क्या ईश्वर ने बनाया है इस ब्रह्मांड को, जानिए

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं, अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था।
छिपा था क्या कहां, किसने देखा था उस पल तो अगम, अटल जल भी कहां था।-ऋग्वेद(१०:१२९)
 
आखिर किसने रचा ब्रह्मांड? यह सवाल आज भी उतना ही ताजा है जितना की प्राचीन काल में हुआ करता था। ईश्वर के होने या नहीं होने की बहस भी प्राचीन काल से चली आ रही है। अनिश्वरवादी मानते आए हैं कि यह ब्रह्मांड स्वत:स्फूर्त है, लेकिन ईश्‍वरवादी तो इसे ईश्वर की रचना मानते हैं। अधिकतर लोग धर्मग्रंथों में जो लिखा है उसे बगैर विचारे पत्थर की लकीर की तरह मानते हैं और कट्टरता की हद तक मानते हैं।
वेद, पुराण, ज़न्द अवेस्ता, तनख (ओल्ड टेस्टामेंट), बाइबल, कुरान और गुरुग्रंथ आदि सभी धर्मग्रंथ ब्रह्मांड को ईश्वरकृत मानते हैं। लेकिन दर्शन और विज्ञान अभी भी इसके बारे में बहस और शोध करते रहते हैं। पहले कि अपेक्षा विज्ञान ने ब्रह्मांड के बहुत सारे रहस्यों से पर्दा उठा दिया है...देखना है कि आगे क्या होता है?
 
स्टीफन हॉकिंग :
कुछ दिनों पूर्व विश्व के अग्रणी भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने निष्कर्ष निकाला था कि ईश्वर ने यह ब्रह्मांड नहीं रचा है, बल्कि वास्तव में यह भौतिक विज्ञान के अपरिहार्य नियमों का नतीजा है।
 
हॉकिंग ने अपनी नवीनतम किताब ‘द ग्रैंड डिजाइन’ में कहा कि चूंकि गुरुत्वाकषर्ण जैसे कानून हैं, ब्रह्मांड कुछ नहीं से खुद को सृजित कर सकता है और करेगा। स्वत:स्फूर्त सृजन के चलते ही कुछ नहीं के बजाय कुछ है, ब्रह्मांड का वजूद है, हमारा वजूद है। 
 
'ए हिस्ट्री ऑफ टाइम' से दुनिया को चौंकाने वाले भौतिक विज्ञानी ने अपनी इस नई किताब में सर आइजक न्यूटन की इस अवधारणा को खारिज कर दिया कि ब्रह्मांड स्वत:स्फूर्त ढंग से बनना शुरू नहीं कर सकता, बल्कि ईश्वर ने उसे गति दी है।
 
डेली टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के अनुसार हॉकिंग ने कहा कि ब्ल्यू टचपेपर को रोशन करने और ब्रह्मांड के आगाज के लिए ईश्वर का आह्वान करना जरूरी नहीं है। उल्लेखनीय है कि 1968 की अपनी किताब 'ए हिस्ट्री ऑफ टाइम' में हॉकिंग ने ब्रह्मांड के सृजन में ईश्वर की भूमिका खारिज नहीं की थी।
 
ब्रह्मांड की उम्र : 2002 में हुए एक शोध अनुसार हबल अंतरिक्ष दूरबीन ने हमारी आकाशगंगा के प्राचीनतम तारों का पता लगाया है जिसके आधार पर ब्रह्मांड की उम्र 13 से 14 अरब वर्ष के बीच आंकी गई है।
 
वैज्ञानिकों ने आकाशगंगा के अत्यंत छोटे और बुझते तारों को 7000 प्रकाश वर्ष दूर क्षय होते तारों के एक झुंड में खोजा। इन बुझते तारों के मौजूदा तापमान के आधार पर वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया कि अधिकतम 13 अरब वर्ष पहले इनका जन्म हुआ होगा। पहले ब्रह्मांड की उम्र 15 अरब वर्ष मानी जा रही थी।
 
इस तरह पहली ब्रह्मांड की उम्र का आधार तारों के ठंडे होने की रफ्तार को बनाया गया है। इससे पहले ब्रह्मांड के फैलने की दर को इसकी उम्र मापने का आधार बनाया गया था जिसके आधार पर 15 अरब वर्ष माना जाता रहा।
 
इस ताजा खोज के महत्व को स्पष्ट करते हुए स्पेस टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट के ब्रुस मैरगों ने कहा कि ये बिल्कुल वैसा ही है कि आपको अपनी उम्र मालूम है, लेकिन इस बारे में आपके पास कोई सबूत नहीं है।
 
