हिन्दू सनातन धर्म में पार्थिव शरीर को सूर्यास्त से पूर्व दाह संस्कार करने का नियम है। सनातन धर्म में साधु को समाधि और सामान्यजनों का दाह संस्कार किया जाता है। इसके पीछे कई कारण हैं। साधु को समाधि इसलिए दी जाती है क्योंकि ध्यान और साधना से उसका शरीर एक विशेष उर्जा और ओरा लिए हुए होता है इसलिए उसकी शारीरिक ऊर्जा को प्राकृतिक रूप से विसरित होने दिया जाता है जबकि आम व्यक्ति को इसलिए दाह किया जाता है क्योंकि यदि उसकी अपने शरीर के प्रति आसक्ति बची हो तो वह छूट जाए और दूसरा यह कि दाह संस्कार करने से यदि किसी भी प्रकार का रोग या संक्रमण हो तो वह नष्ट हो जाए। बाद में बची हुई राख या हड्डी को किसी नदी में विसर्जित कर दिया जाता है।
रीति और नियम जरूरी : गरुड़ पुराण के अनुसार, उक्त सभी कार्यों को करने की विशेष रीति और नियम होते हैं। रीति और नियम से किए गए कार्य से ही आत्मा को शांति मिलती है और अगले जन्म अर्थात नए शरीर में उसके प्रवेश के द्वार खुलते हैं या वह स्वर्ग में चला जाता है। हिन्दुओं में साधु-संतों और बच्चों को दफनाया जाता है जबकि सामान्य व्यक्ति का दाह संस्कार किया जाता है। उदाहरण के लिए गोसाईं, नाथ और बैरागी संत समाज के लोग अपने मृतकों को आज भी समाधि देते हैं। दोनों ही तरीके यदि वैदिक रीति और सभ्यता से किए जाएं तो उचित हैं।
अंतिम संस्कार में शामिल होना जरूरी : अंतिम संस्कार में शामिल होना पुण्य कर्म है। जिस घर में किसी का देहांत हुआ है, उस घर से 100 गज दूर तक के घरों के लोगों को अंतिम संस्कार में शामिल होना चाहिए। अंतिम संस्कार में शामिल होकर प्रत्येक सक्षम व्यक्ति को कंधा देना भी जरूरी बताया गया है।
पार्थिव शरीर की परिक्रमा का नियम : श्मशान ले जाने से पूर्व घर पर कुटुंब के लोग मृत व्यक्ति के पार्थिव शरीर की परिक्रमा करते हैं। बाद में दाह संस्कार के समय संस्कार करने वाला व्यक्ति छेद वाले घड़े में जल लेकर चिता पर रखे पार्थिव शरीर की परिक्रमा करता है। जिसके अंत में पीछे की ओर घड़े को गिराकर फोड़ दिया जाता है। ऐसा मृत व्यक्ति के शरीर से मोहभंग करने के लिए किया जाता है। हालांकि इस क्रिया को सभी तत्वों को शामिल करने के लिए ऐसा किया जाता है और इसके पीछे और भी कारण हैं। दरअसल, इसका एक अर्थ यह भी है कि हमारा जीवन उस छेद रूपी घड़े के समान है, जिसमें आयु रूपी पानी हर पल गिरते हुए कम हो रहा है और जिसके अंत में सबकुछ छोड़कर जीवात्मा के परमात्मा में लीन होने का समय आ जाता है।
दिशा ज्ञान जरूरी : हमेशा पार्थिव शरीर को ले जाते समय उसका सिर आगे और पैर पीछे रखे जाते हैं। फिर विश्रांत स्थल पर मृत देह को एक वेदी पर रखा जाता है इसलिए कि अंतिम बार व्यक्ति इस संसार को देख ले। इसके बाद देह की दिशा बदल दी जाती है। फिर पैर आगे और सिर पीछे हो जाता है अर्थात तब मृत आत्मा को श्मशान को देखते हुए आगे बढ़ना होता है। अंत में जब देह को चिता पर लेटाया जाता है तो उसका सिर चिता पर दक्षिण दिशा की ओर रखते हैं।
दरअसल शास्त्रों के अनुसार, मरणासन्न व्यक्ति का सिर उत्तर की ओर और मृत्यु पश्चात दाह संस्कार के समय उसका सिर दक्षिण की तरफ रखना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि यदि किसी व्यक्ति के प्राण निकलने में कष्ट हो तो मस्तिष्क को उत्तर दिशा की ओर रखने से गुरुत्वाकर्षण के कारण प्राण शीघ्र और कम कष्ट से निकलते हैं। वहीं मृत्यु पश्चात दक्षिण की ओर सिर रखने का कारण है कि शास्त्रानुसार दक्षिण दिशा मृत्यु के देवता यमराज की है। ऐसे हम पार्थिव शरीर को मृत्यु देवता को समर्पित करते हैं।
