धार्मिक परंपरा के दो मार्ग, जानकर रह जाएंगे हैरान

अनिरुद्ध जोशी
दुनिया में दो ही तरह के धर्मों में प्राचीनकाल से झगड़ा होता आया है। एक वे लोग जो ईश्वर को निराकार मानते हैं और दूसरे वे लोग जो निराकार और साकार दोनों ही मानकर ईश्वर की पूजा करते हैं। एक वे लोग जो सूर्य की गति पर आधारित अपने नियमों को बनाते हैं और दूसरे वे चंद्र की गति के आधार पर अपने धार्मिक नियम बनाते हैं। प्राचीनकाल में इस तरह के लोगों सुर और असुर कहा जाता था जिनका भिन्न‍ भिन्न स्थानों पर अलग अलग नाम था। कालांतर में इनके नाम बदलते रहे हैं।
 
 
भारत में एक ऐसे लोग जो देवताओं के गुरु बृहस्पति के धर्म को मानते हैं और दूसरे वे लोग जो दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य के धर्म को मानते आए हैं। उक्त दोनों से ही वैष्णव और शैव धर्म का जन्म हुआ और बाद में स्मार्त, शाक्त, नाथ, दसनामी, ब्रह्म, रामभक्त, बरकरी, विश्नोई, वीरशैव, लिंगायत आदि अनेके संप्रदायों का जन्म हुआ। हालांकि ये सभी सनातन हिन्दू धर्म के अंग हैं।
 
 
देवता और असुरों की लड़ाई जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षे‍त्र में 12 बार हुई। देवताओं की ओर गंधर्व और यक्ष होते थे, तो दैत्यों की और दानव और राक्षस। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पुत्र राजा बलि के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। बाद में विष्णु ने वामन रूप धारण कर राजा बालि से तीन पग धरती मांग ली थी जिसके चलते देवताओं को फिर से उनका स्वर्ग मिल गया और बालि को विष्णु ने पाताल का राजा बना दिया। तब शुक्राचार्य को भी बालि के साथ पाताल जाना पड़ा।
 
 
देवधर्मी : देव धर्म के लोग सूर्य को प्रमुख देव और रविवार व गुरुवार को अपना सर्वश्रेष्ठ दिन मानते हैं। शुक्ल पक्ष में ही उनके धार्मिक कार्य होते हैं। उत्तरायण जब प्रारंभ होता है तब देवता जाग्रत हो जाते हैं। जब देवता जाग्रत रहते हैं तभी मांगलिक उत्सव शुरू होते हैं। हालांकि चंद्रमास अनुसार देवउठनी और देवशयनी का महत्व भी है।
 
एकादशी प्रमुख व्रत और कार्तिक प्रमुख माह है। वे सभी सौरमास के आधार पर चलते हैं। शाकाहार ही उनका भोजन है और चातुर्मास करते हैं। देवधर्मी लोग रात्रि में कोई भी मांगलिक या धार्मिक कार्य नहीं करते हैं। वे रात्रि में किसी भी देव की पूजा या आराधना भी नहीं करते हैं। वे सिर्फ संध्यावंदन करते हैं। प्रात: और शाम की संध्‍या ही प्रमुख हैं। वे ऋग्वेदी और यजुर्वेदी होते हैं। उनका प्रमुख मंत्र गायत्री है और प्रमुख देव विष्णु है।
 
 
प्रमुख देवता : इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान, मित्र, आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष, प्रभाष, अश्विनीकुमार आदि।
 
देवगुरु : महाभारत के आदिपर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। महर्षि अंगिरा की पत्नी अपने कर्मदोष से मृतवत्सा हुईं। प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी ने उनसे पुंसवन व्रत करने को कहा। सनत्कुमार से व्रत-विधि जानकर मुनि-पत्नी ने व्रत के द्वारा भगवान को संतुष्ट किया। भगवान विष्णु की कृपा से प्रतिभा के अधिष्ठाता बृहस्पतिजी उनको पुत्र रूप में प्राप्त हुए। 
 
बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी। देवगुरु बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से 7 कन्याएं उत्पन्न हुईं- भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। तारा से 7 पुत्र तथा 1 कन्या उत्पन्न हुईं। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक 2 पुत्र उत्पन्न हुए। बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं और वे खुद भगवान विष्णु के भक्त हैं, लेकिन वे ब्रह्मवादी हैं।
 
------
असुर धर्मी : दैत्य या असुर धर्म के लोग चन्द्र को प्रमुख देव और सोमवार व शुक्रवार को अपना सर्वश्रेष्ठ दिन मानते हैं। चन्द्रमास के आधार पर ही उनके धार्मिक कार्य आयोजित होते हैं। अधिकतर ये लोग रात्रि के उत्सव मनाते हैं। रात्रि के क्रियाकांड में विश्वास रखते हैं। इनमें से बहुत से ऐकेश्वरवादी और निराकार ईश्वर की आराधना करते हैं और बहुत से तरह तरह के स्थानीय देवी और देवताओं को पूजते हैं। ये सामवेदी और अथर्ववेदी होते हैं। उनका प्रमुख मंत्र है महामृत्युंजय और प्रमुख देव शिव है।
 
 
दूज, चतुर्थी और प्रदोष प्रमुख व्रत और श्रावण प्रमुख मास है। मांसाहार से कोई परहेज नहीं। दानव और राक्षस भी असुरों की ओर से हैं। भगवान शिव ने ही अनाथ राक्षस सुकेश को पाला था और उसके कुल में ही रावण हुआ था।
 
असुरगुरु : असुरों के पुरोहित शुक्राचार्य भगवान शिव के भक्त थे। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। आचार्य शुक्राचार्य शुक्र नीतिशास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है। इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे। आरंभ में इन्होंने अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वे अपने पुत्र के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने शंकर की आराधना कर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।

सम्बंधित जानकारी

Show comments
सभी देखें

ज़रूर पढ़ें

परीक्षा में सफलता के लिए स्टडी का चयन करते समय इन टिप्स का रखें ध्यान

Shani Gochar 2025: शनि ग्रह मीन राशि में जाकर करेंगे चांदी का पाया धारण, ये 3 राशियां होंगी मालामाल

2025 predictions: वर्ष 2025 में आएगी सबसे बड़ी सुनामी या बड़ा भूकंप?

Saptahik Panchang : नवंबर 2024 के अंतिम सप्ताह के शुभ मुहूर्त, जानें 25-01 दिसंबर 2024 तक

Budh vakri 2024: बुध वृश्चिक में वक्री, 3 राशियों को रहना होगा सतर्क

सभी देखें

धर्म संसार

Saturn dhaiya 2025 वर्ष 2025 में किस राशि पर रहेगी शनि की ढय्या और कौन होगा इससे मुक्त

Yearly Horoscope 2025: वर्ष 2025 में 12 राशियों का संपूर्ण भविष्‍यफल, जानें एक क्लिक पर

Mesh Rashi Varshik rashifal 2025 in hindi: मेष राशि 2025 राशिफल: कैसा रहेगा नया साल, जानिए भविष्‍यफल और अचूक उपाय

Vrishabha Rashi Varshik rashifal 2025 in hindi: वृषभ राशि 2025 राशिफल: कैसा रहेगा नया साल, जानिए भविष्‍यफल और अचूक उपाय

Mithun Rashi Varshik rashifal 2025 in hindi: मिथुन राशि 2025 राशिफल: कैसा रहेगा नया साल, जानिए भविष्‍यफल और अचूक उपाय

अगला लेख
More