कैसे हुई ब्रह्मांड की उत्पत्ति : धर्म तो सीधे सीधे ईश्वर को रचयीता मानकर छुटकारा पा लेता है, जैसे कि तनख, बाइबल और ‍कुरान के अनुसार इसे 6 दिन में ईश्वर ने रचा और सातवें दिन उसने आराम किया। बस। लेकिन इस संबंध में वेद और विज्ञान की धारणाएं भिन्न है।
 
लगभग 14 अरब साल पहले ब्रह्मांड नहीं था, सिर्फ अंधकार था। अचानक एक बिंदु की उत्पत्ति हुई। फिर वह बिंदु मचलने लगा। फिर उसके अंदर भयानक परिवर्तन आने लगे। इस बिंदु के अंदर ही होने लगे विस्फोट। 
 
तब अंदर मौजूद प्रोटोन्स की आपसी टक्कर से अपार ऊर्जा पैदा हुई। विस्फोट बदला महाविस्फोट में। इन महाविस्फोटों से ब्रह्मांड का निर्माण होता रहा। आज भी ब्रह्मांड में महाविस्फोट होते रहते हैं। इस तरह ब्रह्मांड लगातार फैल रहा है। बस यही बिग बैंग थ्योरी है, जो कुछ हद तक सही भी हो सकती है।
 
अब प्रश्न यह है कि क्या सच में ही ऐसा हुआ? क्या ऊर्जा से आकाश, हवा, पानी, ग्रह, तारे, पृथ्वी और इन्सान बने? कैसे तय हुई दिशाएं, कहां से आया समय? कैसे बना पदार्थ? किसने बनाया इसे? किसने किया महाविस्फोट। सच क्या है, यह कोई नहीं जानता। यदि कोई जानने का प्रयास नहीं करता तो उसके लिए धर्म के रेडिमेड उत्तर ही सही है उसी मेढ़क की तरह जिसकी कहानी हम बचपन से सुनते आए हैं।

हिन्दू धर्म अनुसार क्या है ब्रह्मांड उत्पत्ति का सिद्धांत, जानिए....

वेद कहते हैं कि ईश्‍वर ने ब्रह्मांड नहीं रचा। ईश्‍वर के होने से ब्रह्मांड रचाता गया। उसकी उपस्थिति ही इतनी जबरदस्त थी कि सब कुछ होता गया। आत्मा उस ईश्‍वर का ही प्रतिबिम्ब है। वेदों अनुसार यह ब्रह्मांड पंच कोषों वाला है जहां सभी आत्माएं किसी न किसी कोष में निवास करती है। ये पंचकोष है:- जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद। यहां पर वेद और पुराणों दोनों के ही सिद्धांत प्रस्तुत है।
अरबों साल पहले ब्रह्मांड नहीं था, सिर्फ अंधकार था। अचानक एक बिंदु की उत्पत्ति हुई। फिर वह बिंदु मचलने लगा। फिर उसके अंदर भयानक परिवर्तन आने लगे। इस बिंदु के अंदर ही होने लगे विस्फोट। शिव पुराण मानता है कि नाद और बिंदु के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई।
 
नाद अर्थात ध्वनि और बिंदु अर्थात प्रकाश। इसे अनाहत या अनहद (जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं) की ध्वनि कहते हैं जो आज भी सतत जारी है इसी ध्वनि को हिंदुओं ने ॐ के रूप में व्यक्त किया है। ब्रह्म प्रकाश स्वयं प्रकाशित है। परमेश्वर का प्रकाश।
 
ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा- यह तीन तत्व हैं। ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ 'बढ़ना' या 'फूट पड़ना' होता है। ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है।- उपनिषद
 
जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि नृत्यकार और नृत्य में कोई फर्क नहीं। जब तक नृत्यकार का नृत्य चलेगा, तभी तक नृत्य का अस्तित्व है, इसीलिए हिंदुओं ने ईश्वर के होने की कल्पना अर्धनारीश्वर के रूप में की जो नटराज है।
 
इसे इस तरह भी समझें 'पूर्व की तरफ वाली नदियां पूर्व की ओर बहती हैं और पश्चिम वाली पश्चिम की ओर बहती है। जिस तरह समुद्र से उत्पन्न सभी नदियां अमुक-अमुक हो जाती हैं किंतु समुद्र में ही मिलकर वे नदियां यह नहीं जानतीं कि 'मैं अमुक नदी हूं' इसी प्रकार सब प्रजा भी सत् (ब्रह्म) से उत्पन्न होकर यह नहीं जानती कि हम सत् से आए हैं। वे यहां व्याघ्र, सिंह, भेड़िया, वराह, कीट, पतंगा व डांस जो-जो होते हैं वैसा ही फिर हो जाते हैं। यही अणु रूप वाला आत्मा जगत है।-छांदोग्य
 
