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गण पर हावी तंत्र, जानिए पौराणिक और प्राचीन 10 रहस्य

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अनिरुद्ध जोशी

दुनिया में संभवत: ऐसा कोई संविधान नहीं है जिसमें खामियां निकाली जा सकें या जिसकी प्रशंसा नहीं की जा सकें और जिसका दुरुपयोग या सदुपयोग नहीं किया जा सकें। हर काल में गण गौण रहा है और तंत्र प्रधान रहा है। कैसे? किसी को न्याय मिलता है और किसी को न्याय नहीं मिलता है। किसी को न्याय मिलता भी है तो वह तब तक उम्मीद खो चुका होता है या कि स्वर्ग सिधार चुका होता है। ऐसे में यह कहना कि गण पर हावी है तंत्र उचित होगा?
 
 
हम संभवत: सवा सौ करोड़ देशवासी हैं। देशवासी हैं या कि भीड़ हैं? अभी तो यह प्रांत एवं जातियों में बंटी भीड़ ज्यादा नजर आती है। किसी को आरक्षण चाहिए, किसी को कर्जमाफी चाहिए तो किसी को देश से अलग होना है। दरअसल, देश की इस भीड़ को कभी भी एक राष्ट्रीय सोच में नहीं बदला गया। ऐसे में यह कहना कि भीड़तंत्र और राजनीतिज्ञों के मनमानीतंत्र के चलते कानून असफल हो रहे हैं। लोग, नेता, पुलिस और मीडिया अपनी-अपनी मनमानी करने लगे हैं। दरअसल, यह सारी गड़बड़ी वहां से प्रारंभ होती जहां गणतंत्र को वोट का आधार मान लिया गया। निश्चत ही गणतंत्र को बनाए रखने की हम सभी की जिम्मेदारी है क्योंकि गणतंत्र ही लोगों को स्वतंत्र रूप से जिने की आजादी देता है। आओ जानते हैं कि गणतंत्र के 10 पौराणिक और प्राचीन रहस्य।
 
 
प्राचीन काल में दो प्रकार के राज्य कहे गए हैं। एक राजाधीन और दूसरे गणधीन। इंद्र की अमरावती से लिच्छवियों की वैशाली तक हर काल में यह दोनों ही तरह के राज्य विद्यमान रहे हैं।
 
 
1.वैदिक काल में गणतंत्र : लोकतंत्र की अवधारणा वेदों की देन है। चारों वेदों में इस संबंध में कई सूत्र मिलते हैं और वैदिक समाज का अध्ययन करने के बाद यह और भी सत्य सिद्ध होता है।  ऋग्वेद में सभा और समिति का जिक्र मिलता है जिसमें राजा, मंत्री और विद्वानों से विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला लेता था। वैदिक काल में इंद्र का चयन भी इसी आधार पर होता था। इंद्र नाम का एक पद होता था जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था। हालांकि भारत में वैदिक काल के पतन के बाद राजतंत्रों का उदय हुआ और वे ही लंबे समय तक शासक रहे। गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में 9 बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है।
 
 
2.रामायण काल में गणतंत्र : रामायण काल में देव, असुर, राक्षस, दानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, मानव आदि के अलग-अलग राज्य हुआ करते थे। वाल्मीकि रामायण से पता चलता है कि उस काल में वैदिक व्यवस्था अपने चरम पर थी। लोग चार आश्रमों का पालन करते थे। कुटुम्ब की भावना और प्रजा की रक्षा उस काल के राजा दायित्व होते थे। रामायण काल में श्रम विभा‍जन की दृष्टि से समाज चार भागों में विभाजित था। इसमें हर वर्ण की बातों को सम्मान मिलता था। प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को आश्रम में अध्ययन करने, जीवन यापन करने और वर्ण चयन करने की छूट थी। रामायण काल में लगभग 9 महाजनपद थे जिसके अंतर्गत उप जनपद होते थे। ये नौ इस प्रकार हैं- 1.मगध, 2.अंग (बिहार), 3.अवन्ति (उज्जैन), 4.अनूप (नर्मदा तट पर महिष्मती), 5.सूरसेन (मथुरा), 6.धनीप (राजस्थान), 7.पांडय (तमिल), 8. विन्ध्य (मध्यप्रदेश) और 9.मलय (मलावार)।