सूर्यास्त पहले दाह संस्कार : हिंदू धर्मानुसार, सूर्यास्त के बाद कभी भी दाह संस्कार नहीं किया जाता है। यदि किसी की मृत्यु सूर्यास्त के बाद हुई है तो उसे अगले दिन सुबह के समय ही दाह संस्कार किए जाने का नियम है। ऐसी मान्यता है कि सूर्य़ास्त के बाद दाह संस्कार करने से मृतक की आत्मा को परलोक में भारी कष्ट सहना पड़ता है और अगले जन्म में उसे किसी अंग में दोष भी हो सकता है। इसके और भी कई कारण हैं।
दाह संस्कार के नियम : धर्मज्ञ मानते हैं कि अच्छी तरह से लकड़ी की चिता बनाकर मृतक को उस पर लेटाकर और पूर्ण रीति-रिवाज से दाह-संस्कार करना ही श्रेष्ठ कर्म है, अन्य तरीके से दाह-संस्कार करना धर्म विरुद्ध है। इस क्रिया को धार्मिक रीति से संपन्न करना चाहिए। मृतकों के साथ पेश किए जाने वाले तरीकों से हमारे सभ्य या असभ्य होने का पता चलता है। संपूर्ण सम्मान और आदर के साथ ही उसका दाह संस्कार किया जाना चाहिए। इस दौरान लोगों को अनुशासन में रहना चाहिए और श्मशान से जाने से पूर्व मृतक के प्रति संवेदना के दो शब्द भी कहना चाहिए। यह कितना गंभीर मुद्दा है, इसे समझना जरूरी है। वैदिक रीति को छोड़कर देशभर में अर्थी सजाने, उसे ले जाने या उसे जलाने के अजीब तरीके निर्मित हो गए हैं। हम यह नहीं कह रहे हैं कि आर्य समाज के तरीके से मृतक का दाह संस्कार किया जाए, क्योंकि वह भी उचित नहीं है। मृतक को वैदिक या पौराणिक तरीके से ही अग्निदाह देना चाहिए।
मुक्तिधाम के नियम : मुक्तिधाम या श्मशान में कई लोग हंसी-मजाक करते या किसी प्रकार की अनुचित वार्तालाप करते हैं, क्योंकि वह यह नहीं जानते हैं कि उन पर क्षेत्रज्ञ देव की नजर होती है। हंसी-मजाक करने वाला व्यक्ति यह भी नहीं जानता है कि उसे भी मरने के बाद यहीं पर लाया जाएगा, तब क्षेत्रज्ञ देव उसके साथ क्या करेंगे, यह वही जानते हैं। मुक्तिधाम यम का क्षेत्र होता है, जहां पर यमदेव की ओर से एक क्षेत्रज्ञ देव नियुक्त होते हैं। प्रत्येक क्षेत्र के क्षेत्रज्ञ देव होते हैं और सभी के अलग-अलग कार्य होते हैं।
जीव की उत्पत्ति पंच तत्वों से मिलकर हुई है। देहांत के बाद सभी तत्व अपने-अपने स्थान पर पुन: चले जाते हैं। पंचतत्वों से उसकी विदाई का क्रम गरिमामय ढंग से अपनाया और किया जाना चाहिए। पंचतत्वों के पूर्ण विधान से ही व्यक्ति की आत्मा को देह और मन के बंधन से मुक्ति मिलती है, जिसके माध्यम से वह अपने अगले जन्म की यात्रा पर निकल जाता है। अन्येष्टि कर्म और उसके बाद किए जाने वाले कर्म को सही तरीके से नहीं किए जाने से मृतक की आत्मा भटकती रहती है या वह प्रेतयोनी धारण कर लेती है। अत: उचित वैदिक या पौराणिक तरीके से अर्थी, शवयात्रा, दाह, सवा माह और श्राद्ध के नियमों का पालन करना जरूरी है। शवदाह के बाद मृतक की अस्थियां जमा की जाती हैं और उसे किसी जलस्त्रोत में, आमतौर पर गंगा में प्रवाहित की जाती हैं। जिसके बाद लगभग तेरह दिनों तक श्राद्धकर्म किया जाता है। बाद में लोग पिंडदान के लिए गया में जाकर पिंडदान की प्रक्रिया पूरी करते हैं।