महाआकाश व घटाकाश : ब्रह्म स्वयं प्रकाश है। उसी से ब्रह्मांड प्रकाशित है। उस एक परम तत्व ब्रह्म में से ही आत्मा और ब्रह्मांड का प्रस्फुटन हुआ। ब्रह्म और आत्मा में सिर्फ इतना फर्क है कि ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश। घटाकाश अर्थात मटके का आकाश। ब्रह्मांड से बद्ध होकर आत्मा सीमित हो जाती है और इससे मुक्त होना ही मोक्ष है।
 
उत्पत्ति का क्रम : परमेश्वर (ब्रह्म) से आकाश अर्थात जो कारण रूप 'द्रव्य' सर्वत्र फैल रहा था उसको इकट्ठा करने से अवकाश उत्पन्न होता है। वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि बिना अवकाश (खाली स्थान) के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सके और बिना अवकाश के आकाश कहां हो। अवकाश अर्थात जहां कुछ भी नहीं है और आकाश जहां सब कुछ है।
 
पदार्थ के संगठित रूप को जड़ कहते हैं और विघटित रूप परम अणु है, इस अंतिम अणु को ही वेद परम तत्व कहते हैं जिसे ब्रह्माणु भी कहा जाता है और श्रमण धर्म के लोग इसे पुद्‍गल कहते हैं। भस्म और पत्थर को समझें। भस्मीभूत हो जाना अर्थात पुन: अणु वाला हो जाना।
 
आकाश के पश्चात वायु, वायु के पश्चात अग्न‍ि, अग्नि के पश्चात जल, जल के पश्चात पृथ्वी, पृथ्वी से औषधि, औ‍षधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात शरीर उत्पन्न होता है।- तैत्तिरीय उपनिषद
 
इस ब्रह्म (परमेश्वर) की दो प्रकृतियां हैं पहली 'अपरा' और दूसरी 'परा'। अपरा को ब्रह्मांड कहा गया और परा को चेतन रूप आत्मा। उस एक ब्रह्म ने ही स्वयं को दो भागों में विभक्त कर दिया, किंतु फिर भी वह अकेला बचा रहा। पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्ण ही शेष रह जाता है, इसलिए ब्रह्म सर्वत्र माना जाता है और सर्वत्र से अलग भी उसकी सत्ता है।
 
त्रिगुणी प्रकृति : परम तत्व से प्रकृति में तीन गुणों की उत्पत्ति हुई सत्व, रज और तम। ये गुण सूक्ष्म तथा अतिंद्रिय हैं, इसलिए इनका प्रत्यक्ष नहीं होता। इन तीन गुणों के भी गुण हैं- प्रकाशत्व, चलत्व, लघुत्व, गुरुत्व आदि इन गुणों के भी गुण हैं, अत: स्पष्ट है कि यह गुण द्रव्यरूप हैं। द्रव्य अर्थात पदार्थ। पदार्थ अर्थात जो दिखाई दे रहा है और जिसे किसी भी प्रकार के सूक्ष्म यंत्र से देखा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है या अनुभूत किया जा सकता है। ये ब्रहांड या प्रकृति के निर्माणक तत्व हैं।
 
प्रकृति से ही महत् उत्पन्न हुआ जिसमें उक्त गुणों की साम्यता और प्रधानता थी। सत्व शांत और स्थिर है। रज क्रियाशील है और तम विस्फोटक है। उस एक परमतत्व के प्रकृति तत्व में ही उक्त तीनों के टकराव से सृष्टि होती गई।
 
सर्वप्रथम महत् उत्पन्न हुआ, जिसे बुद्धि कहते हैं। बुद्धि प्रकृति का अचेतन या सूक्ष्म तत्व है। महत् या बुद्ध‍ि से अहंकार। अहंकार के भी कई उप भाग है। यह व्यक्ति का तत्व है। व्यक्ति अर्थात जो व्यक्त हो रहा है सत्व, रज और तम में। सत्व से मनस, पांच इंद्रियां, पांच कार्मेंद्रियां जन्मीं। तम से पंचतन्मात्रा, पंचमहाभूत (आकाश, अग्न‍ि, वायु, जल और ग्रह-नक्षत्र) जन्मे।
 
इसे अब सरल तरीके से समझें....
 