 
3.महाभारत काल में गणतंत्र : महाभारत में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के सूत्र मिलते हैं। महाभारत में जरासंध और उसके सहयोगियों के राज्य को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में गणतंत्र को महत्व दिया जाता था। महाभारत काल में सैकड़ों राज्य और उनके राजा थे, जिनमें कुछ बड़े थे तो कुछ छोटे। कुछ सम्राट होने का दावा करते थे, तो कुछ तानाशाह और अत्याचारी थे। कुछ असभ्य लोगों का झुंड भी था, जिसे आमतौर पर राक्षस कहा जाता था। लेकिन जो राज्य महर्षि पराशर, महर्षि वेद व्यास जैसे लोगों की धार्मिक देशनाओं से चलता था वहां गणतांत्रिक व्यवस्था थी। महाभारत काल में अंधकवृष्णियों का संघ गणतंत्रात्मक था।

 
महाभारत काल में प्रमुखरूप से 16 महाजनपद और लगभग 200 जनपद थे। 16 महाजनपदों के नाम : 1. कुरु, 2. पंचाल, 3. शूरसेन, 4. वत्स, 5. कोशल, 6. मल्ल, 7. काशी, 8. अंग, 9. मगध, 10. वृज्जि, 11. चे‍दि, 12. मत्स्य, 13. अश्मक, 14. अवंति, 15. गांधार और 16. कंबोज। उक्त 16 महाजनपदों के अंतर्गत छोटे जनपद भी होते थे।

 
4.बौद्ध काल में गणतंत्र : महाभारत के बाद बौद्धकाल में (450 ई.पू. से 350 ई.) में भी चर्चित गणराज्य थे। जैसे पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। इसके बाद अटल, अराट, मालव और मिसोई नामक गणराज्यों का भी जिक्र किया जाता है। बौद्ध काल में वज्जी, लिच्छवी, वैशाली, बृजक, मल्लक, मदक, सोमबस्ती और कम्बोज जैसे गंणतंत्र संघ लोकतांत्रिक व्यवस्था के उदाहरण हैं। वैशाली के पहले राजा विशाल को चुनाव द्वारा चुना गया था।
 
 
भगवान महावीर और बुद्ध के समय में उत्तर पूर्वी भारत गणराज्यों का प्रधान क्षेत्र था और लिच्छवि, विदेह, शाक्य, मल्ल, कोलिय, मोरिय, बुली और भग्ग उनके मुख्य प्रतिनिधि थे। लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ (अष्टकुल) द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी। यहां का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता था। विष्णु पुराण के अनुसार यहां पर लगभग 34 राजाओं ने राज किया था। पहले नभग और अंतिम सुमति थे। राजा सुमति भगवान राम के पिता राजा दशरथ के समकालीन थे।
 
 
कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में लिखते हैं कि गणराज्य दो तरह के होते हैं, पहला अयुध्य गणराज्य अर्थात ऐसा गणराज्य जिसमें केवल राजा ही फैसले लेते हैं, दूसरा है श्रेणी गणराज्य जिसमें हर कोई भाग ले सकता है। कौटिल्य के पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। पाणिनी की अष्ठाध्यायी में
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जनपद शब्द का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया गया है, जिनकी शासनव्यवस्था जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में रहती थी। यूनान ने भारत को देखकर ही गणराज्यों की स्थापना की थी। यूनान के राजदूत मेगास्थनीज ने भी अपनी पुस्तक में क्षुद्रक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया है।

 
बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय, महावस्तु के अनुसार बौद्ध काल में ये जनपद थे- अंग, अश्मक, अवंती, चेदि, गांधार, काशी, काम्बोज, कोशल, कुरु, मगध, मल्ल, मत्स्य, पांचाल, सुरसेन, वज्जि और वत्स। इसमें अवंतिका के राजा विक्रमादित्य का राज्य सबसे बड़ा गणतांत्रिक राज्य था।.... इसके बाद राजा हर्षवर्धन तक गणतंत्र का महत्व रहा। बाद में भारत में जब अरब, तुर्क और फारस का आक्रमण बढ़ा तो परिस्थितियां बदलती गई।
 

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