भगवान परशुराम की पारिवारिक पृष्ठभूमि

अनिरुद्ध जोशी
भगवान परशुराम भृगुवंशी हैं। एक मान्यता अनुसार महर्षि भृगु का जन्म जिस समय हुआ, उस समय इनके पिता प्रचेता ब्रह्मा सुषानगर, जिसे बाद में पर्शिया कहा जाने लगा, भू-भाग के राजा थे। ब्रह्मा पद पर आसीन प्रचेता की दो 2 पत्नियां थी। पहली भृगु की माता वीरणी व दूसरी उरपुर की उर्वषी जिनके पुत्र वशिष्ठजी हुए। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी की तीन संतानें हुई। दो पुत्र च्यवन और ऋचीक तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था। 
 
च्यवन ऋषि का विवाह गुजरात के खम्भात की खाड़ी के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ऋचीक का विवाह महर्षि भृगु ने गाधिपुरी (गाजीपुर) के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि ने उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया, जो वैवस्वत मनु के पिता थे।
 
महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ॠषि ॠचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र, महाभारतकाल के वीर योद्धाओं भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले गुरु, शस्त्र एवं शास्त्र के धनी ॠषि परशुराम का जीवन संघर्ष और विवादों से भरा रहा है। परशुराम योग, वेद और नीति में पारंगत थे। ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी वे पारंगत थे। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की। कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
 
 
इनके पिता का नाम जमदग्नि और माता का नाम रेणुका था। ऋचीक-सत्यवती के पुत्र जमदग्नि, जमदग्नि-रेणुका के पुत्र परशुराम थे। ऋचीक की पत्नी सत्यवती राजा गाधि (प्रसेनजित) की पुत्री और विश्वमित्र (ऋषि विश्वामित्र) की बहिन थी। परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वमित्र और भगवान शंकर से प्राप्त हुई। 
 
परशुराम सहित जमदग्नि के 5 पुत्र थे- रुमण्वान, सुषेण, वसु, विश्वावसु तथा पांचवें पुत्र का नाम परशुराम था। परशुराम सबसे छोटे हैं। 
 
महर्षि भृगु का परिचय :
महर्षि भृगु के सुषानगर से भारत के धर्मारण्य में आने की पौराणिक ग्रंथों में दो कथाएं मिलती हैं। भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्यादेवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणुका के पति भगवान विष्णु में वर्चस्व की जंग छिड़ गई। इस लड़ाई में महर्षि भृगु ने पत्नी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप का साथ दिया। क्रोधित विष्णुजी ने सौतेली सास दिव्यादेवी को मार डाला। इस पारिवारिक झगड़े को आगे नहीं बढ़ने देने से रोकने के लिए भृगु मुनि को सुषानगर से बाहर चले जाने की सलाह दी गई और वे धर्मारण्य में आ गए। धर्मारण्य संभवत आज के उत्तर प्रदेश के बलिया क्षेत्र को कहते हैं। बाद में इनके वंशज गुजरात में जाकर बस गए। दो बड़ी नदियों गंगा और सरयू (घाघरा) के दोआब में बसे बलिया जिले की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक पृष्ठ्भूमि काफी समृद्ध रही है। हालांकि इस कथा पर अभी और शोध किए जाने की आवश्यकता है। यह कितनी सच यह यह बताना मुश्किल है।
 
 
दूसरी कथा : महर्षि भृगु ने सरयू नदी की जलधारा को अयोध्या से अपने शिष्य दर्दर मुनि के द्वारा बलिया में संगम कराया था। यहां स्नान की परम्परा लगभग सात हजार वर्ष पुरानी है। यहां स्नान एवं मेले को महर्षि भृगु ने प्रारम्भ किया था।
 
प्रचेता ब्रह्मा वीरणी के पुत्र महर्षि भृगु का मंदराचल पर हो रहे यज्ञ में ऋषिगणों ने त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की परीक्षा का काम सौंप दिया। इसी परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु ने क्षीर सागर में विहार कर रहे भगवान विष्णु पर पद प्रहार कर दिया। दण्ड स्वरूप महर्षि भृगु को एक दण्ड और मृगछाल देकर विमुक्त तीर्थ में विष्णु सहस्त्र नाम जप करके शाप मुक्त होने के लिए महर्षि भृगु के दादा मरीचि ऋषि ने भेजा। तब महर्षि ने यहीं तपस्या प्रारम्भ की।

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