मुंडन संस्कार : हिन्दू और जैन धर्म में मुंडन संस्कार 3 वक्तों पर किया जाता है : पहला- बचपन में, दूसरा- गायत्री मंत्र या दीक्षा लेते वक्त और तीसरा- किसी स्वजन की मृत्यु होने पर। इसके अलावा यज्ञादि विशेष कर्म और तीर्थ में जाकर भी मुंडन किया जाता है। दाह संस्कार के समय मृत व्यक्ति के पुरुष परिजनों के सिर मुंडाने की प्रथा चली आ रही है। मुंडन कराने के दो कारण हैं- पहला यह कि मृत व्यक्ति के प्रति श्रद्धा और सम्मान प्रकट कर उसे कम से कम तब तक याद रखना, जब तक कि मुंडन रहता है। दूसरा यह कि सभी तरह के संक्रमण से बचने के लिए शरीर को शुद्ध और साफ कर लिया जाता है। मृतक के परिवार के सभी पुरुष सदस्य और काका-बाबा में सभी को मुंडन कराना चाहिए, ताकि सूतक का असर कम हो।
पिंडदान क्यों करते हैं : दाह संस्कार के बाद तीसरा मनाते हैं, जिसे उठावना कहते हैं। इसके बाद 10वें दिन मुंडन करवाकर शांतिकर्म किया जाता है। 12वें दिन पिंडदान आदि कर्म करते हैं। तेरहवें दिन मृत्युभोज देते हैं। इसके बाद सवा महीने का कर्म होता है, फिर बरसी मनाई जाती और मृतक को श्राद्ध में शामिल कर उसकी तिथि पर श्राद्ध मनाते हैं। तीन वर्ष बाद उसका गया में पिंडदान कर उससे मुक्ति पाई जाती है।
उक्त सभी के पीछे बहुत गहरा विज्ञान छुपा हुआ है। वैज्ञानिक कहते हैं कि मृत व्यक्ति का दिमाग तीन दिन तक सक्रिय रहता है। हिन्दू धर्मानुसार, ज्यादा से ज्यादा व्यक्ति की चेतना तीन दिन में लुप्त होकर नया जन्म ले लेती है। यदि कोई बहुत ही स्मृतिवान है तो वह तेरह दिन में दूसरा जन्म ले लेता है या फिर सवा माह में। यदि आसक्ति ज्यादा है तो वर्षभर लगता, लेकिन तब तक व्यक्ति पितरों में शामिल हो जाता है। फिर उस व्यक्ति की आत्मा से छुटकारा पाने हेतु गया में उसकी मुक्ति हेतु पिंडदान किया जाता है। गरुड़ पुराणानुसार, व्यक्ति मरने के बाद ऊपर के लोक में सफर करता है, जिससे कि उसको आपके द्वारा दिए गए तर्पण से ही आगे बढ़ने की शक्ति मिलती है। गरुड़ पुराण में व्यक्ति के सफर को बहुत ही अच्छे ढंग से समझाया गया है।
क्या जरूरी है मृत्युभोज?
दाह संस्कार करने के नियम के अंतर्गत कपाल क्रिया, पिंडदान के अलावा घर की साफ-सफाई की जाती है। इसे दशगात्र के नाम से पुकारा जाता है। जिसमें एकादशगात्र को पीपल वृक्ष के नीचे पूजन, पिंडदान आदि होता है। द्वादसगात्र में गंगाजल से घर पवित्र किया जाता है। फिर त्रयोदशी को सामूहिक भोज दिया जाता है।
सामूहिक भोज के माध्यम से मृतक परिवार में लोगों का आना-जाना सामान्य रूप से प्रारंभ तो होता ही है साथ ही जो व्यक्ति उक्त कर्म में शामिल होने से रह गया हो वह भी उस दिन आकर अपनी शोक संवेदना व्यक्त करता है। साथ ही यह रीति प्राचीनकाल में इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि इसी दिन यदि घर का कोई प्रमुख गया हो तो उसकी जगह दूसरे को प्रतीकात्मक रूप से पगड़ी की रस्म द्वारा प्रमुख मान लिया जाता था। सभी रिश्तेदारों के एक जगह जुटने से मृतक परिवार को इससे हिम्मत मिलती थी और पारिवारिक एकता भी बढ़ती थी। भोज तो निमित्त होता था, लोगों को एक-दूसरे से मिलाने हेतु।
अन्य नियम गलत : जो लोग गंगा किनारे दाह संस्कार करते या करवाते हैं या जो लोग अपने मृतकों को जल दाग देते हैं, वे सभी असभ्य लोग हैं। धर्म के जानकार लोग इसे धर्म विरुद्ध मानते हैं। जल दाग देने की प्रथा भी है, जिसके चलते गंगा-यमुना में कई शव बहते हुए देखे जा सकते हैं। कुछ लोग शव को एक बड़े से पत्थर से बांधकर फिर नाव में शव को रखकर तेज बहाव व गहरे जल में ले जाकर उसे डुबो देते हैं। यह मृतकों के साथ किए जाने वाले अजीबोगरीब असभ्य तरीकों में से एक है।