9 रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनकी पृथ्वी के 8 वसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की 9 रश्मियां और पृथ्वी के 8 वसुओं के आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं, वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गईं। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित हैं।
इसी वैज्ञानिक आधार पर कुछ विद्वान मानते हैं कि मूलत: 36 देवता हैं और कुल मिलाकर 108...। लेकिन इतिहास के जानकारों का कहना है कि हमारे पूर्वजों ने अनाम सितारों और अन्य प्राकृतिक शक्तियों को अपने समय के महान लोगों का नाम दिया, इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है, जैसे ध्रुव नाम से एक विष्णु भक्त थे और उसकी भक्ति के चलते ही एक तारे का नाम ध्रुव रखा गया। तो उस काल के खगोलशास्त्रियों ने जब तारों, नक्षत्रों, राशियों और ग्रहों का नामकरण करना शुरू किया और उनका आपस में संबंध बताना शुरू किया तो उन्होंने अपने ही काल के महान लोगों के नाम पर उनका नाम रखा।