इसे इस तरह समझें : उस एक परम तत्व से सत्व, रज और तम की उत्पत्ति हुई। यही इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटॉन्स का आधार हैं। इन्हीं से प्रकृति का जन्म हुआ। प्रकृति से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से मन और इंद्रियां तथा पांच तन्मात्रा और पंच महाभूतों का जन्म हुआ।
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। जब हम पृत्वी कहते हैं तो सिर्फ हमारी पृथ्वी नहीं। प्रकृति के इन्हीं रूपों में सत्व, रज और तम गुणों की साम्यता रहती है। प्रकृति के प्रत्येक कण में उक्त तीनों गुण होते हैं। यह साम्यवस्था भंग होती है तो महत् बनता है।
 
प्रकृति वह अणु है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता, किंतु महत् जब टूटता है तो अहंकार का रूप धरता है। अहंकारों से ज्ञानेंद्रियां, कामेद्रियां और मन बनता है। अहंकारों से ही तन्मात्रा भी बनती है और उनसे ही पंचमहाभूत का निर्माण होता है। बस इतना समझ लीजिए क‍ि महत् ही बुद्धि है। महत् में सत्व, रज और तम के संतुलन टूटने पर बुद्धि निर्मित होती है। महत् का एक अंश प्रत्येक पदार्थ या प्राणी में ‍बुद्धि का कार्य करता है।‍
 
बुद्धि से अहंकार के तीन रूप पैदा होते हैं- पहला सात्विक अहंकार जिसे वैकारी भी कहते हैं विज्ञान की भाषा में इसे न्यूट्रॉन कहा जा सकता है। यही पंच महाभूतों के जन्म का आधार माना जाता है। दूसरा तेजस अहंकार इससे तेज की उत्पत्ति हुई, जिसे वर्तमान भाषा में इलेक्ट्रॉन कह सकते हैं। तीसरा अहंकार भूतादि है। यह पंच महाभूतों (आकाश, आयु, अग्नि, जल और पृथ्वी) का पदार्थ रूप प्रस्तुत करता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार इसे प्रोटोन्स कह सकते हैं। इससे रासायनिक तत्वों के अणुओं का भार न्यूनाधिक होता है। अत: पंचमहाभूतों में पदार्थ तत्व इनके कारण ही माना जाता है।
 
सात्विक अहंकार और तेजस अहंकार के संयोग से मन और पांच इंद्रियां बनती हैं। तेजस और भूतादि अहंकार के संयोग से तन्मात्रा एवं पंच महाभूत बनते हैं। पूर्ण जड़ जगत प्रकृति के इन आठ रूपों में ही बनता है, किंतु आत्म-तत्व इससे पृथक है। इस आत्म तत्व की उपस्थिति मात्र से ही यह सारा प्रपंच होता है।
 
अब इसे इस तरह भी समझें : 
'अनंत-महत्-अंधकार-आकाश-वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी' 
यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस ‍गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से ‍आच्छादित है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है। 
 
वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहां तक प्रकाशित होता है, वहां से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है। और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है और महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।
 
प्रलय की धारणा : पुराणों में प्रलय के चार प्रकार बताए गए हैं- नित्य, नैमित्तिक, द्विपार्थ और प्राकृत। प्राकृत ही महाप्रलय है। 'जब ब्रह्मा का दिन उदय होता है, तब सब कुछ अव्यक्त से व्यक्त हो जाता है और जैसे ही रात होने लगती है, सब कुछ वापस आकर अव्यक्त में लीन हो जाता है।' -भगवद्गीता-8.18
 
सात लोक हैं : भूमि, आकाश और स्वर्ग, इन्हें मृत्युलोक कहा गया है, जहां उत्पत्ति, पालन और प्रलय चलता रहता है। उक्त तीनों लोकों के ऊपर महर्लोक है जो उक्त तीनों लोकों की स्थिति से प्रभावित होता है, किंतु वहां उत्पत्ति, पालन और प्रलय जैसा कुछ नहीं, क्योंकि वहां ग्रह या नक्षत्र जैसा कुछ भी नहीं है।
 
उसके भी ऊपर जन, तप और सत्य लोक तीनों अकृतक लोक कहलाते हैं। अर्थात जिनका उत्पत्ति, पालन और प्रलय से कोई संबंध नहीं, न ही वो अंधकार और प्रकाश से बद्ध है, वरन वह अनंत असीमित और अपरिमेय आनंदपूर्ण है।
 
श्रेष्ठ आत्माएं पुन: सत्यलोक में चली जाती हैं, बाकी सभी त्रैलोक्य में जन्म और मृत्य के चक्र में चलती रहती हैं। जैसे समुद्र का जल बादल बन जाता है, फिर बादल बरसकर पुन: समुद्र हो जाता है। जैसे बर्फ जमकर फिर पिघल जाती है।
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