मथुरा अंधक संघ की राजधानी थी और द्वारिका वृष्णियों की। ये दोनों ही यदुवंश की शाखाएं थीं। यदुवंश में अंधक, वृष्णि, माधव, यादव आदि वंश चला। श्रीकृष्ण वृष्णि वंश से थे। वृष्णि ही 'वार्ष्णेय' कहलाए, जो बाद में वैष्णव हो गए। भगवान श्रीकृष्ण के पूर्वज महाराजा यदु थे। यदु के पिता का नाम ययाति था। ययाति प्रजापति ब्रह्मा की 10वीं पीढ़ी में हुए थे। ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुहु। इन्हें वेदों में पंचनद कहा गया है।
पुराणों में उल्लेख है कि ययाति अपने बड़े लड़के यदु से रुष्ट हो गए थे और उसे शाप दिया था कि यदु या उसके लड़कों को कभी राजपद प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा। ययाति सबसे छोटे बेटे पुरु को बहुत अधिक चाहते थे और उसी को उन्होंने राज्य देने का विचार प्रकट किया, परंतु राजा के सभासदों ने ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए इस कार्य का विरोध किया।
यदु ने पुरु पक्ष का समर्थन किया और स्वयं राज्य लेने से इंकार कर दिया। इस पर पुरु को राजा घोषित किया गया और वह प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक हुआ। उसके वंशज पौरव कहलाए। कहते हैं कि यदु के बाद अधिकतर यदुओं को कभी भी उस काल में राज्य का सुख हासिल नहीं हुआ। उनके वंशज के लोग एक स्थान से दूसरे स्थान को भटकते रहे और उनको हर जगह से पलायन ही करना पड़ा। वे जहां भी गए उन्होंने एक नया नगर बसाया और अंतत: उस नगर का विध्वंस हो गया या कर दिया गया।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यदु ने राज्य को छोड़ने के बाद समुद्र के किनारे अपनी नगरी को बसाया था। यह भी कहा जाता है कि ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पश्चिम में पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुहु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भू-मंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए। ययाति के राज्य का क्षेत्र अफगानिस्तान के हिन्दूकुश से लेकर असम तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक था।
यदु के कुल में भगवान कृष्ण हुए। यदु के 4 पुत्र थे- सहस्रजीत, क्रोष्टा, नल और रिपुं। सहस्रजीत से शतजीत का जन्म हुआ। शतजीत के 3 पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय से धर्म, धर्म से नेत्र, नेत्र से कुन्ति, कुन्ति से सोहंजि, सोहंजि से महिष्मान और महिष्मान से भद्रसेन का जन्म हुआ।
ययाति ने जब यदु को सिन्ध-गुजरात के क्षेत्र दिए तो उस समय गुजरात के समुद्र तट पर एक उजाड़ नगरी थी जिसे कुशस्थली कहा जाता था। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराज रैवतक ने प्रथम बार समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकालकर यहां एक नगरी बसाई थी। यहां उनके द्वारा कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण इसे कुशस्थली कहा गया। अन्य मान्यताओं के कारण इसे राम के पुत्र कुश के वंशजों ने बसाया था। यह भी कहा जाता है कि यहीं पर त्रिविक्रम भगवान ने 'कुश' नामक दानव का वध किया था इसीलिए इसे कुशस्थली कहा जाता है। जो भी हो, यहां पर महाराजा रैवतक ने अपनी एक नगरी बसाई थी।
अज्ञात कारणों के चलते जब यह नगरी उजाड़ हो गई तो सैकड़ों वर्षों तक इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। बाद में जरासंध के आक्रमण से त्रस्त होकर श्रीकृष्ण ने मथुरा से अपने 18 कुल के हजारों लोगों के साथ पलायन किया तो वे कुशस्थली आ गए थे और यहीं उन्होंने नई नगरी बसाई और जिसका नाम उन्होंने द्वारका रखा। इसमें सैकड़ों द्वार थे इसीलिए इसे द्वारका या द्वारिका कहा गया। इस नगरी को श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा और मयासुर की सहायता से बनवाया था।
यह अभेद्य दुर्ग था। लेकिन कहते हैं कि जब भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका से बाहर लंबी यात्रा पर थे तब उनके शत्रु शिशुपाल ने यहां आक्रमण कर इस नगरी को कुछ हद तक नष्ट कर दिया था। इसे श्रीकृष्ण ने फिर से मजबूत बनवाया था। विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण में उल्लेख मिलता है कि कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था, जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी।