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भारतीय नौसेना के झंडे में बदलाव, छत्रपति शिवाजी की मुहर का डिजाइन लिया, जानें पौराणिक तथ्य

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, शुक्रवार, 2 सितम्बर 2022 (15:45 IST)
भारतीय नौसेना में स्वदेश निर्मित विमानवाहक पोत ‘आईएनएस विक्रांत' शामिल हो गया है। वहीं भारतीय नौसेना ने अपने झंडे से गुलामी के प्रतीक लाल क्रॉस को हटा कर अब नया निशान लगाया है, जो कि छत्रपति शिवाजी महाराज की मुहर से लिया गया है। छत्रपति शिवाजी महाराज को भारतीय नौसेना का जनक माना जाता है। 
 
वरुण देव का नाम : नए फ्लैग में नीचे संस्कृत भाषा में लिखा है- 'शं नो वरुणः' अर्थात 'हमारे लिए वरुण शुभ हों'। वरुण देव को समुद्रा का देवता माना जाता है। इसलिए नेवी ने अपने नए निशान पर ये वाक्य लिखा गया है। हिन्दू ग्रन्थों में अदिति के पुत्र वरुण देव को समुद्र का देवता माना गया है। ऋग्वेद के अनुसार वरुण देव सागर के सभी मार्गों के ज्ञाता हैं।
 
पौराणिक काल में नौका : भारत तीन ओर से समुद्र से घिरा हुआ है। प्राचीन भारतीय लोगों ने समुद्र में यात्रा करने के लिए सर्वप्रथम नौका का निर्माण किया था। वैदिक युग के जन साधारण की छवि नाविकों की है जो सरस्वती घाटी सभ्यता के ऐतिहासिक अवशेषों के साथ मेल खाती है। भारत में नौवहन की कला और नौवहन का जन्‍म 6,000 वर्ष पहले सिंध नदी में हुआ था। अंग्रेजी शब्द नेवीगेशन का उदग्म संस्कृत शब्द नवगति से हुआ है। नेवी शब्द नौ से निकला है। दुनिया का सबसे पहला नौवहन संस्‍कृ‍त शब्‍द नवगति से उत्‍पन्‍न हुआ है। शब्‍द नौसेना भी संस्‍कृत शब्‍द नोउ से हुआ।
 
 
ऋग्वेद में नौका द्वारा समुद्र पार करने के कई उल्लेख मिलते हैं। एक सौ नाविकों द्वारा बड़े जहाज को खेने का उल्लेख भी मिलता है। ऋग्वेद में सागर मार्ग से व्यापार के साथ-साथ भारत के दोनों महासागरों (पूर्वी तथा पश्चिमी) का उल्लेख है जिन्हें आज बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर कहा जाता है। अथर्ववेद में ऐसी नौकाओं का उल्लेख है जो सुरक्षित, विस्तारित तथा आरामदायक भी थीं।
 
 
ऋग्वेद में सरस्वती नदी को ‘हिरण्यवर्तनी’ (सु्वर्ण मार्ग) तथा सिन्धु नदी को ‘हिरण्यमयी’ (स्वर्णमयी) कहा गया है। सरस्वती क्षेत्र से सुवर्ण धातु निकाला जाता था और उस का निर्यात होता था। इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का निर्यात भी होता था। भारत के लोग समुद्र के मार्ग से मिस्र के साथ इराक के माध्यम से व्यापार करते थे। तीसरी शताब्दी में भारतीय मलय देशों (मलाया) तथा हिन्द चीनी देशों को घोड़ों का निर्यात भी समुद्री मार्ग से करते थे। कहते हैं कि गुजरात के राजा ने वास्को डि गामा को एक जहाज बनवाकर दिया था।
 
 
संस्कृत ग्रंथ ‘युक्तिकल्पत्रु’ में नौका निर्माण का ज्ञान है। इसी का चित्रण अजन्ता गुफाओं में भी विध्यमान है। इस ग्रंथ में नौका निर्माण की विस्तृत जानकारी मिलती है। जैसे, किस प्रकार की लकड़ी का प्रयोग किया जाए, उन का आकार और डिजाइन कैसा हो, उसको किस प्रकार सजाया जाए ताकि यात्रियों को अत्याधिक आराम हो। युक्तिकल्पत्रु में जलवाहनों की वर्गीकृत श्रेणियां भी निर्धारित की गई हैं।
 
 
जहाज का आविष्कार : कुछ विद्वानों का मत है कि भारत और शत्तेल अरब की खाड़ी तथा फरात (Euphrates) नदी पर बसे प्राचीन खल्द (Chaldea) देश के बीच ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व जहाजों से आवागमन होता था। भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में जहाज और समुद्रयात्रा के अनेक उल्लेख है (ऋक् 1. 25. 7, 1. 48. 3, 1. 56. 2, 7. 88. 3-4 इत्यादि)। याज्ञवल्क्य सहिता, मार्कंडेय तथा अन्य पुराणों में भी अनेक स्थलों पर जहाजों तथा समुद्रयात्रा संबंधित कथाएं और वार्ताएं हैं। मनुसंहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है।
 
 
ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी में भारत अभियान से लौटते समय सिंकदर महान् के सेनापति निआर्कस (Nearchus) ने अपनी सेना को समुद्रमार्ग से स्वदेश भेजने के लिये भारतीय जहाजों का बेड़ा एकत्रित किया था। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में निर्मित सांची स्तूप के पूर्व तथा पश्चिमी द्वारों पर अन्य मूर्तियों के मध्य जहाजों की प्रतिकृतियां भी हैं।
 
भारतवासी जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करते थे, यह ज्ञात वैदिक साहित्य में तुग्र ऋषि के उपाख्यान से, रामायण में कैवर्तों की कथा से तथा लोकसाहित्य में रघु की दिग्विजय से स्पष्ट हो जाती है। भारत में सिंधु, गंगा, सरस्वती और ब्रह्मपुत्र ऐसी नदियां हैं जिस पर पौराणिक काल में नौका, जहाज आदि के चलने का उल्लेख मिलता है।
 
 
रामायण काल और नाव : पहली बार भारत ने ही नदी में नाव और समुद्र में जहाजों को उतारा था। रामायण के अनुसार रावण के पास वायुयानों के साथ ही कई समुद्र जलपोत भी थे।
 
 
रामायण में केवट प्रसंग आता है। राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। भगवान श्रीकृष्ण का अपने सखा और बलराम के साथ सरस्वती नदी में नौका के माध्यम से मथुरा से द्वारिका पहुंचने का उल्लेख मिलता है।

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